Saturday, May 30, 2009

माँ, प्यारी माँ...!३

"अम्मा, आज बेहद थक गयी हूँ...फिरभी रायभान के बारेमे लिखनेका मोह टाल नही पा रही हूँ...
हाँ, वही क़िस्सा बयाँ करनेके खातिर आज लिखना शुरू किया....

पता नही क्यों,रायभान को बस्ती परके सारे बच्चे, क्यों हिक़ारत से देखते थे...उसके साथ बुरी तरहसे पेश आते थे...जैसे कि,वो बतख की कहानी...उन बतखों मे एक हँस था..जिसे सब कुरूप कहते थे....रायभान की माँ, हमारे घरमे काम करती थी....

"सब बच्चे हमारी घरकी सीढियों पे बैठ, कुछ खेल रहे थे...मै बगीचे से आयी और सीढीयाँ लाघते हुए, रायभानको एक लात मार दी...बेचारेने," अरे, हटता हूँ, हटता हूँ," कहा और हट गया...
अम्मा, आप सब देख रहीँ थीं...आपने अन्य बच्चों को एक तरफ़ बिठा दिया ...मुझे और रायभानको अपने सामने बुलाया...
"मुझसे बोलीं," इसके सामने कान पकडके १० बार उठक बैठक करो, और हर बार माफी माँगो...कहो,कि, ऐसी हरकत फिरसे कभी नही करोगी..!"
"बेचारा रायभान बडाही सकुचाया-सा एक कोनेमे खड़ा हो गया...
"आपके आगे मना करनेका तो सवालही नही था..जैसा आपने कहा वैसाही मैंने किया॥
उसके बाद आपने सब बच्चों को अपने,अपने घर भेज दिया...
मुझे अपने पास,प्यारसे लेके बैठीं और कहा," देखो बेटा, खुदाके आगे सब बच्चे एक जैसे होते हैं...और तुम्हें उसे लात मारके ख़ुशी मिली? तुमने हरकोई उसके साथ ऐसीही चाल चलता है ये देखा और वैसाही किया...हैना? '
"अम्मा, ये शत प्रतिशत सच था...मै खामोश बैठी रही...मेरी उम्र थी कुछ ३ सालकी...लेकिन मैंने ग़लत बात की है, ये मै खूब समझ गयी...

"उस रात मेरे गलेसे खाना उतरा नही..दादा पूछते रहे,कि, मै क्यों खाना नही खा रही...
आपने कहा," कोई बात नही गर एक रात नही खायेगी तो...उसने शामको दूध तो लेही लिया है...फलभी खाया है...नही खा पा रही,तो उसे सो जाने देते हैं।'

"दूसरे दिन सुबह हुई,तो मैंने अपनी माँ और पिताको घरसे नदारत पाया....दादी को पुकारने लगी...वो आ गयीं....
मैंने उनसे पूछा," अम्मा और बाबा कहाँ गए हैं? और वनुमासी,(रायभान की माँ,) क्यों नही आयी? आप क्यों नाश्ता बना रहीं हैं?"

दादीअम्मा ने कहा," तुम्हारे अम्मा -बाबा किसी वजहसे अस्पताल गए हैं...!"

बाबा तो कुछ देर बाद लौट आए...आप नही लौटी....
शाम हुई तो मैंने ज़िद की," दादी अम्मा मुझे बस्ती परके बच्चों के साथ खेलना है...उन्हें बुलाओ ना...और रायभान से मुझे,'डम डम डिगा,डिगा ये गाना भी सुनना है..."

दादी अम्माने मुझे समझाते हुए कहा, " आज नही...अभी कल देखेंगे....! चलो आज मैही तुम्हें कहानी भी सुना दूँगी, और खाना भी खिला दूँगी.."

"अम्मा आप देर रात किसी वक़्त आयीं ...मुझे ठीकसे पता नही चला, लेकिन आपको मेरी बग़ल मे पाके बड़ा सुरक्षित लगा..

"सुबह मेरी आँखें खुली, तो फिर आप मेरे पास नही थीं ...मुझे बस्ती परसे रोने धोनेकी आवाजें आ रहीं थीं...मै कुछ समझ नही सकी...जानती थी,कि, बस्तीपरके कई मर्द अपनी बीबिओं को मारते हैं..ऐसेमे वो रोती,रोती माँ या दादी के पास आती थीं..अब जब माँ ख़ुद बस्तीपे मौजूद है,ये मुझे बताया गया, तो मुझे बेहद हैरानी हुई,...माँ के होते हुए भी क्या उन औरतोंको मारा जा रहा है?

मैंने दादी अम्मासे कहा," मुझे बस्तीपे जाना है...मुझे जाने दो ना.....!"

"दादीअम्मा ने मुझे अपनी गोदीमे लेके कहा," अभी नही...शामको देखेंगे......"
"लेकिन आप कलसे मुझे रोक रहीं हैं..मुझे वो गाना सुनना है रायभान से...उसे तो बुला लो ना..!"मैंने अपनी ज़िद कायम रखी......
"अंतमे दादी अम्मा ने शायद सोचा कि, मुझे चंद बातें औरोसे पता चलें, उस बनिस्बत, वो खुद्ही बता दें तो बेहतर होगा......
"वो कहने लगीं,तो मैंने गौरसे उनके चेहरेकी और देखा...उनकी आँखों मे पानी था..होंठ काँप रहे थे,और उन्हों ने कहना शुरू किया," बच्चे रायभान अब फिरसे यहाँ कभी नही आयेगा.......!"
"लेकिन क्यों? मैंने उसे लात मारी थी इसलिए? मैंने माफी तो माँगी थी..दादी अम्मा आप उससे कहो ना,कि, मै फिरसे ऐसा नही करूँगी.." मुझे अब रुलाई-सी आने लगी थी...

"दादी अम्माके आँखों से अब पानी बहने लगा था...वो बोलीं," रायभान अब भगवान् जी के पास चला गया है! वो दोबारा हमें कभी नही दिखेगा....!"
मेरा मन एकदमसे धक्-सा रह गया..मै इतना जानती थी,कि, एकबार जब कोई "भगवान्" या "खुदाके" पास जाता है तो फिर कभी नही लौटता...! मुझे यक़ीन हो गया कि,वो मुझीसे रूठके चला गया....मेरे बाल मनपे जो उस समय गुज़री, उसका बयान करना कठिन है.....

"बादमे पता चलता रहा...वनुबाई ने चुल्हेपे बड़े-से पतीलेमे, नहानेके लिए पानी गरम करने चढाया था...रायभान और उसकी छोटी बेहेन छबी, वहीँ पे शायद कुछ उधम मचा रहे थे...वो खौलता पानी, चुल्हेपरसे उलट गया और दोनों बच्चों पे जा गिरा...छबू तो बच गयी...रायभान ईश्वर को प्यारा हो गया....

