Friday, March 27, 2009

ये जज़बा सलामत रहे...!

Wednesday, December 3, २००८

इस वक़्त मुंबई के गेटवे ऑफ़ इंडिया पार उमड़ा हुआ जनसागर, टीवी पे देख रही हूँ...मन भर आया है...सलामत रहे ये जज़्बा...सलामत रहे मेरा देश...! कहीँ ये बात सिर्फ़ आयी गयी हो जाए..लोग बोहोत जल्दी हर बात भूल जाते हैं....डरती हूँ, कहीं ऐसा हो...! हमें अब हमारा जोश, हमारी दिलेरी हमारी एकता हर हालमे बनाये रखनी है...आज हमारी रखवाली हमही कर सकते हैं...हमारे चुने गए नेतागण किसी काबिल नही...जबकि येभी सच है की उनका निर्माण किसी प्रयोगशालामे नही हुआ...ये हमारीही माँ बेहनोंके जाये हैं....!तो फिर हम कहाँ चूक गए...चूक रहे हैं ? क्या हमारे परिवारोंमे देशभक्ती के संस्कार नही होते ? क्या हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों को अच्छे नागरिकत्व की शिक्षा नही देती ? क्या सिर्फ़ इतिहास भूगोल, गणित आदिकी शिक्षा लेके हम अपने आपको शिक्षित कहलाने लगते हैं?


पोलिस मेह्कमेके अनगिनत सवालोंको उठाते हुए ,एक डॉक्युमेंटरी बनाना चाह रही हूँ... ... जातीयवाद, आतंकवाद और सुरक्षा करमी, जिनके हाथ कानून ने किसतरह बाँध रखे हैं, इन सभी मुद्दोकोका विश्लेषण होगा, और देशके एहम व्याक्तियोंके इंटरव्यू लिए जायेंगे...जानकारोंका इन मुद्दोंको लेके क्या कहना है, जो इन मुद्दोंसे जुड़े रहे हैं, वो इस समय क्या कहना चाहते हैं....ये सब का जायजा लिया जाएगा...ये केवल भावनात्मक खेल नही है...एक अभ्यासपूर्ण, लेकिन लोगोंको गहरायीतक सोचनेको मजबूर करनेवाली, झकझोर के रखनेवाली पेशकश होगी।
मुझे ज़बरदस्त मेहनत करनी होगी...हर ओरसे सहायताकी दरकार कर रही हूँ...उम्मीद रख रही हूँ...

कई महिलायें, जो अपनी ओरसे, अपने देशके लिए कुछ करना चाहती होंगी और दबके रह जाती होंगी.... उन्हें एक प्रेरक तरीक़ेसे साहस दिलाना चाहती हूँ...!उठो, कि और कोई नही तो मै हूँ ! मै हूँ ना...! आओ, मेरे साथ हाथ मिला सकती हो तो मिलाओ....एक ज्योतसे दूसरी जलाओ...शायद अनंत ज्योतियोंकी एक श्रृंखला हम बना पायें.....! नाउम्मीद ना हो...आज नही तो कल, हमारी दख़ल हमारे परिवारोंको लेनीही पड़ेगी ! हमें येभी ज़िम्मेदारी निभानी है ! एक जागरूक माँ से बढ़के कौन अपने बच्चों को सही राह दिखा सकती है? कोई नही...!

जब सारे देशका प्रतिनिधित्व मुम्बई कर रही है, निर्भयतासे, और वो तीनो ठाकरे अपनी "सेना" के साथ किसी दड्बेमे घुसे हुए हैं, मेरी बहनों, तुम उठो...उठो कि हमारे बच्चों को एक दिशा दिखानी है...कहीँ वो फिर एकबार भटक ना जायें....उन्हें धोकेमे डालके कोई ख़ुद गर्ज़ भटका ना दे ...हमें सतर्क रहना है...हमारे तिरंगेको आकाशमे गाडे रखना है.....वरना ये बारूद्के ढेर पे बैठी हुई दुनिया, बमोंके धमाकोंसे हमें डराती हुई दुनिया, हमारे हर शहीद के बलिदानको बेकार बना सकती है, हर बलिदान ज़ाया जा सकता है....गांधी के पहलेसे लेके आजतक का हर बलिदान निरर्थक हो जाएगा...वो माँ यें, वो वीरांगनाएँ, उनके भाई, बेहेन सब निराश हो तकते रह जायेंगे और दरिन्दे आतंक की आड्मे हमें निगल जायेंगे...!

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मेरी आवाज़ सुनो...!

Thursday, November 27, 2008

मेरी आवाज़ सुनो !

आज अपनी श्रृंखला छोड़ एक पुकार लेके आयी हूँ...एक पीडामे डूबी ललकार सुनाना चाहती हूँ...एक आवाहन है.....अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!

एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे दाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !

अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?

कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री. धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नेशनल पोलिस कमिशन के तेहेत कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-.भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे। यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके जिम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही..

दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!

मुझे याद आ रहा था वो हेमंत करकरे जब उसने नयी नयी नौकरी जोइन की थी। हम औरंगाबादमे थे। याद है उसकी पत्नी...थोड़ी बौखलाई हुई....याद है नासिक मे प्रशिक्षण लेनेवाला अशोक और दातेभी...वैसे तो बोहोत चेहरे आँखोंकी आगेसे गुज़रते जा रहे थे। वो ज़माने याद आ रहे थे...बड़े मनसे मै हेमंतकी दुल्हनको पाक कला सिखाती थी( वैसे बोहोतसे अफसरों की पत्नियोंको मैंने सिखाया है.. और बोहोत सारी चीजोंसे अवगत कराया है। खैर)औपचारिक कार्यक्रमोंका आयोजन करना, बगीचों की रचना, मेज़ लगना, आदी, आदी....पुलिस अकादमी मे प्रशिक्षण पानेवाले लड़कोंको साथ लेके पूरी, पूरी अकादेमी की ( ४०० एकरमे स्थित) landscaping मैंने की थी....!ये सारे मुझसे बेहद इज्ज़त और प्यारसे पेश आते...गर कहूँ कि तक़रीबन मुझे पूजनीय बना रखा था तो ग़लत नही होगा...बेहद adore करते ।

इन लोगोंको मै हमेशा अपने घर भोजनपे बुला लिया करती। एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।
रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...

सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....

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Monday, March 16, 2009

माफीकी दरकार है !

Sunday, December 14, 2008

माफीकी दरकार है !

मैंने कलही एक लेख लिखा, किसीकी असंवेदन शीलतापे....तपशील अधिक नही दिए, क्योंकि पूरी बात जानना चाहती थी.....जो आज जानी। अब दिमाग थोडा ठंडा हुआ...वरना तिलमिला उठी थी.....!
" पुलिस वालों का मोटा पेट कहीं तो काम आया", ये वो अल्फाज़ मैंने मेरे बेहद क़रीबी व्याक्तिसे सुने, फोनेपे...ये व्यक्ति हमेशा सही बात बताता/बताती है। यही व्यक्ति इस मेह्कमेसे किसीके द्वारा जुडी हुई है। उनकी कठिनाईयाँ उसे ब-ख़ूबी पता हैं। जैसे आम लोग पुलिस के बारेमे बिना जाने कह देते हैं, या मीडिया और अखबार कहते हैं , उसे पूर्ण सत्य मान लेते हैं, उन्हीं मेसे एक निकली। अख़बार या मासिक पत्रिका मे छप गया तो वो पत्थरकी लकीर।
अफ़सोस की उस व्यक्तीने कोट करते समय , यही अल्फाज़ इस्तेमाल किए। और मैंने उसे मानके लिख दिया...असंवेदनशीलता तो थीही, लेकिन उस व्याकिके मस्तिष्क्मे।
एक आलेख था,' इंडिया टुडे' मे। उसके अल्फाज़ थे," मुम्बईके पुलिस मेहेकमे को , वहाँ कार्यरत सुरक्षा कर्मियों की,
उनके मोटापे को लेके चिंता करना छोड़ देनी चाहिए !सच तो ये है कि ऐसेही दस बारह पुलिस वालों का मिला जुला मोटापाही शायद कसबको पकड़नेमे काम आया! वो कसब जिसने CST और कामा अस्पताल मे ह्त्या काण्ड मचाया और भाग निकला।"
उसे ज़िंदा पकड़ना बेहद ज़रूरी था, ये उस निहत्ते इंस्पेक्टर को खूब अच्छी तरहसे पता था...AK ४७ । वो उसकी समयसूचकता थी...किसीका आर्डर नही था...अपनी जानपे खेलके उसने AK ४७ की नली अपने तरफ मोडके मज़बूती से पकड़ रखा...इसी कारन उसके साथियोंको मौक़ा मिला कसबको पकड़ लेनेका, और वोभी जिंदा। तुकाराम खुदके बचावमे बन्दूक घुमाके कसबको मार सकता था, या अन्य लोगोंको मरने दे सकता था...पर नही, उसने अपने देहकी एक दीवार बना दी...लाठी और ढृढ़ निश्चयके आगे कसब हार गया। मुम्बई पुलिसकी ये सबसे बड़ी उपलब्धि हुई।उसने अपनी इस बहदुरीके कारन कसबको आत्महत्या करनेसे रोक लिया गया । पूरी दुनिया मे बेमिसाल कर्तव्य परायणता , समयसूचकता और निर्भयता... ...!जो बात US के सु सज्ज कमान्डोस नही कर पाते, वो करिश्मा एक निहत्ते सुरक्षा करमीने कर दिखाया।
अव्वल तो यहाँ मोटापे का सन्दर्भ देनेकी ज़रूरत ही नही थी। ठीक है, ये लेखन स्वातंत्र्य हो गया ! छपी हुई किसीभी चीज़को आजभी लोग पत्थरकी लकीर मानतें हैं, चाहे वो अख़बार मे हो, पत्रिका मे हो या समाचार वाहिनियों पे हो..!
अब मै सबसे अधिक गलती उस व्यक्ती की कहूँगी, इस घटनाको लेके, जिसने मुझे ये बात फोनपे सुनाई। मेरी उस वक्त ये बेहेसभी हो गई कि, उनके विचारसे, कांस्टेबल आदि, सुबह व्यायामके लिए समय निकालही सकतें हैं...और कारन जो कुछ हो मोटा पेट ये सच है..! और मेरा कहना था कि उन्हें बन्दूक पकडनेकी तक ट्रेनिंग देनेकी मोहलत मिलती नही , ऐसे लोग कब तो योग करेंगे और कबतो अपनी ड्यूटी पे पोहोचेंगे...कितने पोलिस वाले कोईभी त्यौहार घरमे मन सकते हैं ? नही...दूसरे उसे सड़क पे खुले आम हुड दंग मचाते हुए मन सकें, इसलिए उन्हें तैनात होना पड़ता है। एकेक कांस्टेबल से लेके पोलिस आयुक तक गणेश विसर्जनके दिन ४८/ ४८ घंटें जगहसे हिल नही सकता...यही बात नवरात्रों मेभी ! बीच बीछ मे मंत्रीगण अपने श्रद्धा सुमन चढाने आ जाते हैं...तो उनके लिए तैनात रहो...! वो वर्दीधारी किस हद तक थक जाता होगा कभी जनताने सोचा है पलटके ?
लातूर के भयंकर विनास्शी भूकंप के बाद मल्बेमे कई लाशें दबी रही हुई थी। पोलिस की मददके लिए अर्म्य्को प्रचारण किया गया। वहाँ की लाशोंकी सड्नेकी बू सूँघ आर्मी ने ये काम करनेसे इनकार कर दिया। यही बात आंध्र प्रदेश मेभी हुई थी, जहाँ साइक्लोन के बाद सदी हुई लाशें पोलिस नही हटाई, आर्मी ने मना कर दिया।
ऐसे पोलिस कर्मियों के बारेमे उठाई ज़बान लगाई तालुको, ये आदत-सी पड़ गई है। जिस व्यक्तीने ये बात जो मुझे फोनपे सुनाई, उसकी आवाजमे वही हिकारत भरी हुई थी...अपने मोटे पेट तो इनसे संभाले जाते, ये अतिरेकियों क्या पकड़ पाएंगे....और जब अतिरेकी पकड़मे आए तो , दिल खोलके तारीफ करनेके बजाय अपने मनसे अर्थ निकाल लिया और सुना दिया...ये जानते हुए कि मै डॉक्युमेंटरी बनाने जा रही हूँ, सही डाटा, सही घटनायोंका ब्यौरा जमा कर रही हूँ, और उनके वक्ताव्य्को पेश कर सकती हूँ, उस व्यक्तीने सोच लेना चाहिए था...मैंने उसी वक्त उन से येभी कहा कि आपको पेपर का नाम, तारीख, किसने लिखा ये सब पता है तो बताया गया कि, उन्हों ने अबतक जो कहा है, उतना तो सही है, सिर्फ़ तारीख देखनी होगी।
आज जब उनसे बात हुई तो पाक्षिक था "इंडिया टुडे, टाईम्स ऑफ़ इंडिया नही...!लेखमे इस्तेमाल किए गए अल्फाज़ तो मुझे अब भी सही नही लगे, लेकिन जो अल्फाज़ उस व्यक्तीने निकाले, और अपने पूरे विश्वास साथ कहे, मै दंग रह गई, इतना कहना काफी नही...मै स्तब्ध हो गई....इस तरह का मतलब क्योँ निकाला उस व्यक्ती ने ? क्या हक़ बनता है, ऐसे समयमे, ऐसी बहादुरीसे लड़ी जंग, जहाँ अपना कर्तव्य, देशके प्रती, मूर्तिमंत बना खड़ा हो गया, कोईभी टिप्पणी कस देनेका ?
मुंबई मे एकेक कांस्टेबल को अपने कार्य स्थल पोहोचनेके लिए सुबह ५ बजे घरसे निकल जाना पड़ता है..कमसे कम २ घंटे, एक तरफ़ के , और कुछ ज़्यादा समय लौटते वक़्त। उसे सोने या खानेको वक़त नही मिलता वो व्यायाम कब करेगा ? बच्चे अपने पिताका दिनों तक मूह नही देख पाते...घरमे कोई बीमार हो तो उसकी ज़िम्मेदारी पत्नी पे आ पड़ती है। कैसा होता है उसका पारिवारिक जीवन, या कुछ होताभी है या नही ?घरमे बीमार माँ हो या बच्चे....उस व्यक्ती का कम मे कितना ध्यान लग सकता है??कमसे कम उनकी मेडिकल सेवाका तो कोई जिम्मेदार हो ! समाजको बस उनसे मांगना ही माँगना है, पलटके देना कुछ नही और एक शहीद्के बारेमे ऐसे अल्फाज़ के उसका मोटा पेट कहीं तो काम आया...!
आज मेरी गर्दन शरमसे गाडी जा रही है कि मैंने उस व्याक्तिपे इस क़दर विश्वास रखा और सुना हुआ असह्य लगा तो पाठकों के साथ बाँट लिया। खैर, ये तो सच है कि, उस व्यक्तीने अपने लेखमे तो इतना सीधा वार नही किया, जितनाकी उस मतलब निकालनेवाले वाले व्यक्तीने..!...! ऐसे लोगोंके लिए ईश्वरसे दुआ करती हूँ कि उन्हें हमेशा सन्मति मिले...!
कल जल्द बाज़ीमे की गई भूलके लिए हाथ जोडके माफ़ी चाहती हूँ। वादा रहा कि आइन्दा बिना दोबारा खुदकी तसल्ली किए बगैर मै कुछ नही लिखूँगी।

