रोई आँखें मगर....१
रोई आँखें मगर.......
मई महीनेकी गरमी भरी दोपहर थी.... घर से कही बाहर निकलने का तो सवालही नही उठता था।....सोचा कुछ दराजें साफ कर लू। कुछ कागजात ठीकसे फाइलोमे रखे जाएँ तो मिलनेमे सुविधा होगी....
मैं फर्शपे बैठ गई और अपने टेबल की सबसे निचली दराज़ खोली। एक फाइलपे लेबल था,"ख़त"। उसे खोलके देखने लग गई और बस यादोंकी नदीमे हिचकोले खाने लगी......वो दिन १५ मई का था .......दादाजीका जन्म दिन....!!!
पहलाही ख़त था मेरे दादाजीका...... बरसों पहले लिखा हुआ!!!पीलासा....लगा,छूनेसे टूट ना जाय!! बिना तारीख देखे,पहलीही पंक्तीसे समझ आया कि , ये मेरी शादीके तुरंत बाद उन्होंने अपनी लाडली पोतिको लिखा था!! कितने प्यारसे कई हिदायतें दी थी!!
"खाना बनते समय हमेशा सूती साड़ी पहना करो...."!"बेटी, कुछ ना कुछ व्यायाम ज़रूर नियमसे करना....सेहेतके लिए बेहद ज़रूरी है....."!
मैंने इन हिदायतोको बरसों टाल दिया था........ पढ़ते,पढ़ते मेरी आँखें नम होती जा रही थी.....औरभी उनके तथा दादीके लिखे ख़त हाथ लगे...बुढापे के कारन काँपते हाथोँ से लिखे हुए..... जिनमे प्यार छल-छला रहा था!!
ये कैसी धरोहर अचानक मेरे हाथ लग गई,जिसे मैं ना जाने कब भुला बैठी थी!!ज़हन मे सिर्फ़ दो शब्द समा गए ..."मेरा बाबुल"..."मेरा बचपन"!!
बाबुल.....इस एक लफ़्ज़्मे क्या कुछ नही छुपा? विश्वास,अपनत्व,बचपना,और बचपन,किशोरावस्था और यौवन के सपने,अम्मा-बाबाका प्यार, दादा-दादीका दुलार,भाई-बेहेनके खट्टे मीठे झगडे,सहेलियों के साथ बिताये निश्चिंत दिन..... खेले हुए खेल, सावनके झूले, रची हुई मेहँदी, खट्टी इमली और आम....... सायकल सीखते समय गिरना, रोना, और सँभालना,......बीमारीमे अम्मा या दादीको अपने पास से हिलने ना देना...... उनसे कई बार सुनी कहानियाँ बार-बार सुनना, लकडी के चूल्हेपे बना खाना और सिकी रोटियाँ....... लालटेन के उजालेमे की गई पढाई..... क्योंकि मेरा नैहर तो गाँव मे था...बल्कि गाँवके बाहर बने एक कवेलू वाले घरमे .....जहाँ मेरे कॉलेज जानेके बाद किसी समय बिजली की सुविधा आई थी...
सुबह रेहेट्की आवाज़से आँखें खुलती थी। रातमे पेडोंपे जुगनू चमकते थे और कमरोंमेभी घुस आते थे जिसकी वजहसे एक मद्धिम-सी रौशनी छाई रहती।
अपूर्ण
मैं फर्शपे बैठ गई और अपने टेबल की सबसे निचली दराज़ खोली। एक फाइलपे लेबल था,"ख़त"। उसे खोलके देखने लग गई और बस यादोंकी नदीमे हिचकोले खाने लगी......वो दिन १५ मई का था .......दादाजीका जन्म दिन....!!!
पहलाही ख़त था मेरे दादाजीका...... बरसों पहले लिखा हुआ!!!पीलासा....लगा,छूनेसे टूट ना जाय!! बिना तारीख देखे,पहलीही पंक्तीसे समझ आया कि , ये मेरी शादीके तुरंत बाद उन्होंने अपनी लाडली पोतिको लिखा था!! कितने प्यारसे कई हिदायतें दी थी!!
"खाना बनते समय हमेशा सूती साड़ी पहना करो...."!"बेटी, कुछ ना कुछ व्यायाम ज़रूर नियमसे करना....सेहेतके लिए बेहद ज़रूरी है....."!
मैंने इन हिदायतोको बरसों टाल दिया था........ पढ़ते,पढ़ते मेरी आँखें नम होती जा रही थी.....औरभी उनके तथा दादीके लिखे ख़त हाथ लगे...बुढापे के कारन काँपते हाथोँ से लिखे हुए..... जिनमे प्यार छल-छला रहा था!!
ये कैसी धरोहर अचानक मेरे हाथ लग गई,जिसे मैं ना जाने कब भुला बैठी थी!!ज़हन मे सिर्फ़ दो शब्द समा गए ..."मेरा बाबुल"..."मेरा बचपन"!!
बाबुल.....इस एक लफ़्ज़्मे क्या कुछ नही छुपा? विश्वास,अपनत्व,बचपना,और बचपन,किशोरावस्था और यौवन के सपने,अम्मा-बाबाका प्यार, दादा-दादीका दुलार,भाई-बेहेनके खट्टे मीठे झगडे,सहेलियों के साथ बिताये निश्चिंत दिन..... खेले हुए खेल, सावनके झूले, रची हुई मेहँदी, खट्टी इमली और आम....... सायकल सीखते समय गिरना, रोना, और सँभालना,......बीमारीमे अम्मा या दादीको अपने पास से हिलने ना देना...... उनसे कई बार सुनी कहानियाँ बार-बार सुनना, लकडी के चूल्हेपे बना खाना और सिकी रोटियाँ....... लालटेन के उजालेमे की गई पढाई..... क्योंकि मेरा नैहर तो गाँव मे था...बल्कि गाँवके बाहर बने एक कवेलू वाले घरमे .....जहाँ मेरे कॉलेज जानेके बाद किसी समय बिजली की सुविधा आई थी...
सुबह रेहेट्की आवाज़से आँखें खुलती थी। रातमे पेडोंपे जुगनू चमकते थे और कमरोंमेभी घुस आते थे जिसकी वजहसे एक मद्धिम-सी रौशनी छाई रहती।
अपूर्ण
कई बार पुरानी यादों में खो जाना अच्छा लगता है.
आप खु़शकि़स्मत हैं कि आपके पास एक ऐसा ख़त है जिसमें प्यार और वात्सल्य छलक रहा है, संभालकर रखिए इसे क्योंकि आने वाली जैनरेशन्स के पास ऐसे ख़त कहां होंगे....।
यह कहानी है कि सत्य कथा?