"मुझे याद है, मै, बोहोद दिनों तक सदमेमे चली गयी थी..खानेके लिए जैसे मुझे बिठाया जाता था, मुझे उबकाई आ जाती थी..मुझे अन्य एक बच्चे ने बताया था,कि, रायभान को भूक लगी थी, इसलिए वो अपनी माँ के पास पोहोंचा था..रोटी माँगते हुए...मुझे अब तो याद नही,कि, मै कितने दिन खाना नही खा पायी....

"अम्मा, अगर आप उस शाम मुझसे माफी ना मँगवाती,तो ताउम्र मै पश्च्यातापकी अग्नीमे जलती रहती...कभी खुदको माफ़ करही नही पाती...आजभी वो सारी बातें मेरे मनमे ऐसे अंकित हैं, जैसे कल परसों घटी हों....

सोचती हूँ, मैंने ऐसी हरकत कीही कैसे? क्या सवार था मुझपे? सिर्फ़ किसी अन्य की देखा देखी कर दी? लेकिन,जब कभी मुझे ये बात याद आती है तो शर्मसार हो जाती हूँ...जब कभी, डम डम डिगा, डिगा ये गीत बजता है,तो रायभान का भोला-सा चेरा सामने आ जाता है..."
क्रमश:

वर्तनी के लिए माफी चाहती हूँ..कोशिश तो की है, फिरभी गर कुछ typos रह गए हों,तो क्षमाप्रार्थी हूँ!

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Tuesday, May 26, 2009

माँ, प्यारी माँ ! २

आजसे अपनी माँ के साथ, सीधा संभाषण ही करूँगी...जैसे अपनी बेटीसे करती रही हूँ...मूक...वो सुने ना सुने...चाहती हूँ, कि, ये आलेख मेरी माँ ज़रूर पढ़ें...ईश्वर, ये मौक़ा मुझे ज़रूर देना...ये सँवाद अनसुना ना रह जाय...

"अम्मा...आपकी आजकल, पहले शायद कभी नही आती थी, इतनी याद आने लगी है...
आपकी नवासी का एक छोटा-सा किस्सा सुनाती हूँ आपको..शायद पहले ज़रूर सुनाया होगा, पर फिर एकबार...

कुछ ४ साल की आयु थी उसकी...किसी बातपे मुझसे नाराज़ हुई, और अपना पलंग ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगी...
मैंने कहा," बेटा, जानती हो ये कितना पुराना पलंग है? जब तुम्हारे नाना छोटे थे, तो वो इसमे सोते थे....उसके बाद जब मै छोटी थी, तो मुझे इसमे सुलाया जाता था...बादमे तुम्हारी,मासी, मामा, सब इसीमे सोते रहे...आज वो तुम्हें मिला है..."
जैसे, जैसे मै उसे बता रही थी, वो स्तब्ध होती जा रही थी...आँखें फटी जा रही थीं....! पलंग हिलाना भी बंद हो गया...!
मुझसे बोली," माँ! जब तुम छोटी थीं, तो हम दोनों की देखभाल कौन करता था?"
मै जोरसे हँस पडी,बोली," जब मै छोटी थी,तो तुम दोनों इस दुनियामे नही थे!"
उसकी आँखें औरभी गोल, गोल हो गयीं...बोली," तो फिर हम कहाँ थे?"
"तुम भगवानजी के पास थे,"मेरा उत्तर ....
बेटी: "तो फिर हमें वहाँसे यहाँ कौन लाया?"
मै: " तुम दोनों हमें बोहोत पसंद आ गए...इसलिए तुम्हें हम भगवानजी से माँग के इस दुनियामे ले आए.."

कैसा निष्पाप, भोला बचपन था उसका....
अम्मा ! जब मै छोटी थी, तो मुझेभी ऐसाही लगता था...अपनी माँ हमेशा बड़ी ही रही होगी...याद है आपको मै आपसे कैसे,कैसे सवाल किया करती थी?

मेरी कँघी कर रहीँ थीं आप..मुझे इतना याद है, कि, मेरी छोटी बेहेन का जन्म तब नही हुआ था...मैंने पता नही क्या बात कही, और आप जोरसे हँस पड़ीं..
मैंने आपसे, बड़े अचरज से पूछा," अम्मा, जब आपकी माँ आपके पास नही हैं, तो आप हँस कैसे सकती हैं? आपको रोना नही आता?"
आप फिर एकबार हँस पड़ीं, बोलीं:"एक दिन तूभी मुझसे दूर होगी और फिरभी तू हँस पायेगी...खुदा करे, ऐसा हो....!"

मै खामोश हो गयी...ऐसाभी कभी हो सकता है? माँ साथ न हो? घरमे रिकॉर्ड प्लेएर पे एक गीत हमेशा सुना करती थी मै...शमशाद बेगम का गाया हुआ...."छोड़ बाबुल का घर, मोहे पीके नगर, आज जाना पडा,आज जाना पडा, याद करके ये घर, रोयीं आँखें मगर ,मुस्कुराना पडा, आज जाना पडा.."
याद है,मैंने आपसे पूछा था," अम्मा ! 'बाबुल" का " घर क्या होता है?"
अम्मा: ""बाबुल"का घर मतलब अपनी माँ घर, अपने पिता का घर..."
मै:" और 'पीका' घर मतलब?"
अम्मा:" पीका" घर मतलब, जैसे,ये घर मेरे लिए है...ये घर मेरी माँ का घर नही..मै शादी करके,फिर यहाँ रहने आयी....ये मेरे 'पतीका" मतलब 'पीका" घर है....तेरे 'बाबा' मेरे 'पी' हैं..!"
मै:" क्यों? आपको अपना घर क्यों छोड़ना पडा? नानीअम्मा को बुरा नही लगा आपको यहाँ भेज देना? और वो गानेवाली को क्यों जाना पडा? उसके साथ किसीने ज़बरदस्ती की? उसको रोना भी आया फिरभी उसको क्यों जाना पडा?"
मुझे याद है, आप बोलीं थीं:"एक दिन तुझेभी जाना पडेगा..इसी तरह...और शायद तू खुशीसे जायेगी...हो सकता है, जाते समय रो दे......"
मैंने वो ख़याल अपने मनसे पूरी तरह झाड़ दिया...ऐसा होही नही सकता...मै अपनी माँ, दादा, दादी और इस घर को छोड़ के कहीँ भी नही जा सकती...बल्कि, नही ही जाऊँगी...!

लेकिन, चलीही गयी...हाँ, रोई तो बोहोत...घरको तो भूल पाना, खाई, नामुमकिन है...!..उस घरमे कितनेही बदलाव हो गए, लेकिन मुझे, वो घर वैसाही दिखता है, अपने सपनों में, जैसा तब था..जब आपका और मेरा ये सम्भाषण हुआ था...