13 टिप्पणियाँ:

नीरज गोस्वामी said...

चलिए जिसने भी ऐसा सोचा या कहा वो माफ़ी का हकदार नहीं...आप इस कदर शर्मिंदा न हों...पत्रकारिता अब व्यापार है...और व्यापार में संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती...
नीरज

Amit K. Sagar said...
This post has been removed by the author.
डॉ .अनुराग said...

अपनी गलती को स्वीकार करना भी बड़ी बात है ......

विनय said...

सच तिजारत में जज़्बात की कोई जा नहीं!

Harsh pandey said...

i saw ur blog
it is nice. keep on writing

vipinkizindagi said...

apni bhul ko maan lena achchi baat hai......

aapka blog achcha laga....

सुप्रतिम बनर्जी said...

आपके लेखन में जो ईमानदारी है, बस वही सच्चा है। बनाए रखें। शुभकामनाएं।

राज भाटिय़ा said...

आप ने सच लिखा है, अब कहने वाला कोई भी हो तभी तो कहते है बोलने से पहले तोलना चाहिये, कि हम क्या बोल रहै है,लेकिन जिस ने भी यह शव्द बोले है... वो कभी भी अपने आप को माफ़ नही कर पायेगा, अगर उस मे थोडा भी जमीर होगा. आप दिल पर ना ले, सच को दुनिया के सामने लाना चाहिये
धन्यवाद

Irshad said...

ओह! बहुत तल्ख तेवर में बात को कहा हैं मुझे तो मालूम ही नही था आप ऐसे भी लिखते है। सूक्ष्मता को विस्तार के नजरीये से आपने देखा है। बहुत अच्छा। कुछ और गम्भीर सब्जैक्टस पर हाथ अजमा सकती है।

Kishore Choudhary said...

