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Wednesday, July 28, 2010

जा, उड़ जारे पंछी!५)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)


मै घरके बीछो बीछ खडी रहती और नज़र हर ओर तेज़ीसे घुमाती। रसोई मे नारंगी रंगका लैंप शेड..और दीवारपे नीला कैंडल स्टैंड...कोनेमे ये चार फ्रेम्स, सिरेमिक टाइल पे लगी ये खूंटी रसोई के सिंक के पास...पीले तथा केसरिया रंगों की पैरपोंछ्नियाँ... ...!!और,हाँ...स्नानगृह भी बैठक जितनाही सुंदर दिखना चाहिए....!!तो ये यहाँ बड़े तौलिये, ये छोटे तौलिये, यहाँ भी छोटी-छोटी फ्रेम्स ...नयी साबुनदानी लानी होगी...कांचके शेल्फ पे फूलदान...स्नेहल से कहूंगी ...उसके नीचेवाले फूलवाले को ख़बर देनेके लिए....रोज़ लम्बी टहनी के फ़ूल ला देगा , कभी पीले गुलाब,कभी सेवंती,साथ ताज़े पत्ते भी...
तेरी चोलियाँ सीने के लिए मै मेरा पुराना दर्जी बुलानेवाली थी...आके यहीं रहने वाला था...बक्सों मेसे सारी-के सारी किनारे बाहर निकाली गयी,लेसेस निकली, जालियाँ निकली, ज़रीके फूल निकले....हाँ, इस चोलीपे ये लेस अच्छी लगेगी,इसवालेपे ये किनार...इसकी बाहें इसतरह सिलवानी हैं...पीठपे ये ज़र सजेगी....ओहो!!राघव के लिए अभी चूडीदार पजामे-कुरते लाने हैं !!
दिनभर का सब ब्योरा मै तुझे इ-मेल करती। एक दिन तूने लिखा,माँ अब बसभी करो तैय्यारियाँ....!!
और मैंने जवाब मे लिखा, मुझे हर एक पल पूरी तरह जीना है..."इस पलकी छाओं मे उस पलका डेरा है, ये पल उजाला है, बाकी अँधेरा है,ये पल गँवाना ना, ये पलही तेरा है,जीनेवाले सोंच ले,यही वक्त है,करले तू पूरी ...
आगेभी जाने ना तू, पीछेभी जाने ना तू, जोभी है, बस यही एक पल है"!(पंक्तियों का सिलसिला ग़लत हो सकता है!)
सच, मेरी ज़िंदगी के वो स्वर्णिम क्षण थे...कभी ना लौटके आनेवाले लम्हें...भरपूर आनंद उठाना मुझे उन सब लम्हों का...!
अरे, तुझे कौनसी फ्रेम्स अच्छी लगेंगी सबसे अधिक?? मै पूछ ही लेती!!तू कहती सारीके सारी...लेकिन ले नही जा पाउंगी...!!
उफ़!!चूडियाँ औरबिंदी लानी है है ना अभी!!
और अचानक से किसी संथ क्षण, मनमे ख़याल झाँक जाता...पगली!!होशमे आ...संभाल अपनेआपको...सावध हो जा...चुटकी बजातेही ये दिन ख़त्म हो जायेंगे...फिर इसी जगह खडी रहके तू इन सजी दीवारों को भरी हुई आंखों से निहारेगी...चुम्हलाया हुआ घर सवारेगी-संभालेगी..वोभी कुछ ही दिनों के लिए....इनका सेवा निवृत्ती का समय बस आनेही वाला है...बंजारे अपने आख़री मकाम के लिए चल देंगे....!इनके DGPke हैसियतसे जो सेवा काल रहा, उसमे मैंने कुछ एहेम ज़िम्मेदारियाँ निभानी थी..एक तो तेरी शादी, जिसमे गलतीसे भी किसीको आमंत्रित ना करना बेहद बड़ी भूल होगी...IPS अफसरों के एसोसिशन की अध्यक्षा की तौरपे मैंने, हर स्तर के अफ्सरानके पत्नियोंको अपने संस्मरण लिख भेजनेके लिए आमंत्रित किया था। इस तरह का ये पहला अवसर था,जब अफसरों की अर्धान्गिनियाँ अपने संस्मरण लिखनेवाली थीं...और वो प्रकाशित होनेवाले थे.." WE THE WIVES".द्विभाषिक किताबकी मराठी आवृत्ती का नाम था,"सांग मना, ऐक मना"। हिन्दीमे," कह मेरे दिल,सुन मेरे दिल"। साथ ही मेरी किताबोंका प्रकाशन होना था। नासिक मे स्टेट पोलिस गेम्सका आयोजन करना था। और उतनाही एहेम काम...पुनेमे रहनेके लिए फ्लैट खोजना था।
जैसा मैंने सोंचा था, वैसाही हुआ। एक तूफानकी तरह तुम दोनों आए, साथ मेहमान भी आए, घर भर गया, शादीका घर, शादीकी जल्दबाजी!!सारा खाना मैही बनाती...फूल सजते...चादरें रोज़ नयी बिछाती....बैठक मेभी हर रोज़ नयी साज-सज्जा करती। ये मौक़ा फिर न आना था....
क्रमशः।