इतने बरसों बादभी,मुझे "अपने घरके" तौरपे वही घर दिखता है! मुझे अपने ससुराल वालेभी गर सपनेमे दिखते हैं, तो उसी घरमे....! मुझे आजतक कोई अन्य घर दिखाही नही!
और ये बात आपकी छोटी बेटीके साथभी होती है...इतनाही नही..हमें किहीम भी और वहाँ का समंदर भी ( मेरे परदादाका एक घर किहीम, इस गाँव के, समंदरके किनारे, था....मुम्बईके पास), अपने खेतको लगी ज़मीनपे दिखता है...और सिर्फ़ मुझे और कुन्नुको नहीँ...आपके बेटेको भी किहीम का समंदर वहीँ नज़र आता है,अपने सपनोंमे... !!!उसे अपना घर छोड़, अन्य घर जाना नही पडा, तो उसे बचपनका घर सपनेमे दिखना लाज़िम है..लेकिन हम दोनों लड़कियोंको???
पता है आपको अम्मा...जब दादा के गुज़र जानेके बाद, दादीअम्मा कुछ रोज़ मेरे पास आके रहीँ,तो हमारी ये सपनों में घर दिखने वाली बात निकली...हैरान रह वो बोलीं," मुझे मेरा मायका छोडे ७२ सालसे अधिक हो गए...लेकिन, सपनेमे मुझे वही खम्बात का घर दिखता है..!"

सोचो तो ज़रा...दादाके साथ उनकी ज़िंदगी कितनी खुश गँवार गुज़री...! जिस दिन दादा गुज़र गए, वो उन दोनोकी शादीकी ७२ वी सालगिरह थी...! जिस दिन साथ जुड़े , उसी दिन बिछडे...!
लड़कियाँ क्यों "पराया धन" कहलातीं हैं? उनकी जड़ें कितनी अधिक उस भूमी, उस घरसे जुडी होती हैं, जहाँ, उनका बचपन गुजरता है...जहाँ उन्हें अपने यौवन मे पनाह मिली होती है..!!!जहाँ उन्हें सुरक्षित महसूस कराया जाता है...या जाना चाहिए...

वो एक शाम मुझे आजतलक नहीँ भूली...मै अपने दादा-दादीके साथ खेतपे घूमने गयी थी...वहाँसे लौटी तो आप रसोईकी सीढीपे खड़ी मिली..मै आपके क़रीब गयी,तो आपने मेरा माथा चूमा....उस एक प्यारे चुम्बनने मुझे कितना सुरक्षित महसूस कराया...मै इतने बरसों बादभी नही भूली...!

और एक बात के लिए मै आपकी ताउम्र शुक्र गुज़ार रहूँगी....ना जाने उस वक़्त आप मुझसे वैसा नही करवाती ,तो, मै ज़िंदगीभर कितना अधिक पछताती...३ सालकी उम्र होगी मेरी...फिरभी वो वाक़या मेरे ज़हन मे अंकित होके रह गया...नाभी रेहता, गर उसके अगले दिन जो घटा ,वो, ना घटा होता...आजभी सिहर जाती हूँ..आजभी अपनी प्यारी माँ के आगे नतमस्तक हो जाती हूँ...
आपके सदाही रुण मे रहना चाहती हूँ...चाहूँगी..."

क्रमश:

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Friday, May 22, 2009

माँ, प्यारी,माँ! १

बेटीपे लिखा..एक माँ ने..अब एक बेटी अपनी माँ को याद कर ,उसके बारेमे लिखना चाह रही...
चाह तो बड़े दिनों से थी..और ऐसा नही,कि, पेहले लिखा नही..पर ये कुछ नए सिरेसे..एक बेटी, जो,माँ होनेका दर्द झेल रही है....और अपनी माँ का दर्द समझ रही है..उसका बड़प्पन याद कर रही है..उसकी कई बातें, आज मेरे सामने एक दीप शिखा बन खड़ी हो गयीं हैं...

कई बार चाहा,कि, एक औलाद, मुझेभी, याद करे,कुछ इसीतरह, जब भी, किसी अन्य को अपनी माँ को याद करते हुए,पढा,या सुना...शायद, वो मेरी किस्मत नही...
इस आलेखमे, कुछ उन्हीं के अल्फाज़ ,जो,खतों के रूपमे मेरे पास हैं...या बोलोंके रूपमे मुझे याद हैं...उन्हीं को ,उजागर करना चाह रही हूँ..लेकिन,सिर्फ़ उतनाही नही...औरभी बोहोत कुछ...

वोभी मेरे लिए,कितनीही बार फानूस बनी...अपने हाथ जला लिए,ऐसा करते, करते...ज़रूरी नही था,कि, मैनेही उन्हें जलाया हो...लेकिन,हाँ, जाने-अनजाने ये ख़ता मैंने ज़रूर की है...

उनका हर किया,अनुकरणीय ही था,ऐसाभी नही...लेकिन, वो नही था, येभी,कई बार, उन्होंने ने ख़ुद दिखलाया...
आज इससे अधिक लिखनेका समय नही....उनके बारेमे,इत्मिनानसे ही लिखना होगा..दिल भर,भर आता है...
उनपे, उतारा गुस्साभी याद आता है..अपनी हताशा भी याद आती है....

क्रमशः

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Monday, May 18, 2009

दिन एक माँ के लिए.. ४

रिश्ता था हमदोनोका ऐसा अभिन्न न्यारा
घुलमिल आपसमे,जैसा दिया और बातीका!
झिलमिलाये संग,संग,जले तोभी संग रहा,
पकड़ हाथ किया मुकाबला तूफानोंका !
बना रहा वो रिश्ता प्यारा ,न्यारा...

वक़्त ऐसाभी आया,साथ खुशीके दर्दभी लाया,
दियेसे बाती दूर कर गया,दिया रो,रो दिया,
बन साया,उसने दूरतलक आँचल फैलाया,
धर दी बातीपे अपनी शीतल छाया,कर दुआ,
रहे लौ सलामत सदा,दियेने जीवन वारा!!

जीवनने फिर एक अजब रंग दिखलाया,
आँखोंमे अपनों की, धूल फेंक गया,
बातीने तब सब न्योछावर कर अपना,
दिएको बुझने न दिया, यूँ निभाया रिश्ता,
बातीने दियेसे अपना,अभिन्न न्यारा प्यारा,


तब उठी आँधी ऐसी,रिश्ताही भरमाया
तेज़ चली हवा तूफानी,कभी न सोचा था,
गज़ब ऐसा ढा गया, बना दुश्मन ज़माना,
इन्तेक़ाम की अग्नी में,कौन कहाँ पोहोंचा!
स्नेहिल बाती बन उठी भयंकर ज्वाला!

दिएको दूर कर दिया,एक ऐसा वार कर दिया,
फानूस बने हाथोंको दियेके, पलमे जला दिया!
कैसा बंधन था,ये क्या हुआ, हाय,रिश्ता नज़राया!
ज़ालिम किस्मत ने घाव लगाया,दोनोको जुदा कर गया!
ममताने उसे बचाना चाहा, आँचल में छुपाना चाहा!!