ब्लॉग सर्फ़ करने का समय कम ही मिलता है शाम को आकाशवाणी में उदघोषणा से फुर्सत मिलने के दौरान कुछ देखा लिया करता हूँ, आपकी टिपण्णी को आज ही देखा, सच में आपका आमंत्रण मेरे लिए सुखद हो सकता है, कहाँ कौन किसे अपने मन में झाँकने देता है अब अगला काम बन गया है आपके तमाम चिठ्ठे देखू फ़िर उन्हें क्रम में रख सकूँ , मेरा एक पसंदीदा शेर है , जनाब शमीम साहब फरमाते है " बाखुदा अब तो कोई तमन्ना ही नही फ़िर ये क्या बात है कि दिल कहीं लगता ही नही , सिर्फ़ चेहरे की उदासी से भरा एक आंसू दिल का आलम तो अभी आपने देखा ही नही ।" फिलहाल चेहरा पढ़ लूँ फ़िर कभी फुर्सत में पूछेंगे ज़िन्दगी के सबब क्या है?
किशोर

अक्षय-मन said...

अरे! कुछ तो कद्र कर कुदरत के उस करिश्मे की कुछ नही तो अब यहाँ कदम-कदम पर कलम बिकती है
काम से नही कद कीमत लगती है ...

वो ख़बर जिसे सुन-देख अफ़सोस किया खूब हमने अब वो खो गई है अश्लीलता के बाज़ार में जिसकी नज़रों पर डाले हैं लापरवाही के परदे वो क्यूँ देखे माँ को अपनी किस-किस फिरंगी से वो लुटती है

Amit said...

aapka blog aur aapki post kaafi acchi lagi....
apni bhool ko maan-na he ek mahan kaam hai....warna yahan to log bwandar karke bhi aarraam se rehte hain......

bahadur patel said...

bahut achchha likha.

इस संदेश के लिए लिंक

आओ जल्दी करो आगे

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हद है !

Saturday, December 13, 2008

हद है....! भाग १

एक प्रतिथयश और पुराने अग्रेज़ी अख़बार मे आज किसीने बडेही असंवेदनशील ढंगसे कुछ लिखा है। जैसेही उसे कॉपी पेस्ट करनेका मौक़ा मुझे मिलेगा मै करुँगी।
मुम्बईमे हुए आतंकवादी हमलेमे एक सब-इंसपेक्टर ने गज़बकी जांबांज़ी दिखलाई। नाम है, तुकाराम ओम्बले।
ख़ुद मुम्बई की जनता तो इसकी गवाह थीही, लेकिन मुम्बई के डीजीपी ने , जो इस से पहले मुम्बई के पुलिस आयुक्त रह चुके हैं, और जिनकी गणना हिन्दुस्तानके बेहतरीन और ईमानदार अफसरोंमे की जाती है, कलके टाईम्स ऑफ़ इंडिया (पुणे) मे एक लेख लिखा है।( परसोंके मुम्बई एडिशन मे)। लेख पढ़ के मन और आँखें दोनों भर आतीं हैं। तुकाराम के बारेमे लिखते समय वे कहते हैं," मै अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि, जब तुकारामने अपनी लाठी हाथमे लिए AK -47 का सामना किया होगा तो उसके मनमे कौनसे ख़याल गुज़र गएँ होंगे उसवक्त ! AK-47 की और लाठी की क्या कहीं किसी भी तौरपे तुलना की जा सकती है ? मुक़ाबला हो सकता है? तुकाराम मौक़ाये वारदात पे दौड़ा और अपने हाथोंसे उस आतंकवादी की बंदूक़ पकड़ ली जो उसके पेटमे गोलियाँ चलता रहा !उसकी इस कमालकी हिम्मतकी वजहसे कसब ज़िंदा पकड़ा गया ! कितना ज़रूरी था उसे ज़िंदा पकड़ना। तुकाराम की इस बहादुरी और समयसूचकता के कारण उसके अन्य साथी कसबको घेर के, ज़िंदा कब्ज़ा करलेने मे कामयाब रहे ! आज इस एक आतंकवादी के ज़िंदा पकड़मे आनेकी वजहसे कितनीही आतंकवादी घटनाओं का सुराग़ सुरक्षा यंत्रणा लगा पा रही है। आज इन जैसोंकी जाँ बाज़ी के कारण हमारी यंत्रणा फ़क्रसे सर उठाके खडी है !"ये अल्फाज़ हैं एक डीजीपी के जिसने अपने सहकारियों को खोया, उन्हें अश्रुपूर्ण नयनोंसे बिदा किया। वे गए तो हर परिवारको मिलने लेकिन एक हर्फ़ अपने मुहसे सांत्वना का निकाल नही पाये...केवल अपने आपसे एक वादा, एक निश्चय करते रहे कि हम इनमेसे किसी कीभी शहादत फुज़ूल जाने नही देंगे। उन्होंने औरों के बारेमे भी जो लिखा है उसे मै बादमे बता दूँगी। इसवक्त सिर्फ़ तुकारामकी बात कह रही हूँ, जिसकी एक ख़ास वजेह है। बल्कि एक अमेरिकन सिक्युरिटी अफसरने, न्यू योर्कर, इस अख़बारको बताया, " ये इतना भयंकर और जाँ बाज़ मुक़ाबला था , जिसकी बराबरी दुनियाका सबसे बेहतरीन समझा जानेवाला US का कमांडो फोर्स , द Naval SEALs भी नही कर सकता!"
अब सुनिए, इन जनाबकी, जिन्हों ने इसी अखबारमे ( The Times Of India) मे किस भद्दे तरीक़े से इसी वाक़या के बारेमे लिखा," चलो कहीं तो किसी पोलिस वालेका मोटा पेट काम आया "! कहनेका मन करता है इनसे, कि आपका तो कोई भी हिस्सा देशके किसी काम ना आता या कभी आयेगा ! शर्म आती है कि लिखनेवाला सिर्फ़ इस देशका नही महाराष्ट्र का रहनेवाला है ! अपने आपको क्या समझता है ? कोई बोहोत बड़ा बुद्धी जीवी ? गर हाँ, तो फ़िर हर बुधीजीवी के नामपे ये कलंक है...! इसतरह सोचने से पहले ये व्यक्ती शर्म से डूब कैसे नही गया ?
मै अधिकसे अधिक पाठकों की इस लेखपे प्रतिक्रया चाहती हूँ, उम्मीद है मेरी ये इच्छा आप लोग पूरी करेंगे !
इसके दूसरे भागमे मै अन्य शहीदों के बारेमे कुछ जानकारी दूंगी, जो अधिकतर लोगों को शायद पता नही होगी।
इंतज़ार है।
क्रमशः

18 टिप्पणियाँ:

विष्णु बैरागी said...

