Tuesday, May 12, 2009

दिन एक माँ के लिए.. ३

बिटिया आज तेरा जनमदिन...आज एक माँ का भी जनमदिन...के तूने मुझे माँ बनाया...

बनारसकी चिलचिलाती दोपहरी....सिज़ेरिअन सेक्शन से तेरा जनम होगा ये तय कर लिया गया था..मेरी मानसिक हालत और तेरे पैर आगे देख, यही वैद्यक शास्त्र की दृष्टीसे सही था..
मेरे होमिओपथ ने काफी कोशिश की ये सर्जरी टल जाय...दवाई देके तेरा सर घुमानेकी ...ये तो खैर पता तो नही था कि, लड़का है या लडकी....लेकिन मुझे कोई फ़र्क़ नही पड़नेवाला था...हाँ, मेरे ससुरालवालों को पड़नेवाला था...और पडाभी.....तेरे आगमन की ख़बर तेरे पिताने एक बडेही अपराध बोधसे ,तेरी दादीको सुनाई......और मेरा मन छलनी,छलनी हो गया...किसीने उन्हें बता रखा था, की, मुझे २ लड़केही होंगे...

मुझे याद, OT में तेरी "तैय्या"को अन्दर नही आने दिया तो मैंने कितना उधम मचा दिया था...एक डॉक्टर और मेरी शुभ चिन्तक की हैसियत से मेरा सिर्फ़ मेरी उस जेठानीपे ही विश्वास रहा था...मुझे, शायद, बहलाए रखनेके लिए, भरोसा दिया गया था,कि, भाभी को OT में आने दिया जायेगा...
पता चला कि, मेरी डॉक्टर को तो ऐतराज़ नही था..लेकिन अनेस्थीशिया देनेवाले डॉक्टर की मर्जी नही थी...मुझे ज़बरदस्ती पकड़ रखा गया और बेहोशीकी दवा सुंघाई गयी...पता नही मैंने कितनी देर साँस रोके राखी थी...
जब होश आया तो मै OT के बाहर थी...

वो ward,जहाँ मुझे रखा जानेवाला था, दूसरी इमारतमे था...तुझे तो बिना किसी आवरण केही मेरी माँ के हाथ पकड़ा दिया गया था...उन्होंने एक आयासे उसका एप्रन माँगा...!
दोपेहेरकी, बनारसकी गरमी...१ बजके २० मिनट पे तेरा जन्म...२ बजेके करीब, मुझे दूसरी इमारत में ले जाना था..अजीब आवाज़ें मेरे कानोंमे आ रही थीं.."इस बिल्डिंग से उस बिल्डिंग में हम स्ट्रेचर नही देते...आपको वहाँ से मँगवाना होगा.."
भाभी बरस पड़ीं," अरे तो क्या इस औरत को चलाके भेजोगे? वो भी नही दे रहे स्ट्रेचर...! और सिज़ेरिअन का बच्चा तो इतना नाज़ुक समझा जाता है...उसकी तो किसीको चिंताही नही..."

खैर..इतना याद है,कि, मुझे दो बार एक स्ट्रेचर परसे दूसरेपे डाला गया..मतलब उस बिल्डिंग से OT की बिल्डिंग के बीछ, एक स्ट्रेचर आया ..वहाँसे मुझे उसपे शिफ्ट किया गया...ये सब बादमे पता चला...

और दिनों डॉक्टरों की स्ट्राईक चल रही थी...उनका कहना था,कि, गर प्राइवेट ward के मरीज़ों से अधिक पैसे लिए जाते हैं, तो डॉक्टर्स कोभी उसी मुताबिक तनख्वाह या मेहताना मिलना चाहिए...
दूसरी ओर १२ से १५ घंटे बिजलीका गुल होना साधारण बात थी...और मुझे जिस पलंग पे रखा गया उसको सटके एक टीबी की मरीज़ थी..ये तो भाभीकी आदत थी ,कि, वो अन्य मरीज़ोंके बारेमे अपनी जानकारी रखतीं..गर वो ना होती तो किसकी सुनवाई नही होती..!

इसके पूर्व मुझे जो जगह दी गयी,थी वो एक छोटा -सा अलग ward था...भाभी ने पूछताछ की," यहाँ पहले कौन था?"
एक नर्स ने बताया," यहाँ एक सेप्टिक का मरीज़ था...कुछ घंटों पूर्व उसकी मौत हो ......"
भाभी तकरीबन चींख पडी," अरे ये क्या बकवासबाज़ी लगा रखी है..! इस मरीज़ कोभी मार देना है क्या? इससे तो जनरल ward ठीक है..हमें क्या पता था,कि, यहाँ इतनी अंधेर नगरी है....! इस अस्पताल के management की तो मत मारी गयी है..सिज़ेरियन का बच्चा तो वैसेही इतना नाज़ुक होता है..और बच्चों के बनिस्बत उसमे प्रतिकारशक्ती कम होती है...और यहाँ तो सीधे सेप्टिक ward में उसे रखा जा रहा है...इसे disinfect भी किया था के नही.....? या ऐसेही सीधे अगले मरीज़ को घुसा दिया....?"
नर्सने कुछ कहनेसे मनाही कर दिया..ज़ाहिर था...कमरेको sterilize नही किया था...!
ये अंधेर नगरी ही थी....!!!