बाती धधगती आग थी, आँचल ख़ाक हो गया,
स्वीकार नही लाडली को कोई आशीष,कोई दुआ,
दिया, दर्दमे कराह जलके ख़ाक हुआ,भस्म हुआ,
उस निर्दयी आँधीने एक माँ का बली चढाया,
बलशाली रिश्तेका नाज़ ख़त्म हुआ, वो टूट गया...

रिश्ता तेरा मेरा ऐसा लडखडाया, टूटा,
लिए आस, रुकी है माया, कभी जुडेगा,
अन्तिम साँसोसे पहले साथ हो, बाती दिया,
और ज़ियादा क्या माँगे, वो दिया?
बने एकबार फ़िर न्यारा,रिश्ता,तेरा मेरा?

जानती है, १२ मईको "तैय्याका" फोन आया था? वो तेरे बारेमे पूछ रही थीं! मुझसे रहा न गया...दिल भर आया ..मैं कुछ देर खामोश रही...तैय्या बार, बार पूछती गयीं...अंतमे भर्राई आवाज़मे मैंने कह दिया," भाभी वो मुझसे बेहद रूठी हुई है...पता नही वो मुझसे कभी सामान्य हो पायेगी या नही? "

तैय्याको ३१ साल पूर्व का वो बनारससे ,देहलीतक किया सफर याद आ गया....३० मईको मै तुझे लेके तैय्याके साथ, बनारससे देहली निकली थी...बिना आरक्षण किए...३रे दर्जेकी बोगीमे...देहली स्टेशन पे एक ऐसी भीड़ दिब्बेमे घुस पडी,की, मै और तैय्या तो बिछड़ ही गए...मै, बोगीके passege में तुझे ले गिर पडी...अपने शरीरको १२ दिनोकी एक नाज़ुकसी कलीपे ढाल बनाये रखा...मेरे उपरसे भीड़ गुज़र रही थी..तू डर और भूखसे जारोज़ार रो रही थी..एक मुसाफिरने मेरी हालत देखी...मानो फ़रिश्ता बन वो सामने या...हम दोनोको उसने खड़ा किया और कहा," अब मै अन्दर घुसनेवाली भीडको एक ज़ोरदार धक्का लगा दूँगा...आप उस वक्त डिब्बेसे उतर जाना...!"

गर वो ना होता तो पता नही, ज़िंदगी ने हमें वहीँ रौन्दके रख दिया होता.....तेरे कपड़े डिब्बेमे छूट गए..मेरे पैरोंमे चप्पल नही रही...

तैय्या platform पर नही उतर पायी...दूसरी तरफकी पटरियों पे उन्हें उतरना पडा..मै जैसेही platform पे उतरी...तेरे पिताके एक दोस्त हमें लिवाने आए थे..मुझे धीरज दिलाते हुए, एक बेंच पे बिठाया...मैंने तुझे स्तनपान कराया...कितनी भूकी प्यासी थी तू! ! मै आजतक वो दिन नही भूली...एक नन्हीं जान अपनी माँ पे कितनी निर्भर होती है..कितनी महफूज़ होती है, उसके आँचल में! !
मैं भी कभी ऐसीही महफूज़ रही हूँगी अपनी माँ के आँचल में....मुझे आजभी अपनी माँ का आँचल , हर धूपमे छाया देता है..काश मेरे जैसा नसीब तेराभी हो..कि तूभी...फिर एकबार, मेरे होते, अपने आपको उतनाही महफूज़ महसूस करे!!!काश..काश..मेरी इतने बरसों की अराधना सफल रहे....
जानती हूँ, तेरा जीवनसाथी, तेरे लिए एक विलक्षण सहारा है..वो बना रहे..तुम दोनों बने रहो..किसी अदृश्य रूपसे मेरी दुआएँ तुमतक पोहोंचतीं रहेँ...आमीन!

मै लिखना चाहूँ,तो और पता नही कितना लिख दूँगी..पर अब बस..इसके पहलेभी काफी लिख चुकी हूँ..कितना दोहराऊँ?

समाप्त।

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Tuesday, May 12, 2009

दिन एक माँ के लिए.. ३

बिटिया आज तेरा जनमदिन...आज एक माँ का भी जनमदिन...के तूने मुझे माँ बनाया...

बनारसकी चिलचिलाती दोपहरी....सिज़ेरिअन सेक्शन से तेरा जनम होगा ये तय कर लिया गया था..मेरी मानसिक हालत और तेरे पैर आगे देख, यही वैद्यक शास्त्र की दृष्टीसे सही था..
मेरे होमिओपथ ने काफी कोशिश की ये सर्जरी टल जाय...दवाई देके तेरा सर घुमानेकी ...ये तो खैर पता तो नही था कि, लड़का है या लडकी....लेकिन मुझे कोई फ़र्क़ नही पड़नेवाला था...हाँ, मेरे ससुरालवालों को पड़नेवाला था...और पडाभी.....तेरे आगमन की ख़बर तेरे पिताने एक बडेही अपराध बोधसे ,तेरी दादीको सुनाई......और मेरा मन छलनी,छलनी हो गया...किसीने उन्हें बता रखा था, की, मुझे २ लड़केही होंगे...

मुझे याद, OT में तेरी "तैय्या"को अन्दर नही आने दिया तो मैंने कितना उधम मचा दिया था...एक डॉक्टर और मेरी शुभ चिन्तक की हैसियत से मेरा सिर्फ़ मेरी उस जेठानीपे ही विश्वास रहा था...मुझे, शायद, बहलाए रखनेके लिए, भरोसा दिया गया था,कि, भाभी को OT में आने दिया जायेगा...
पता चला कि, मेरी डॉक्टर को तो ऐतराज़ नही था..लेकिन अनेस्थीशिया देनेवाले डॉक्टर की मर्जी नही थी...मुझे ज़बरदस्ती पकड़ रखा गया और बेहोशीकी दवा सुंघाई गयी...पता नही मैंने कितनी देर साँस रोके राखी थी...
जब होश आया तो मै OT के बाहर थी...

वो ward,जहाँ मुझे रखा जानेवाला था, दूसरी इमारतमे था...तुझे तो बिना किसी आवरण केही मेरी माँ के हाथ पकड़ा दिया गया था...उन्होंने एक आयासे उसका एप्रन माँगा...!
दोपेहेरकी, बनारसकी गरमी...१ बजके २० मिनट पे तेरा जन्म...२ बजेके करीब, मुझे दूसरी इमारत में ले जाना था..अजीब आवाज़ें मेरे कानोंमे आ रही थीं.."इस बिल्डिंग से उस बिल्डिंग में हम स्ट्रेचर नही देते...आपको वहाँ से मँगवाना होगा.."
भाभी बरस पड़ीं," अरे तो क्या इस औरत को चलाके भेजोगे? वो भी नही दे रहे स्ट्रेचर...! और सिज़ेरिअन का बच्चा तो इतना नाज़ुक समझा जाता है...उसकी तो किसीको चिंताही नही..."