पढकर वेदना हुई । ऐसा लिखना तो दूर,कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है ?
युध्‍द काल में तो हर कोई देश भक्‍त होता है (होना ही पडता है) किन्‍तु किसी भी कौम की देश भक्ति की, वतनपरस्‍ती की वास्‍तविक परीक्षा सदैव ही शान्तिकाल में होती है ।
आपने इस बात को उठाया - अभिनन्‍दन ।

adil farsi said...

bahut bahaduri ka kam kiya tukaram ne..aisi bahaduri ko salaam.. naman

समयचक्र - महेद्र मिश्रा said...

tukaraam ji ne bahaduri bhara jo karanama kar dikhaya hai unki bahaduri ko mai salaam karata hun.shat shat naman karta hun. dhanyawad.

mehek said...

tukaram ji ko naman aur unki bahaduri bahut mayane rakhti hai.kaise koi aise behuda lafz keh sakta hai wo bhi ek patrakaar,jo ke khabar dokhane ke likhne ke alwa kuch nahi karte.khair shahid ki shahadat ko koi nahi bhulega.

"अर्श" said...

tukaram ji ke sath sath sare hindustan ke jabanj sipahiyon ko mera salam...


regards
arsh

नीरज गोस्वामी said...

ऐसी अख़बारों और लिखने वालों का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए...ये लोग किसी को कुछ दे तो सकते नहीं सिवाय दूसरों के काम में दोष निकलने के...धिक्कार है ऐसी पत्रिकारिता पर...तुकाराम जैसे लोग हैं तभी तो हम लोग आज साँस ले पा रहे हैं....नमन है ऐसे वीरों को.
नीरज

ab inconvenienti said...

उस बड़े और शरीफ आदमी की टिपण्णी वाली पेपर कटिंग भी स्केन कर के लगाइए.

अक्षय-मन said...

kitni nichi soch hai....

kya aise bhi log hote hain jo is balidaan ko is tarhan se kahainge ki lage jaise gali de rahe hon...
badi sharm ki baat hai aur ye sochne ki baat hai wo article chapa bhi aur kiski marzi se chapa gaya wo sab kis kism ke log hain us sipahi ke balidaan nahi motape ko dekha gaya kyunki publicity karni thi news paper ki??

kya har jagah naam dulat aur shorat hi aati hai???

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

कितनी शर्मनाक बात है :-(
आज़ादी है कि हम हमारी बातेँ
खुलकर कहेँ
परँतु किसी भी बात कहने के पहले इन्सानियत के तराज़ू पर
तौल कर मुँह खोलेँ
ये भी जरुरी है -
आप ने ध्यान दिलाया तब पता चला - कौन हैँ ये भद्दा मजाक करनेवाले ? उन्हेँ जूते मारीये ...
और मुँह पर टेप लगाकर
मुँह बँद करेँ इनका -
लावण्या

दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...

इस तरह के बदतमीज लोगों का तो सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। जो एक बहादुर की शहादत का मजाक उड़ाते हैं।

राज भाटिय़ा said...

तुकाराम ओम्बले का हमे दिल से आदर सत्कार करना चाहिये उस वीर की वजह से आज कितने लोग बच गये, ओर कितने भेद खुले है दुशमन के. आप इस कमीने अखबार वाले का नाम भी जरुर देती, ताकि लोग इस से खुब नफ़रत करे, ऎसे अख्वार वाले इस देश के दुशमन है.
तुकाराम ओम्बले को दिल से सलाम, चाहि वो किसी भी स्टॆट का हो है तो हमारा ही भाई, ओर हमारे लिये ही उस वीर ने सारी गोलियां खाई.
धन्यवाद

shama said...

Sabhika dhanyawad....maaibhi yahi chahti hun ki mere alawabhi aur bohotse log is tarahke leke apna tiraskar zahi karen ! Kamse us akhbaar to online ek khula khat likhen, jaise maine Raj Thakreko likha aur ab in janabko likhnewaali hun,,,,saath akhbaarko bhi ki apne patrakarita ke zimmedaaree kee garimaa banayen rakhen ! Ye nahi ki likhneki aazaadi hai to uska galat istemaal ho......gar in shaheedon ke rote bilakhte wariwaar is tarahki warta akhbaar me padh len to kya guzregi unpe ??

shama said...

Mera scanner bigad gaya hai...theek hotehi mai uska poora byoraa doongi....paper cutting ke saath.....yaqeen rakhiye.
Police ki aisee image banane ke liye media aur hindi filmen, donohi zimmedaar hain...Ab samay aaya hai ki ham aise logonko aade haathon le.....aapmese koyibhi chup na rahe......paper cuttnka intezaar karnese pelehi uska, filhaal anamik hai, dhikkar karen.....jahan, kar sakte hain karen,,,,doston ke saath wartalaame ya likhke...jaisebhi ho, kuchh na kuchh rozhi deshke liye chhotasahi sahi, qadam uthayen.....qadam dar qadan manzilen milhi jayengi.....sirf janjagruti kee neetaant awashyktaa hai......aaj kare so ab kar !Hamne liye chhote chhote qadahi samaj ko behtariki or leja sakten hain....karen zaroor...

RAJ SINH said...

dukh hai, sharm hai !

ek desh ke taur par ham na TUKARAM jaise balidaniyon ka naman kar pate hain na to kisee mirjafar aur jaichandon ko saza hee de pate hain.

bahut hee fakhr hai ki aapme ek sanvedansheel insaan to hai hee, hindustan ke ek bachche kee jimmedaree bhee hai.

aapka jazba aapkee lalkar aur aapka dard ham sabhee ka hai. use naman !