आज मुड के देखती हूँ, तो लगता है, गर भाभी,( जिन्हें तू बादमे, तैय्या कहने लगी, क्योंकि, ताईजी बोलना नही आता था), और मेरी माँ नही होती, मेरे साथ, तो शायद तू मेरे हाथ नही लगती...
माँ तो अपना घरबार छोड़ मेरे पास महीनों आके रुकही गयीं थीं...पहले ३ गर्भपातका इतिहास था...और भाभीभी अपने ८/९ सालके बच्चे को छोड़ लगातार मेरे पास दौडे चली आतीं...वो दिल्लीमे कार्यरत थीं...और उनकी पेड़ छुट्टी ख़त्म हो गयी तो उन्होंने बिना तनख्वाह छुट्टी ले ली थी....नही पता कि हमारे किन जन्मोंके रिश्ते थे...जो वो निभा रही थीं...

देखा जाय तो तेरी तैय्या, मेरी सासकी सौतेली बेहेनकी बहु थीं...लेकिन हमारे परिवारमे मै उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी..उन्होंने वैसेतो हमारे घरके हर व्यक्तीके लिए बड़े कष्ट उठाये,लेकिन, उनपे इल्ज़ाम ज़रूर धरा गया कि, मै अधिक लाडली हूँ...प्यार नाप तौलके तो किया नही जाता...अपने फ़र्ज़ तो वो हमेशा बेक़ायदी से निभाती रहीं...
इसी बातपरसे एक बात याद गयी तो वो बताते चलती हूँ....

हम तब दिल्लीमेही थे...मेरे ब्याह को शायद एकही साल हुआ था...हम एशिया हाउस जहाँ भाभी रहती थीं, वो जगह छोड़ बंगाली मार्केट के इलाकेके टोडरमल squaire में शिफ्ट हो गए...यहाँ दो कमरे अधिक थे....
एक दिन तेरे पिताकी रातमे अचानक से तबियत बिगड़ी....भाभीका फोन लग नही रहा था...हम सभी परेशान थे , कि de- hydration ना हो जाय....इन्हें क़ै और मतली हुई जा रही थी..साथ,साथ दस्तभी.....कार तो मैभी चला सकती...के जाके भाभीको ले आऊँ...पर उस दौरान इन्हें कौन देखता? और अव्वल तो मेरे ससुराल का मेरी driving पे भरोसा नही था....!

मै ट्राफिक के नियमों नुसार गाडी चलाती...और दिल्लीमे ऐसा कोई चलन नही था...!
सभीको लगता गर,मै रेड सिग्नल पे रुक गयी, इशारा देकेभी, कोई ना कोई पीछेसे आके धड़क लेगा...गाली गलौच अलग होगी सो होगी...!मेरा क्या नुकसान होगा, इसकी परवाह तो नही थी, लेकिन कार को कुछ होता है,तो नुकसान उठाना पडेगा...ये डर!!

इसमे फैसला हुआ, दिनेश भैया को प्रचारण कर, हालत बताके,उन्हें अपनी byke पे एशिया हाउस भेजा जाय और,उनके पीछे बैठ भाभी आ जायें !
अब भाभीने इनके दोस्त दिनेश को, तो देखाही नही था!
दिनेश अपना परिचय जताते हुए, भाभीके घर पोहोंचा.....भाभीका फो बंद होनेके कारण हम तो इत्तेला देही नही सके थे....मैंने भाभीको एक छोटी -सी चिट्ठी लिख दी...बस वही एक प्रमाण....रातके २ बज चुके थे...दिल्ली शेहेरकी ख्याती तो सब जानतेही थे...मुम्बई में एक अकेली लडकी/औरत, बेझिझक टैक्सी पकड़, अपनी निर्धारित जगह जा सकती थी...लेकिन यहाँ?

भाभी हिम्मतवाली...उनसे बढ़के उनके पती काभी उनपे विश्वास...!
चली आयीं...दिनेशके पीछे सवार हो..लेकिन उतरी तो दखा, एक हाथमे चप्पल पकड़ रखी थी...!
कहने लगीँ," हमने सोच लिया था,कि, गर ये ज़राभी रास्ता बदलता तो मै उसे चप्पल जूती जो हाथ लग जाता, जमके पिटाई तो करही देती.....चलो...... भाई दिनेश , अब तू तो हमें माफ़ करही दे....मै तो हूँही ऐसी...!"