खैर..इतना याद है,कि, मुझे दो बार एक स्ट्रेचर परसे दूसरेपे डाला गया..मतलब उस बिल्डिंग से OT की बिल्डिंग के बीछ, एक स्ट्रेचर आया ..वहाँसे मुझे उसपे शिफ्ट किया गया...ये सब बादमे पता चला...

और दिनों डॉक्टरों की स्ट्राईक चल रही थी...उनका कहना था,कि, गर प्राइवेट ward के मरीज़ों से अधिक पैसे लिए जाते हैं, तो डॉक्टर्स कोभी उसी मुताबिक तनख्वाह या मेहताना मिलना चाहिए...
दूसरी ओर १२ से १५ घंटे बिजलीका गुल होना साधारण बात थी...और मुझे जिस पलंग पे रखा गया उसको सटके एक टीबी की मरीज़ थी..ये तो भाभीकी आदत थी ,कि, वो अन्य मरीज़ोंके बारेमे अपनी जानकारी रखतीं..गर वो ना होती तो किसकी सुनवाई नही होती..!

इसके पूर्व मुझे जो जगह दी गयी,थी वो एक छोटा -सा अलग ward था...भाभी ने पूछताछ की," यहाँ पहले कौन था?"
एक नर्स ने बताया," यहाँ एक सेप्टिक का मरीज़ था...कुछ घंटों पूर्व उसकी मौत हो ......"
भाभी तकरीबन चींख पडी," अरे ये क्या बकवासबाज़ी लगा रखी है..! इस मरीज़ कोभी मार देना है क्या? इससे तो जनरल ward ठीक है..हमें क्या पता था,कि, यहाँ इतनी अंधेर नगरी है....! इस अस्पताल के management की तो मत मारी गयी है..सिज़ेरियन का बच्चा तो वैसेही इतना नाज़ुक होता है..और बच्चों के बनिस्बत उसमे प्रतिकारशक्ती कम होती है...और यहाँ तो सीधे सेप्टिक ward में उसे रखा जा रहा है...इसे disinfect भी किया था के नही.....? या ऐसेही सीधे अगले मरीज़ को घुसा दिया....?"
नर्सने कुछ कहनेसे मनाही कर दिया..ज़ाहिर था...कमरेको sterilize नही किया था...!
ये अंधेर नगरी ही थी....!!!

आज मुड के देखती हूँ, तो लगता है, गर भाभी,( जिन्हें तू बादमे, तैय्या कहने लगी, क्योंकि, ताईजी बोलना नही आता था), और मेरी माँ नही होती, मेरे साथ, तो शायद तू मेरे हाथ नही लगती...
माँ तो अपना घरबार छोड़ मेरे पास महीनों आके रुकही गयीं थीं...पहले ३ गर्भपातका इतिहास था...और भाभीभी अपने ८/९ सालके बच्चे को छोड़ लगातार मेरे पास दौडे चली आतीं...वो दिल्लीमे कार्यरत थीं...और उनकी पेड़ छुट्टी ख़त्म हो गयी तो उन्होंने बिना तनख्वाह छुट्टी ले ली थी....नही पता कि हमारे किन जन्मोंके रिश्ते थे...जो वो निभा रही थीं...

देखा जाय तो तेरी तैय्या, मेरी सासकी सौतेली बेहेनकी बहु थीं...लेकिन हमारे परिवारमे मै उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी..उन्होंने वैसेतो हमारे घरके हर व्यक्तीके लिए बड़े कष्ट उठाये,लेकिन, उनपे इल्ज़ाम ज़रूर धरा गया कि, मै अधिक लाडली हूँ...प्यार नाप तौलके तो किया नही जाता...अपने फ़र्ज़ तो वो हमेशा बेक़ायदी से निभाती रहीं...
इसी बातपरसे एक बात याद गयी तो वो बताते चलती हूँ....

हम तब दिल्लीमेही थे...मेरे ब्याह को शायद एकही साल हुआ था...हम एशिया हाउस जहाँ भाभी रहती थीं, वो जगह छोड़ बंगाली मार्केट के इलाकेके टोडरमल squaire में शिफ्ट हो गए...यहाँ दो कमरे अधिक थे....
एक दिन तेरे पिताकी रातमे अचानक से तबियत बिगड़ी....भाभीका फोन लग नही रहा था...हम सभी परेशान थे , कि de- hydration ना हो जाय....इन्हें क़ै और मतली हुई जा रही थी..साथ,साथ दस्तभी.....कार तो मैभी चला सकती...के जाके भाभीको ले आऊँ...पर उस दौरान इन्हें कौन देखता? और अव्वल तो मेरे ससुराल का मेरी driving पे भरोसा नही था....!

मै ट्राफिक के नियमों नुसार गाडी चलाती...और दिल्लीमे ऐसा कोई चलन नही था...!
सभीको लगता गर,मै रेड सिग्नल पे रुक गयी, इशारा देकेभी, कोई ना कोई पीछेसे आके धड़क लेगा...गाली गलौच अलग होगी सो होगी...!मेरा क्या नुकसान होगा, इसकी परवाह तो नही थी, लेकिन कार को कुछ होता है,तो नुकसान उठाना पडेगा...ये डर!!

इसमे फैसला हुआ, दिनेश भैया को प्रचारण कर, हालत बताके,उन्हें अपनी byke पे एशिया हाउस भेजा जाय और,उनके पीछे बैठ भाभी आ जायें !
अब भाभीने इनके दोस्त दिनेश को, तो देखाही नही था!
दिनेश अपना परिचय जताते हुए, भाभीके घर पोहोंचा.....भाभीका फो बंद होनेके कारण हम तो इत्तेला देही नही सके थे....मैंने भाभीको एक छोटी -सी चिट्ठी लिख दी...बस वही एक प्रमाण....रातके २ बज चुके थे...दिल्ली शेहेरकी ख्याती तो सब जानतेही थे...मुम्बई में एक अकेली लडकी/औरत, बेझिझक टैक्सी पकड़, अपनी निर्धारित जगह जा सकती थी...लेकिन यहाँ?

भाभी हिम्मतवाली...उनसे बढ़के उनके पती काभी उनपे विश्वास...!
चली आयीं...दिनेशके पीछे सवार हो..लेकिन उतरी तो दखा, एक हाथमे चप्पल पकड़ रखी थी...!
कहने लगीँ," हमने सोच लिया था,कि, गर ये ज़राभी रास्ता बदलता तो मै उसे चप्पल जूती जो हाथ लग जाता, जमके पिटाई तो करही देती.....चलो...... भाई दिनेश , अब तू तो हमें माफ़ करही दे....मै तो हूँही ऐसी...!"