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Monday, July 26, 2010

जा, उड़ जारे पंछी!४)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संभाषण.)


सितम्बर के माह मे तेरे पिता का महाराष्ट्र के डीजीपी के हैसियतसे बढोत्री हुई। इत्तेफाक़न उस समय मै अस्पतालमे थी और इस खुशीके मौकेका घरपे रहके आनंद न उठा सकी !पर सपनेभी जो बात मुझे सच न लगती वो बात हो गयी!हमें सरकारकी ओरसे वही फ्लैट मिला जिसमे हम १० वर्ष पूर्व मुंबई की पोस्टिंग मे रह चुके थे...वही बेहद प्यारे पड़ोसी, जिन्हें मै अपना हिदी कथा संग्रह समर्पित कर चुकी थी!!हमें इस फ्लैट मे रहनेका ७ माह से ज्यादा मौक़ा नही मिलनेवाला था, लेकिन मेरी खुशीकी कोई सीमा न थी!!हम पड़ोसियों के दरवाज़े हमेशा एक दूसरेके लिए खुलेही रहा करते थे!

अस्पताल से लौटतेही मैंने अपना साजों -सामाँ नए फ्लैट मे सजा लिया। कुल दो दिनही गुज़रे थे कि, एक खबरने मुझे हिला दिया। हमारे पड़ोसी, जो IAS के अफसर थे,और निहायत अच्छे इंसान उन्हें कैंसर का निदान हो गया। पूरे परिवार ने इस बातको बोहोत बहादुरी से स्वीकारा। उनकी जब शल्य चिकित्छा हुई तब उनके घर लौटने से पहले,मैंने उस घरको भी उसी तरह सजाके रखा,जैसे वो घरभी शादीका हो!!
वे घर आए तो एक बच्चे की तरह खुशी से उछल पड़े !मैंने और उनकी पत्नी, ममता ने मिलके लिफ्ट के आगेकी कॉमन लैंडिंग भी ऐसे सजायी के आनेवाले को समझ ना आए किस फ्लैट के लिए मुड़ना है! छोटी-सी बैठक, गमले,फूलोंके हार, निरंजन, रंगोली,.....पता नही और क्या कुछ!!उनके घरके लिए मैंने वोल पीसेस भी बनाये थे। नेम प्लेट भी एकदम अलग हटके बनायी। कॉमन लैंडिंग मे भी मैंने फ्रेम किए हुए वाल्पीसेस सजा दिए। ममता ने अपनी माँ की पुरानी ज़रीदार साडियोंको सोफा के दोनों और सजा दिया। कभी भी इससे पहले नए घरमे समान हिलानेमे मुझे इतनी खुशी नही हुई थी जितनी के तब! सिर्फ़ दिलमे एक कसक थी....रमेशजी का कैंसर!!उन्हें तेरे ब्याह्का कितना अरमान था। ऐसी हालत मेभी वो बंगलौर आनेकी तैयारी कर रहे थे। महारष्ट्र मे विधानसभाका सर्दियोंका सेशन नागपूर मे होता है। वे सीधा वहीं से आनेवाले थे। हम सोचते क्या हैं और होता क्या है....!वो दोनों हमारे घर तेरी मेहेंदीके समारोह के लिएभी न आ सके!उनका कीमोका सेशन था उस दिन!मुंबई के स्वागत समारोह मेभी आ न सके क्योंकि नागपूर का सेशन एक दिन देरीसे ख़त्म हुआ। तेरे ब्याह्के कुछ ही दिनोबाद उनके लिवर का भी ओपरेशन कराना पडा। आज ठीक एक वर्ष पूर्व उस अत्यन्त बहादुर और नेक इंसान का देहांत हो गया। खैर! उनकी बात चली तो मै कहाँ से कहाँ बह निकली....लौटती हूँ गृहसज्जा की ओर...