दिनेशने अपनी खैर मनायी......!उसकी ज़रा-सी गलती, और सिरपे जूती...!लेकिन भाभीकी हिम्मतका कायल हो गया........!प्रेमा भाभीका नाम सुनतेही,वो कहता है," हाँ...चप्पलवाली भाभी.....! उन्हें कैसे भूल सकता हूँ??सिर्फ़ सिरपे क्या, क्या पड़ता, वो बात छोडो, भाभी तो उन्हें पटकी खिला देतीं और दिनेश अपना ठीकसे बचाव भी नही कर पाता, ये जानते हुए,कि, भाभी किसकी हैं?

पतीको तो वो फिर एक रातके लिए भरती करवाकेही आयीं...
आज मेरे मनमे सवाल उठता है...भाभीकी हिम्मतकी सभीने तारीफ़ की...आजतक करते हैं....गर ये बात मुझे करनी पड़ती तो क्या मुझे इसतरह से जाने दिया होता? नही...ये दोहरी प्रतिक्रया है...मै चाहे कितनीही भले कामके लिए हल्का-सा खतरा मोल लूँ..तो उफ़! इतनी जवाबदेही..!

तो ऐसी तैय्या तेरे पास मौजूद थीं....मेरे पास मौजूद थीं ... जैसे फ़रिश्ता कोई हमारी रक्षा कर रहा हो....
काफी विषयांतर हो गया..लेकिन असलमे ये विषयांतर नही..ये व्यक्ति चित्रण है...

तो लौटी हूँ, उन्हीँ लम्होंमे..समय देखा जाए तो घड़ी पास आ रही है...इस वक्त...तेरे जन्मको बस १२ घंटे होनेवाले हैं...
माँ ने अपने हाथोंसे तुझे नेहलाया...
भाभीने जब मुझे, ले जाया रहा था, तेरे जनमके बाद तो पूछा," जानना चाहती हो है लड़का है या लडकी?
मैंने "नामे" सर हिला दिया.....उनकी बातें,जो मेरे कानपे आ टकरा जो गयीं थीं....
"तुम उसका चेहरा देखना चाहोगी?"
" अभी नही..." मैंने जवाब दिया...
मुझे मन था, जब इसे अपने आँचल में लूँगी, तभी जी भरके देख लूँगी...तब दुआओं के अलावा मनसे क्या निकलता?
एकेक बारीकी याद है मुझे.....कुछ भी नही भूली...कुछभी नही....
कैसे गुज़रे वो चंद दिन? मेरा घोर डिप्रेशन कहाँ गया? अब अगली बार.....
मेरे बच्चे, तुझे इतना कुछ कह देना है...किस छोरको पकडूँ, किस छोरको छोड़ दूँ?कैसे कहूँ,कि तूही मेरी दुनियाँ बन गयी...क्योंकि....तुझे इस बेदर्द ज़मानेसे मुझेही बचाना था/ होगा...हर गुज़रते लम्हे के साथ, इस एहसास की संगीनता नज़र आ रही थी....
क्रमशः

4 comments:

hitaspad May 13, 2009 at 7:59 PM  

bahut hee hraysparshee manobhav . bina jiye samajhna isamjhana mushkil . matridivas par har matritva ko salam . aapke naam .

ललितमोहन त्रिवेदी May 15, 2009 at 2:24 AM  

मेरे बच्चे, तुझे इतना कुछ कह देना है...किस छोरको पकडूँ, किस छोरको छोड़ दूँ?कैसे कहूँ,कि तूही मेरी दुनियाँ बन गयी...क्योंकि....तुझे इस बेदर्द ज़मानेसे मुझेही बचाना था/ होगा...
कितना सहज और कितना भावपूर्ण लिखती हैं आप शमा जी कि मन बहता ही चला जाता है प्रवाह में !बहुत खूब ! मेरे ब्लॉग पर कि गयी टिप्पणी में अर्थ के सम्बन्ध आपके विचारों का मैं सम्मान करता हूँ और सहमत भी हूँ !आपकी कहानियां पढ़ रहा हूँ आजकल !

vijay kumar sappatti May 15, 2009 at 2:40 AM  

shama ji , maa aur beti ke rishte ko aapne bahut hi achhe shabdo me darshaya hai .. man bheeg gaya aapke likhe shbdo se...

नीरज गोस्वामी May 15, 2009 at 3:12 AM  

शमा जी आप इतना डूब के लिखती हैं की पाठक आपके साथ भावनाओं के सागर में गोते खाने लगता है...ये लेखन ही आपकी शक्ति है...जितना लिखेंगी उतनी ही ख़ुशी हासिल करेंगी...सुख के क्षणों को याद कर और दुःख के क्षणों को तटस्थ भाव से लिखें तो ही आनंद आएगा...क्यूँ की दुःख के क्षण लिखते समय अगर उसमें बह गयीं तो लेखन के साथ अन्याय होगा...
कभी ऐसे भी क्षण जरूर आये होंगे जब जीवन सार्थक लगने लगा होगा...उन क्षणों से भी तो पर्दा उठाईये कभी...
शुभकामनाओं सहित.
नीरज

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