दिनेशने अपनी खैर मनायी......!उसकी ज़रा-सी गलती, और सिरपे जूती...!लेकिन भाभीकी हिम्मतका कायल हो गया........!प्रेमा भाभीका नाम सुनतेही,वो कहता है," हाँ...चप्पलवाली भाभी.....! उन्हें कैसे भूल सकता हूँ??सिर्फ़ सिरपे क्या, क्या पड़ता, वो बात छोडो, भाभी तो उन्हें पटकी खिला देतीं और दिनेश अपना ठीकसे बचाव भी नही कर पाता, ये जानते हुए,कि, भाभी किसकी हैं?

पतीको तो वो फिर एक रातके लिए भरती करवाकेही आयीं...
आज मेरे मनमे सवाल उठता है...भाभीकी हिम्मतकी सभीने तारीफ़ की...आजतक करते हैं....गर ये बात मुझे करनी पड़ती तो क्या मुझे इसतरह से जाने दिया होता? नही...ये दोहरी प्रतिक्रया है...मै चाहे कितनीही भले कामके लिए हल्का-सा खतरा मोल लूँ..तो उफ़! इतनी जवाबदेही..!

तो ऐसी तैय्या तेरे पास मौजूद थीं....मेरे पास मौजूद थीं ... जैसे फ़रिश्ता कोई हमारी रक्षा कर रहा हो....
काफी विषयांतर हो गया..लेकिन असलमे ये विषयांतर नही..ये व्यक्ति चित्रण है...

तो लौटी हूँ, उन्हीँ लम्होंमे..समय देखा जाए तो घड़ी पास आ रही है...इस वक्त...तेरे जन्मको बस १२ घंटे होनेवाले हैं...
माँ ने अपने हाथोंसे तुझे नेहलाया...
भाभीने जब मुझे, ले जाया रहा था, तेरे जनमके बाद तो पूछा," जानना चाहती हो है लड़का है या लडकी?
मैंने "नामे" सर हिला दिया.....उनकी बातें,जो मेरे कानपे आ टकरा जो गयीं थीं....
"तुम उसका चेहरा देखना चाहोगी?"
" अभी नही..." मैंने जवाब दिया...
मुझे मन था, जब इसे अपने आँचल में लूँगी, तभी जी भरके देख लूँगी...तब दुआओं के अलावा मनसे क्या निकलता?
एकेक बारीकी याद है मुझे.....कुछ भी नही भूली...कुछभी नही....
कैसे गुज़रे वो चंद दिन? मेरा घोर डिप्रेशन कहाँ गया? अब अगली बार.....
मेरे बच्चे, तुझे इतना कुछ कह देना है...किस छोरको पकडूँ, किस छोरको छोड़ दूँ?कैसे कहूँ,कि तूही मेरी दुनियाँ बन गयी...क्योंकि....तुझे इस बेदर्द ज़मानेसे मुझेही बचाना था/ होगा...हर गुज़रते लम्हे के साथ, इस एहसास की संगीनता नज़र आ रही थी....
क्रमशः

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Sunday, May 10, 2009

दिन एक माँ के लिए...! २

" बिटिया...तुझसे रोज़ एक मूक-सा सँवाद करती रहती हूँ...ये पहली बार नही ,कि, इसके बारेमे मैंने बताया हो...पर तूने नही सुना....दुनियाने सुना पर तेरे कानोंतक नही पोहोंचा...या पोहोंचाभी, तो उसमेके भाव तेरे दिलतक नही उतरे...

मुझे हर माँ ने बताया,कि, जबतक एक औरत माँ नही बनती, वो अपनी माँ के दिलके भाव नही समझ सकती... तू माँ नही बनना चाहती...शायद तेरे बचपनके एहसास हैं, या कि अन्य अनुभव, तुझे बच्चों से मानो चिढ-सी है...ना वो ज़िम्मेदारी तुझे चाहिए, नाही उसके साथ आनेवाले बंधन...जबभी घरमे बच्चे आते हैं...और उस वक़्त तू वहाँ मौजूद होती है...चाहे वो किसीकाभी घर क्यों न हो, तू अपने बच्चे ना होनेकी खैर मानती है...और अब तुझे कुछभी सलाह मशवेरा देनेका अधिकार मुझे नही है...

वो ज़माने बीत गए जब माँ अपनी औलाद्को चंद मामलोंमे अच्छा बुरा बता सकती थी....हाँ, हैं, आजभी ऐसी खुशकिस्मत माएँ, जिनके पास बेटियाँ जाती हैं, जब दुनियासे कुछ पल अपने माँ के आँचल में पनाह चाहती हैं......
तेरे ब्याह्के बादका एकभी दिन मुझे याद नही, जब तूने खुलके मुझे गले लगाया हो.....या लगाने दिया हो....

और जब तू चाहती थी, तेरे लड़कपन के दिनोंमे ...हर रात सोनेसे पूर्व तू ज़िद करके मेरे गले लगने आती...और चाहती कि मै तेरे दोनों गाल चूम लूँ...मै चूमभी लेती...लेकिन अन्य परिवारकी निगाहेँ मुझपे टिकी रहतीं.....जैसे मै कोई बड़ा अपराध करने जा रही हूँ...लड़कियोंको इतना ज़्यादा अपनेसे चिपकाके रखना नही चाहिए...ये बात मेरे ज़ेहेन्मे दबे सुरमे सुनायी देती ...एक अपराध बोध के तले मै झट तुझसे दूर हो जाती...मेरे ससुरालमे तू तीसरी कन्या थी....

"तुम तो ऐसे बर्ताव करती हो,कि, दुनियाकी पहली माँ हो,"...ये अल्फाज़ अनंत बार मैंने सुने...कभी कहनेका साहस नही हुआ, कि, कह दूँ, मै दुनियाकी पहली माँ ना सही, मै तो इस दुनियामे पहली बार माँ बनी हूँ....क्या यही काफी नही था,कि, मै तेरा जन्म एक उत्सव के तरह मना पाऊँ?उत्सव की परिभाषा भी कितनी-सी? तुझे हँस खेल नेहला लूँ....चंद पल तेरे साथ कुछ छोटे खेल खेलके बिताऊँ.........देख रही थी,कि, समय कितना तेज़ीसे फिसलता जा रहा है...पर... .इसी "पर" पे आके रुक जाना पड़ जाता.....

मेरे बच्चे...मै अपनेआपको कितना असहाय महसूस करती कि क्या बताऊँ.....? उस अपराधबोध को बिसराने...उस असहायताको भुलाने, मै ना जाने और कितने कलात्मक कामोंमे लगा लेती अपनेआपको.....लेकिन वो पर्याय तो नही था...

मेरे पीहरमे तेरे जनमका उत्सव ज़रूर मना...तू मेरे दादा-दादा-दादीकी पहली परपोती थी...सबसे अधिक प्यार तुझे मेरे नैहरमे मिला...मै उसके लिए जिंदगीसे शुक्रगुजार हूँ...मेरी दादी तुझपे वारी न्यारी जाती.....तेरी नानी, तेरी हर कठिन बीमारीमे दौडी चली आती....