घर हर तरहसे,हर किस्म से श्रृंगारित करने लगी मै। शादीके दिनोमे मेहमान आयेंगे, तू आयेगी, बल्कि तुम दोनों आयोगे इस लिहाज़ से घर साफ़- सुंदर दिखना था। क्या करुँ ,क्या न करूँ....हाँ लिफ्टके प्रवेशद्वारपे जहाँ servant क्वार्टर की ओर सीढीयाँ जाती थी , वहांभी परदे लग गए...बीछो-बीछ खूबसूरत-सी दरी डाली गयी...शुभेन्द्र तथा पुन्यश्री , ममताके दोनों बच्चे , उन्हेभी उतनाही उत्साह था। मेरे भी सरपे एक जुनून सवार था। तेरे पिता तो नागपूर मे थे...काफी जिम्मेदारियाँ मुझपे आन पडी थी। आमंत्रितों की फेहरिस्त बनाना...हर शेहेरमे किसी एक नज़दीकी दोस्तको अपने हाथोंसे पत्रिका बाँटनेकी बिनती करना...उसी समय,उनको तोह्फेभी पहुँचा ...बंगलोर की BSF मेस के कैम्पस मे किसको कहाँ ठहराना ...किसकी किसके साथ पटेगी ये सब सोंच -विचारके!! जबकी मेस मैंने देखीही नही थी... सब कागज़ के प्लान देखके तय करना था!!
और तेरे आनेका दिन करीब आने लगा....जिस दिन तू आयेगी...उस दिन तुम्हारे कमरेमे कौनसा बेड कवर बिछेगा??कौनसे परदे लगेंगे??कौनसा गुलदान,कौनसे फूल??पीले गुलाब, पीली सेवंती, साथ लेडीस लैस...यहाँ सिरामिक का गुलदान,यहाँ,पीतल का,यहाँ ताम्बेका...ये राजस्थानी वंदनवार। कब दिन निकलता और कब डूबता पताही नही चलता।
क्रमश:

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Tuesday, December 15, 2009

जा, उड़ जारे पंछी १)(एक माँ का अपनी दूर रहनेवाली बिटिया से किया मूक sambhashan


याद आ रही है वो संध्या ,जब तेरे पिताने उस शाम गोल्फ से लौटके मुझसे कहा,"मानवी जनवरी के९ तारीख को न्यू जर्सी मे राघव के साथ ब्याह कर ले रही है। उसका फ़ोन आया, जब मै गोल्फ खेल रहा था।"
मै पागलों की भाँती इनकी शक्ल देखती रह गयी! और फिर इनका चेहरा सामने होकरभी गायब-सा हो गया....मन झूलेकी तरह आगे-पीछे हिंदोले लेने लगा। कानोंमे शब्द गूँजे,"मै माँ को लेके कहाँ जानेवाली हूँ?"
तू दो सालकीभी नही थी तब लेकिन जब भी तुझे अंदेसा होता था की मै कहीं बाहर जानेकी तैय्यारीमे हूँ, तब तेरा यही सवाल होता था! तुने कभी नही पूछा," माँ, तुम मुझे लेके कहाँ जानेवाली हो?" माँ तुझे साथ लिए बिना ना चली जाय, इस बातको कहनेका ये तेरा तरीका हुआ करता था! कहीं तू पीछे ना छोडी जाय, इस डरको शब्दांकित तू हरवक्त ऐसेही किया करती।
सन २००३, नवेम्बर की वो शाम । अपनी लाडली की शादीमे जानेकी अपनी कोईभी संभावना नही है, ये मेरे मनमे अचनाकसे उजागर हुआ। "बाबुल की दुआएं लेती जा..." इस गीतकी पार्श्व भूमीपे तेरी बिदाई मै करनेवाली थी। मुझे मालूम था, तू नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रो लेनेवाली थी.....
मुझे याद नही, दो घंटे बीते या तीन, पर एकदमसे मै फूट-फूटके रोने लगी। फिर किसी धुंद मे समाके दिन बीतने लगे। किसी चीज़ मे मुझे दिलचस्पी नही रही। यंत्र की भाँती मै अपनी दिनचर्या निभाती। ८ जनवरी के मध्यरात्री मे मेरी आँख बिना किसी आवाज़ के खुल गयी। घडीपे नज़र पडी और मेरे दोनों हाथ आशीष के लिए उठ गए। शायद इसी पल तेरा ब्याह हो रहा हो!!आँखों मे अश्रुओने भीड़ कर दी.......