Harkirat Haqeer said...

शमा जी, बहुत बढिया लिख रही हैं आप...सबसे बडी बात आपने कितनी बारीकी से हर घटना को उरेका
है ...कैसे याद रखा सबकुछ और कैसे अपना मानसिक संतुलन बनाये रखा...? ये मैं इसलिए कह रही हूँ
क्‍योंकि ....मन भारी हो रहा यार फिर कभी...।

अनुपम अग्रवाल said...

अत्यन्त दुखद और असंवेदनशीलता है .
जिसको पढने में ही अच्छा नहीं लग रहा है वह करने में कैसा लगा होगा .
तुकाराम जी को श्रधान्जली.

Vijay Kumar Sappatti said...

aaj aapke is lekh ko padkar man bhi ro utha..

hamre desh mein aise na jaane kitne shahid hai ..

main unhe naman karta hoon ..

vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/

Ajayendra Rajan said...

ye sab parhne k baad mam apse sirf itna hi keh sakta hoon...kyonki mai bhi 1 patrakar hoon isliye us patrakar ki galti ki kshma yachna karta hoon...asha hai aap maaf kar dengi...

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Sunday, March 8, 2009

मेरा अब यही मकसद ....

Saturday, July 26, 2008

आजसे मेरा मकसद !

मैंने हालहीमे एक मूवी मेकिंग का कोर्स किया। अपनीही कहानी(जो मेरे ब्लॉग पे मौजूद है) एक छोटी फिल्मभी बना डाली। उसीका सम्पादन आजकल कर रही हूँ।
कल बंगलौर मे हुए बम धमाकों का समाचार मिला और आज शामसे सुनती जा रही हूँ अहमदाबाद मे हो रहे बम धमाकोंके बारेमे। इस फिल्मका सम्पादन करते, करते सोंचमे पडी थी की आगे अपने इस नए माध्यम का कैसे प्रयोग करूँ। एक और कहानी," दयाकी दृष्टी सदाही रखना " पे मेरा ध्यान केंद्रित हो रहा था। शायद वो मै बनाभी लूँगी क्योंकि उसमे जाने अनजाने कुछ ऐसे विषयों पे लिख बैठी हूँ, जो आजके ज़मानेमे काफी सुसंगत हैं। ( ये कथाभी मेरे ब्लॉग पे मौजूद है)। पर आजके बादसे मेरा मुख्य मक़सद रहेगा, आतंकवाद्के ख़िलाफ़ तथा जातीयवाद्के ख़िलाफ़ अपने हर माध्यम का उपयोग करना।
आप सभीसे गुज़ारिश है की मेरा "प्यारकी राह दिखा दुनियाको" ये लेख अवश्य पढ़ें। ये गुजरात मे हुए क़ौमी फसादों के बाद लिखा था। मेरे विचार से ये लेख आज उतनाही सुसंगत है, जितनाकी तब था। बडेही अफसोसकी बात है। काश! ऐसा न होता!!लेकिन इस राह्पे मेरे साथ कोई चले न चले मुझे चलनाही होगा। मेरे दादा-दादी ने अपना जीवन इस मुल्क की आज़ादीकी लड़ाई मे समर्पित कर दिया। हम आजभी आतंकवाद के शिकंजेमे जकडे हुए हैं। मुझे अपना जीवन इस शिकंजेसे मेरे देशको मुक्त करनेकी सहायतामे बिता देना है।
मुझे नही मालूम के मै इस मक़सद मे कितनी सफल रहुँगी, लेकिन शुरुआत तो करनीही है।

9 टिप्पणियाँ:

परमजीत बाली said...

शुभकामनाएं ।

shivraj gujar said...

bahut achha shama ji
aapke vicharon se main sahmat hoon. aapane ek bahut achha uddeshya chuna hai. aap kamyab hongi aisa mera vishvas hai. main bhi ek dharavahik bana raha hoon. achha laga ki aap making movie ke saath desh seva ka bhi jajba rakhati hain.
shivraj

Anil Pusadkar said...

zaroor kamyaab hongi,aapka maksad achha hai to khuda bhi aapki madad karega.badhai aapko achhi shuruwat ke liye

मुनीश ( munish ) said...

i wud luv to watch dat film . how can i? possible?

Anwar Qureshi said...

aap zarur kaamyab hongi .. emaandari se ki gayi shuruwat uhi zaya nahi hoti hai ...shubhkaamnaye ...

अनुराग said...

गुजरते वक़्त के साथ शायद ये बम्ब धमाके हमें ओर संवेदनहीन बना दे ...पर जिंदगी को चलते रहना है ओर इंसानों को इंसानी ज़ज्बे को जिंदा रखना है.....

vipinkizindagi said...

अच्छी पोस्ट,
और शुभकामनाए.......

GIRISH BILLORE MUKUL said...

मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं

Mrs. Asha Joglekar said...

मेरी भी बहुत सुभ कामनाएं आपको । आपकी मूवी कैसे देख पायेगे ?

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प्यार की राह दिखा दुनियाको..........

प्यार की राह दिखा दुनियाको...

ये लेख मैंने तब लिखा था,जब गुजरात मे हुए फसांदों से मेरा मन तड़प उठा था....