लेकिन क्या उस प्यारने तुझे कहीँ ऐसा महसूस करा दिया कि, उसके बदले तुझसे उम्मीदें रखी जाएँगी? लाडली ऐसा कुछभी नही था...लेकिन, तेरी मनोदशा पिछले चंद सालोंसे कुछ अजीब-सी बनाती चली गयी...एक विद्रोही...मै नही तो और कौन समझेगा, तुझे मिले सदमोंका असर? लेकिन मैभी अपनी मर्यादायों को समझती थी.....चक्कीके दो पाटोंमे तूभी पीसी मैभी पीसी....

जो अल्फाज़ मेरे कानोंने सुने, जो एक तेज़ाब की तरह मेरे कनोंमे उतरे और दिल जलाके पैवस्त हो गए....." माँ ! तुमने पैदा होतेही मेरा गला क्यों ना घोंट दिया.....मैंने नही कहा था, मुझे इस दुनियामे लाओ..."

तुझे गले लगानेकी कोशिश की, लेकिन तूने एक झटके से मुझे परे कर दिया, अपनी पलकोंपे आँसू तोलती मै कमरेके बाहर जाने लगी तो तूने खींचके फिर बुलाया," नही जाने दूँगी बाहर ...मेरी बात सुनके जाओ...जवाब देके जाओ....

"बेटे इस वक़्त मुझे माफ़ कर ..तेरी गुनहगार तो हूँ, लेकिन इतनी नही कि, अपनी सबसे प्यारी, फूल-सी नाज़ुक-सी नन्हीका गला घोट दती...? उसके पहेले मै ना मर जाती? तेरी एक हलकी-सी चुलबुला हट से मेरे सीनेमे दूध उतर आता....तू कुछ दूरीपे होती और तेरी आवाज़, जिसमे भूख होती, मेरे सीनेमे दूध उतार देती.........एक अविरल धारा जो तेरे होटोको छूती और मुझे तृप्त कर जाती....क्या ये माँ और उसकी औलाद्का कुदरत ने बनाया एक अटूट ,विलक्षण बंधन नही?"

मै इतना लम्बा तो नही बोल पाई...."बस, मुझे एकबार माफ़ कर ...." इतनेही अल्फाज़ बडीही मुश्किलसे कह पायी...लेकिन बरसों दबी एक विलक्षण अभिमान और खुशीकी याद, एक टीस बनके सीनेमे उभर आयी......
वो यादगार मुझे मेरी दादी तथा दादाने सुनायी थी...

मेरे जनमकी जब उन्हें डाकिये ने ख़बर दी...( मेरा जन्म मेरे नानिहालमे हुआ था), तो उस ज़मानेमे, तकरीबन अर्धशतक से अधिक पहेले, सेहेरपे निकले मेरे दादा-दादीने डाकिये को २५ रुपये थमाए...उसकी प्रतिक्रया हुई," समझ गया ...आपको पोता हुआ...."

मेरे दादा बोले," अरे पागल, तू क्या समझेगा कि हम एक लड़कीके लिए कितना तरस रहे थे...इसका जोभी नाम रखा जाएगा, उसके पहेले "लक्ष्मी " ज़रूर जुडेगा ...ये तो पैदाभी लक्ष्मी पू़जन के दिन हुई है...और वो नाम जुडाभी...

वो बात मुझे उस वक़्त ऐसे शिद्दत से याद आ गयी...लगा गर , मेरे जनम के दिन मेरी माता मेरा गला घोंट देतीं , तो मुझे ये अल्फाज़ तो सुनने नही पड़ते...और ग़म तो इस बातकाभी नही था...वो महिला दिवस था..उसके ठीक एक साल पहेले एक समारोहमे मैंने एक बडीही फूर्तीली कविता, तभी तभी रचके सुनाई थी...

आज लगा, कहीँ किसी दूसरी दुनियासे , मेरे दादा-दादी, गर अपनी इतनी लाडली पोतीको, अपनीही निहायत लाडली परपोतीके मुहसे निकले या अल्फाज़ सुन रहे होंगे, तो उनके कलेजे ज़रूर फट गए होंगे.....ये कैसी विडम्बना की मेरी जिन्दगीने मेरे साथ....पर जैसे मै अपनी फूलसी बेटीका गला घोंटना क्या, उसपे गर्दन पे बैठी, मख्ही भी बर्दाश्त नही कर सकती, तो क्या मेरी माँ, ऐसा ज़ालिम काम कर सकती ?

ना जाने ये कथा किसकी और व्यथा कौन भुगत रहा...नही पताके उसके कहे इन अल्फाजोंकी गूँज कितने दिन मेरे कानोंमे गूँजती रहेगी...ना जाने मेरी बिटिया,तू इन्हें भुलायेगी, या इसी शिकायत के साथ ताउम्र तड़पेगी?और शिकायतों में कमी नही, इज़ाफा करती रहेगी? ना, मेरे बच्चे ,मत तड़प तू इतना...तेरी माँ इतनीभी गुनेहगार नही...हालातकी मारी सही....
मै क्या करूँ,कि, तू चैन पाये....?अपनी दुनियाँ तुझपे वार देनेके लिए तैयार हूँ...तू गर स्वीकारे.....गर तुझे वो चैन दे...
बता मेरे बच्चे, मेरे सपनेमे आके बता, के सामने तो तू नही बताएगी...के मै क्या करूँ? मै ऐसे बोझको लेके कैसे शांतीसे मर पाऊँगी?

क्या अबके मिलेगी तो बिछड़ने से पहले एकबार मुझे कसके गला लेगी?"

क्रमश:

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Saturday, May 9, 2009

दिन एक माँ के लिए...१ ...

कई बार ऐसी यादें घिर आती हैं अतीतके गर्दिशमेसे उभरके...के बेसाख्ता बह निकलती हूँ...
येभी नही समझमे आता कि किस क्रममे लिखूँ..इस्तरह्से एक बाढ़ आती है....
शायद जो क़रीबका अतीत होता है,वो ज्यादा छलता है...
इसीपे एक मालिका शुरू करने जा रही हूँ..जहाँ एक मुक्तीधारा बेहेने दूँगी..अनिर्बंधित...लेकिन, साफ़ इतनी के जिसकी गहरायीका एहसास ना हो...पूरी पारदर्शक....लेकिन सिर्फ़ अपनेआपको कुरेदूँगी.....किसी औरको नही...के ज़िंदगी ने समझाया, वो मेरा अधिकार नही...

