Saturday, May 9, 2009

दिन एक माँ के लिए...१ ...

कई बार ऐसी यादें घिर आती हैं अतीतके गर्दिशमेसे उभरके...के बेसाख्ता बह निकलती हूँ...
येभी नही समझमे आता कि किस क्रममे लिखूँ..इस्तरह्से एक बाढ़ आती है....
शायद जो क़रीबका अतीत होता है,वो ज्यादा छलता है...
इसीपे एक मालिका शुरू करने जा रही हूँ..जहाँ एक मुक्तीधारा बेहेने दूँगी..अनिर्बंधित...लेकिन, साफ़ इतनी के जिसकी गहरायीका एहसास ना हो...पूरी पारदर्शक....लेकिन सिर्फ़ अपनेआपको कुरेदूँगी.....किसी औरको नही...के ज़िंदगी ने समझाया, वो मेरा अधिकार नही...

सुनती आयी हूँ, 'mother's day' के बारेमे, पिछ्ले कुछ सालोंसे....
मेरी अपनी बेटीके जनम दिवस के पासही होता है..बल्कि,उसी दिन....
जिस दिन वो जन्मी, एक माँ जन्मी....इसलिए हम दोनोका जन्म दिन तो एकही दिन होना चाहिए...
शायद मेरी माँ और मेरा जनम दिन भी एकही दिन होना चाहिए..कि मैही उनकी पहली औलाद थी...
उस दिन वो, मेरी लाडली, मुझे कितना याद करती है, करतीभी है या नही, मुझे नही मालूम...
हाँ, मुझे ज़रूर याद आती है...दिल करता है उसे पूछूँ ," क्या मैभी तुझे याद आती हूँ, मेरी बिटिया? या तेरी ज़िंदगी की तेज़ रफ़्तार तुझे इतनी मोहलत ही नही देती....ना देती हो तो, शिकायत भी नही..
तेरा जन्मदिवस तो मै भूलही नही सकती...कि एक माँ का उस दिन जन्म हुआ था..मातृत्व क्या होता है,इसका एहसास हुआ था...
बोहोत कुछ बताने कहनेका मन है तुझे...लेकिन डर भी जाती हूँ...अब तू बड़ी हो गयी है...शायद मुझसे अधिक सयानी....
बचपनको याद करती हूँ तेरे..तो अनायास आँखें भरही आती हैं...बोहोत तेज़ीसे फिसल गया मेरे हाथोंसे..मेरी बाहोंसे...अपनी बाहों में तो तुझे ठीकसे भरभी नही पाई..ये ज़िंदगी की ज़ंजीरे , जो मेरे हाथ बाँधे हुई थीं..लेकिन मनकी अतृप्त इच्छाएँ, कभी तो अपने खूने जिगरसे, अपने जिगरके तुकडके नाम ज़रूर लिखूँगी....
लिखूँगी, के, तेरे साथ क्या, क्या खेल रचाना चाहती थी...तेरे साथ खेलके तुझे खिलखिलाना चाहती थी..और चुपचाप अपने आँचल से अपने आँसू पोंछ लेना चाहती थी..

गुड्डे गुड्डी के ब्याह रचाना चाहती थी...झूट मूटकी शादी...झूट मूट की बिदाई...झूट मूट की दावतें...झूट मूट के खाने, वो निवाले,जो तू मुझे खिलाती , और पूछती," माँ, अच्छा लगा?"
मै गर कहती,"हाँ, बोहोत अच्छा लगा,"तो तू झट कहती,
"तो लो मुँह खोलो, और खाओ",...फिर एक झूठ मूट का कौर...
हूँ...ये खेल तो खेलेही नही गए...और अब क्या खेलेंगे?

क्रमश:

1 comments:

ललितमोहन त्रिवेदी May 10, 2009 at 7:50 AM  

शमा जी ,मेरे गीत पर आपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !आपके आलेख ध्यान से पढ़ रहा हूँ और चमत्कृत होता जा रहा हूँ ! माँ ,बेटी ,दादा के परम आत्मीय संस्मरणों से लेकर police reforms जैसे जटिल विषय पर कलम चलाना इतना आसान तो नहीं होता परन्तु आपने इसका निर्वाह बहुत ही कुशलता से किया है और आप निश्चय ही इसके लिए प्रशंसा की पात्र हैं ! मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकारें !

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