कयी महीनो से मैं और आपलोग भी, गुजरात मे घटी घटनायों का ब्योरा पढ़ रहे हैं । कोईभी तर्क संगत व्यक्ती जो घटा है या घट रहा है, उस से सहमत नही हो सकता। इस मे कोई दो राय नही। अपनी अपनी ओर से कई लोगों ने जागृती लानेकी की कोशिश की,लेख लिखे गए तथा t.v.आदि के ज़रिये जागरुकता लाने का प्रयास हुआ। हिंदुस्तान मे क़ौमी फ़साद कोई पहली बार नही हुआ।
भिवंडी,मालेगाओ जैसी जगहें भी इन मामलों मे नाज़ुक मानी जाती हैं। मेरे बचपन मे मैंने जमशेद्पूर के क़ौमी फसादों के बारेमे किसीसे आँखों देखा हाल सुना था। छ:छ:महीनों के बच्चोंको ,ऊपरी मंजिलों से , उनकी माँओं के सामने पटक दिया गया था,छोटे बच्चोंके सामने उनके माँ बाप को काट के जला दिया गया था।

इसी तरह स्थिती गुजरात मे हुई और हाल ही मे मेरी मुलाक़ात कुछ ऐसे लोगोंसे हुई जिन्होंने ये सबकुछ अपनी आँखोंसे देखा था,जो बच तो निकले, लेकिन इन सदमों के निशाँ ता उम्र नही भुला पाएँगे ! कैसा जुनून सवार हो जाता है इन्सानोपे जो हैवान भी कहलाने लायक नही रहते??क्यों होता है ऐसा??इनकी सद-असद विवेक बुद्धी कहॉ चली जाती है या होती ही नही??इनके मन मे कितना अँधियारा होता होगा!!क्या ऐसे लोगों को कभी भी पश्च्याताप होता होगा??क्या भविष्य मे अपनी मृत्यु शय्या पे पडे ये शाँती से मर पाएँगे?? सुना है मन के हज़ारो नयन होते हैं, ये लोग देश की न्याय व्यवस्था से बच भी निकालें तो क्या अपने मन से बच पायेंगे ???आख़िर धर्म क्या है??इसकी परिभाषा क्या है?ऐसे सैकड़ों,हज़ारों सवाल मेरे मन मे डूबते उभरते रहते हैं ,जो इसकी तह तक जाने के लिए मुझे मजबूर करते हैं । ऐसेही कुछ ख़याल आपसे बाँटना चाहती हूँ।

बचपन मे अपनी सहेलियोंके घर जाया करती थी। उनके घर के बडे बुज़ुर्गोंको देखा करती थी। जब कभी उनके बुज़ुर्ग उन्हें आशीष देते थे तो मैंने कभी किसीके मुँह से ये नही सुना कि तुम इंसान बनो ,इस देश के अच्छे नागरिक बनो !!
मैंने लोगों को कयी सारे तीज त्यौहार मनाते देखा,ख़ूब ज़ोर शोर से देखा,लेकिन किसी को निजी तौर पे अपने घर मे स्वतंत्रता दिवस या फिर गणतंत्र दिवस मनाते नही देखा। ये दो दिन ऐसे बन सकते थे जो हर हिन्दुस्तानी एकसाथ मना सकता था,मिठाई बाँट सकता था,एक दुसरे को बधाई दे सकता था!!मैंने किसी माँ को अपने बच्चों से कहते नही सुना,"इस देश को रखना मेरे बच्चों संभल के..!"एक अच्छा नागरिक बनना क्या होता है,इसकी शिक्षा कितने घरोंसे बच्चों को दी जाती है??इस मंदिर मे जाओ,उस दर्गा पे जाओ। यहाँ मन माँगी मुराद पूरी होगी। बेटा इंजीनियर या डाक्टर बन जाये इसलिये मन्नतें माँगती माँओं को देखा,बेटी का विवाह अच्छे घर मे हो जाये ऎसी दुआएँ करते देखा(जिसमे कोई बुराई नही)लेकिन संतान विशाल र्हिदयी इन्सान बन जाये ऎसी दुआ कितने माता पिता करते है???

श्रीमद् भगवत गीतामे श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं ,"हे भारत!(अर्जुन) जब,जब धर्म की ग्लानी होती है,तथा अधर्म का अभ्युत्थान होता है,तब,तब,धर्म की रक्षा करने के लिए तथा अधर्म का विनाश करने के लिए मैं जन्म लेता हूँ"। भगवन ने "हिंदु धर्मस्य ग्लानि "या "मुस्लिम धर्मस्य ग्लानी " ऐसा तो कहीं नही कहा!!इसी का मतलब है कि प्राचीन भारतीय भाषाओंमे "धर्म"शब्द का प्रयोग स्वभाव धर्म या निसर्ग के नियमोंको लेकर किया गया था, ना कि किसी जाती-प्रजाती को, जो मानव निर्मित है। इसका विवरण ऐसे कर सकते हैं , जैसे कि,अग्नी का "स्वभाव "धर्म है जलना और जलाना। निसर्ग के नियम सभी के लिए एक समान होते हैं। निसर्ग कहीं कोई भेद भाव नहीं करता।कडी धूप मे निकला व्यक्ती, चाहे वो कोयीभी हो,सूरज की तपिश से बच से पायेगा?क्या हिंदू को मलेरिया हो जाये तो उसकी दवाई कुछ और होगी और किसी मुस्लिम हो जाये तो उसकी कुछ और??
"मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,हिंदी हैं हम,वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा",इसकी शिक्षा घर घर मे क्यों नही दी जाती ?ना हमारे घरोंमे दी जाती है ना हमारी पाठशालाओं में। बडे अफ़सोस के साथ ये कहना पडेगा तथा मान ना पडेगा।

जब मेरे बच्चे स्कूल तथा कालेज जाते थे और उनके सह्पाठियोंकी माँओं से मेरा मिलना होता था, तो चर्चा का विषय केवल बच्चोंकी पढ़ाई ,ट्यूशन और विविध परीक्षायों मिले मे अंकों को लेकर होता था। ज़िंदा रहने के लिए रोजी रोटी कमाना ज़रूरी है, इस बात को लेकर किसे इनकार है??लेकिन बच्चों के दिलों दिमाग़ मे भाई चारा और मानवता भर देना उतनाही ज़रूरी है।
मैंने कयी हिन्दुस्तानियों के मुहँ से सुना,"काश! अँगरेज़ हमे छोड़ के नही गए होते!!"मतलब अव्वल तो हम अपने घर मे चोरों को घुसने दें,फिर उन्हें अपना घर लूटने दें,और कहें कि वे घर मे ही घुसे रहते तो कितना अच्छा होता!!अपने आप को इस क़दर हतबल कर लें कि, पराधीनता बेहतर लगे!!