सुनती आयी हूँ, 'mother's day' के बारेमे, पिछ्ले कुछ सालोंसे....
मेरी अपनी बेटीके जनम दिवस के पासही होता है..बल्कि,उसी दिन....
जिस दिन वो जन्मी, एक माँ जन्मी....इसलिए हम दोनोका जन्म दिन तो एकही दिन होना चाहिए...
शायद मेरी माँ और मेरा जनम दिन भी एकही दिन होना चाहिए..कि मैही उनकी पहली औलाद थी...
उस दिन वो, मेरी लाडली, मुझे कितना याद करती है, करतीभी है या नही, मुझे नही मालूम...
हाँ, मुझे ज़रूर याद आती है...दिल करता है उसे पूछूँ ," क्या मैभी तुझे याद आती हूँ, मेरी बिटिया? या तेरी ज़िंदगी की तेज़ रफ़्तार तुझे इतनी मोहलत ही नही देती....ना देती हो तो, शिकायत भी नही..
तेरा जन्मदिवस तो मै भूलही नही सकती...कि एक माँ का उस दिन जन्म हुआ था..मातृत्व क्या होता है,इसका एहसास हुआ था...
बोहोत कुछ बताने कहनेका मन है तुझे...लेकिन डर भी जाती हूँ...अब तू बड़ी हो गयी है...शायद मुझसे अधिक सयानी....
बचपनको याद करती हूँ तेरे..तो अनायास आँखें भरही आती हैं...बोहोत तेज़ीसे फिसल गया मेरे हाथोंसे..मेरी बाहोंसे...अपनी बाहों में तो तुझे ठीकसे भरभी नही पाई..ये ज़िंदगी की ज़ंजीरे , जो मेरे हाथ बाँधे हुई थीं..लेकिन मनकी अतृप्त इच्छाएँ, कभी तो अपने खूने जिगरसे, अपने जिगरके तुकडके नाम ज़रूर लिखूँगी....
लिखूँगी, के, तेरे साथ क्या, क्या खेल रचाना चाहती थी...तेरे साथ खेलके तुझे खिलखिलाना चाहती थी..और चुपचाप अपने आँचल से अपने आँसू पोंछ लेना चाहती थी..

गुड्डे गुड्डी के ब्याह रचाना चाहती थी...झूट मूटकी शादी...झूट मूट की बिदाई...झूट मूट की दावतें...झूट मूट के खाने, वो निवाले,जो तू मुझे खिलाती , और पूछती," माँ, अच्छा लगा?"
मै गर कहती,"हाँ, बोहोत अच्छा लगा,"तो तू झट कहती,
"तो लो मुँह खोलो, और खाओ",...फिर एक झूठ मूट का कौर...
हूँ...ये खेल तो खेलेही नही गए...और अब क्या खेलेंगे?

क्रमश:

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Monday, May 4, 2009

पुलिस reforms suggested by डॉ धरमवीर National Police commission.

At end of Emergency regime in 1977, the Government constituted the Second National Police Commission to suggest ways & means to make our Police force across the country a real Service; pro-people, free of the political stranglehold & accountable to the Law of the land & not to the politicians in power. It was a bitter lesson learnt by the Nation about the Police which was being governed by an archaic Act enacted by a foreign power ruling the country interested in perpetuating its own rule. Such a police force respected the Ruler only & not the people. PEOPLE did not matter. It was insensitive to the aspirations of a Nation & perceived as slave drivers. Governments in the Independent India did precious little to change that Act or amend suitably that law. The intent was clear & the consequences were for every one to see in their full glory during the Emergency.

The VICTIMS of these repercussions themselves ordered formation of the National Police Commission headed by late Dharma Vir, a retired officer of the elite Indian Civil Service; a bureaucrat of outstanding reputation. The Nation waited with hope for a positive out come which would ‘humanise’ the police & make it a friend of the people accountable to law & law alone freeing from the shackles of political interference.

The Commission to its credit did deliver. It produced a comprehensible document recommending sweeping police reforms along with the path forward suggested clearly. It was a report any commission in the world would be proud of.

The reforms suggested included secure tenure for police officers in executive posts guaranteeing freedom of operation to the police to work as per law. In any case the courts supervise the work of the police in our system. In the U K, the form of democracy that we decided to follow, this independence of police working is called Independence of Constabulary. This is the concept that endears the police to the people in that country. ‘Bobby’ is a respected institution & a role model for other forces in the democratic world.

Law in India is a state subject. Administration of police & maintenance of Law & Order is the domain of the State governments; the Centre, as per the Constitution, is not supposed to interfere.

(Note- laws are enacted either by the Parliament or the State Legislature. As per the Constitution there are three lists of Laws: a) Central list listing laws concerning national subjects like Defense, Foreign Affairs, etc, b) State list like civic administration, Local self governments, Education, Law & Order, etc. Some subjects are common. There is a third list called Concurrent list. This list has some common subjects. Either the Center or the states can legislate on those laws but the laws made therein by the Center shall prevail. Also, a Parliamentary democracy function a lot by conventions in addition to laws, if there are no specific laws is available on the subject. This note I have added just as a background.)

Expectedly, no State government was keen to implement this vital police reforms on one ground or the other. Even the Central Government did not implement this reform in the Union Territories administered by the Center itself. All successive governments of different shades & colours steered clear of letting police to operate independently as per law. Instead of considering the police as the arm of the law, it was treated as the STRONG ARM of the party in power, always, by every government. They feel they will be helpless to tackle their governance if the Police were not under their total control. They want Police to be accountable (Read dependent) on their mercy exercised through the potent power of transfers & postings! An assured tenure system & an independent selection process would defeat this design.

The right thinking officers & some respected leaders of the force, present & retired, ably backed by Activist NGOs, kept on demanding vociferously this implementation. However, the people in power are made of sterner stuff! They would not let go!!

Ultimately, after a protected legal battle, the Apex Court directed the state and the central governments to implement this vital police reform in 2006. Despite that it has been ducked effectively so far. Actually, the Stares have asked for revision of this order on grounds of impracticability. The Babus controlling the Governments are past masters at producing powerful arguments to substantiate such claims.

Feeble attempts to take terrorism on gets attention when some people get killed, which is happening more frequently. However, it resumes its appointed place on the back benches soon & the magnanimous society tends to forget the trauma once again. Blame is apportioned for the failure to the police & the Intelligence agencies squarely. The punching bag awaits another round to be offered as the fodder! And the ones to be accounted for remain free to criticise the police & the famous “foreign” hand. And the water keeps flowing down the Ganges.

Less said the better about the living & working conditions of a police man. The training resources are pathetic. All reports suggesting reforms & improvements are accumulating dust in various government offices in every state in the country. Every government in the states is interested in transfers & postings of the officers. This is true not only of the police department but all other departments where the government ‘servants’ can “Service” the people! It is a well known secret and the weapon of transfers is used effectively to tame the non compliant ones!

And a society that can not hold the value it preaches individually & collectively violates them without batting an eyelid when it comes to self interest. Meanwhile, the Police machinery is expected to uphold these “Noble Values” in & for an increasingly valueless society.

WHO CARES?!

Reproduced by a very senior retired IPS officer।


क्या कोई इस तथ्यकी दख़ल लेगा?

मैंने ये ख़ास दास कबीर के लिए पोस्ट किया है। उन्हों ने बिनती की थी.

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