चंद लोगोंके भड़काने से गर हम भड़क उठते हैं , एक दूसरे की जान लेनेपे अमादा हो जाते हैं,तो दोष हमारा भी है। कभी तो अपने अन्दर झाँके!!हम क्यों गुमराह होते चले जा रहे है??और तो और ,जो लोग हमे गुमराह करतें है,उन्हें ही हम अपने रहनुमा समझने लगते हैं !!कहाँ गए वो ढाई आखर प्रेम के??गुजरात की हालत देख कर क्यों कुछ लोगों को कहना पड़ा कि हमारी आँखें दुनिया के आगे शर्म से झुक गयी हैं??हमे हमारे हुन्दुस्तानी होने पे गर्व के बदले लानत महसूस हो रही है??क्या भारतकी प्राचीन सभ्यता केवल मंदिर -मस्जिद मे सिमटके रहती है??और दिलोंमे रहती है झुलसती हुई आग जो बार बार शोला बनके भड़क उठती है!!
"भाई को भाई काटेंगे,वायस श्रुगाल सुख लूटेंगे -"ये बात कवि दिनकर के "राष्मिरथी"इस महाकाव्यमे श्रीकृष्ण दुर्योधन को कहते हैं । यहाँ पड़ोसी ने पड़ोसियों को काटा और जिन्होंने सुख लूटा उनका यहाँ ज़िक्र कर के अपने कागज़ कलम गंदे नही करना चाहती।

जिनका आपसी विश्वास उठ गया है उसे लौटने मे कितनी सदियाँ लगेंगी ?हमारे देश के इतिहास मे और ऐसे कितने लानछनास्पद वाक़यात घटेंगे ,जिसके पहले कि हमारी आँखें खुलेंगी ??क्या दुर्योधन की तरह हमारी भी मती मारी गयी है??जिन्होंने ये कुकर्म किये उन्हें बहे हुए लहू की गन्ध तंग नही करेगी? उनकी आँखों के आगेसे वो विध्वंसक दृश्य कभी हट पाएँगे?
जिन माताओं के सामने उनके बच्चोंको तड़पता हुआ मरने के लिए छोड़ दिया गया,क्या उन माताओंकी हाय इन हैवानो की आत्मा को कभी शांती मिलने देगी?क्या असहाय जीवों की हत्या करने मे इन लोगों को मर्दानगी का एहसास हुआ होगा??

मैंने कयी तथाकथित बुद्धीजीवों को इन क़ौमी फसादों का ज़िम्मेदार उस महान आत्मा को,जिस का नाम गांधी था,ठहराते हुए सुना है। ऐसे बुद्धीजीवीयों ने अपनी ज़िन्दगीमे अपनी ज़बान हिलाने के अलावा शायद ही कुछ और काम किया होगा। वो क्या समझें उस महात्मा को जिसने अपनी कुर्बानियों के बदले मे ना कोई तख़्त माँगा ना कोई ताज। "अमृत दिया सभी को मगर खुद ज़हर पिया ", कवी प्रदीप ने लिखा है। जिस दिन उस महात्मा की चिता जली होगी सच,महाकाल रोया होगा। ऐसे शांती और अहिंसा के पुजारी पे ऐसा घिनौना इलज़ाम लगाना असंवेदनशीलता की हद है।हैरानी तो इस बात की भी होती है कि, इस गौतम और गांधी के देश मे लोग इस तरह हिंसा पे अमादा हो जाते हैं!!!
इस देश की तमाम माताओं से,भाई बहनों से मेरी हाथ जोडके विनती कि वे अपनी अपनी मान्यतायों के अलावा, बच्चों को जैसे जनम घुट्टी पिलाई जाती है,उस तरह संदेश दे,"प्यार की राह दिखा दुनिया को ,रोके जो नफरत की आँधी!,तुममे ही कोई होगा गौतम,तुममे ही कोई होगा गांधी!"

ये हम सभी की ज़िम्मेदारी है। दुनिया की निगाहें हम पे हैं। देखना है, हम इसे किस तरह निभाते हैं। कोई मोर्चा नही ले जाना है,ना ही कोई भाषण देना है। आँखें मूँद के वो नज़ारा सामने लाने की कोशिश कीजिये जो गुजरात ने देखा होगा,वरना ये आँधी,ये बगूले,हम तक पोहोंचते देर ना लगेगी।
समाप्त

1 टिप्पणियाँ:

अंकुर said...

शमा जी ,लेख पढ़कर खुशी मिली की आपने मेरे मन की बात कितने अच्छे शब्दों मैं बयां की पर न दुःख भी बहुत हुआ ,देश या देशवासियों की दुर्दशा पर नही ,हमारे देश के बुद्धिजीवियों पर ,जुलाई २००७ के लेख मैं आज तक किसी ने भी टिपण्णी नही की ,ऐसा नही की किसी ने पढ़ा न हो ,पढ़ा बहुत से लोगो ने होगा पर बात वही है की हमारे देश के लोगो ने अपने को ऐसे सांचेमैं दाल लिया है की ऐसी किसी भी जोश दिलाने बाली बात पर खून खौलना तो दूर, कोई फर्क भी नही परता और लोग लेख पढ़कर बस निकल लेते हैं,आख़िर क्यो कोई कमेन्ट करे समाज सुधारका जिम्मा उन्होंने तो उठाया नही ,



चलिए शमा जी इनको इनके हाल मैं रहने देते हैं और मैं आपसे कहना चाहुगा की आपके इस लेख को मैं अपने ब्लॉग मैं फिर से लिखना चाहता हूँ अगर आप इजाजत दे, मैं कुछ बदलाव करके इसे लिखना चाहुगा



,भाषा वही है जो मैं चाहता हूँ,बस आपका सहयोग हो जाएगा



दिवाली की हार्दिक शुभकामनाये



अन्कुर

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