तेरे जन्मसेही तेरी भावी ज़िंदगीके बारेमे कितने ख्वाब सँजोए थे मैंने!!कितनी मुश्किलों के बाद तू मुझे हासिल हुई थी,मेरी लाडली! मै इसे नृत्य-गायन ज़रूर सिखाऊँगी, हमेशा सोचा करती। ये मेरी अतृप्त इच्छा थी! तू अपने पैरोंपे खडी रहेगीही रहेगी। जिस क्षेत्र मे तू चाहेगी , उसी का चयन तुझे करने दूँगी। मेरी ससुरालमे ऐसा चलन नही था। बंदिशें थी, पर मै तेरे साथ जमके खडी रहनेवाली थी। मानसिक और आर्थिक स्वतन्त्रता ये दोनों जीवन के अंग मुझे बेहद ज़रूरी लगते थे, लगते हैं।

छोटे, छोटे बोल बोलते-सुनते, न जाने कब हम दोनोंके बीच एक संवाद शुरू हो गया। याद है मुझे, जब मैंने नौकरी शुरू की तो, मेरी पीछे तू मेरी कोई साडी अपने सीनेसे चिपकाए घरमे घूमती तथा मेरी घरमे पैर रखतेही उसे फेंक देती!!तेरी प्यारी मासी जो उस समय मुंबई मे पढ़ती थी, वो तेरे साथ होती,फिरभी, मेरी साडी तुझसे चिपकी रहती!
तू जब भी बीमार पड़ती मेरी नींदे उड़ जाती। पल-पल मुझे डर लगता कि कहीँ तुझे किसीकी नज़र न लग जाए...

तू दो सालकी भी नही हुई थी के तेरे छोटे भी का दुनियामे आगमन हुआ। याद है तुझे, हम दोनोंके बीछ रोज़ कुछ न कुछ मज़ेकी बात हुआ करती? तू ३ सालकी हुई और तेरी स्कूल शुरू हुई। मुम्बई की नर्सरीमे एक वर्ष बिताया तूने। तेरे पिताके एक के बाद एक तबादलों का सिलसिला जारीही रहा। बदलते शहरों के साथ पाठशालाएँ बदलती रही। अपनी उम्रसे बोहोत संजीदा, तेज़ दिमाग और बातूनी बच्ची थी तू। कालांतर से , मुझे ख़ुद पता नही चला,कब, तू शांत और एकान्तप्रिय होती चली गयी। बेहद सयानी बन गई। मुझे समझाही नही या समझमे आता गया पर मै अपने हालत की वजहसे कुछ कर न सकी। आज मुझे इस बातका बेहद अफ़सोस है। क्या तू, मेरी लाडली, अल्हड़तासे अपना बचपन, अपनी जवानी जी पायी?? नही न??मेरी बच्ची, मुझे इस बातका रह-रहके खेद होता है। मै तेरे वो दिन कैसे लौटाऊ ??मेरी अपनी ज़िंदगी तारपरकी कसरत थी। उसे निभानेमे तेरी मुझे पलपल मदद हुई। मैही नादान, जो ना समझी। बिटिया, मुझे अब तो बता, क्या इसी कारन तुझे एकाकी, असुरक्षित महसूस होता रहा??
जबसे मै कमाने लगी, चाहे वो पाक कलाके वर्ग हों, चाहे अपनी कला हो या जोभी ज़रिया रहा,मिला, मैंने तिनका, तिनका जोड़ बचत की। तुम बच्चों की भावी ज़िंदगी के लिए, तुम्हारी पढ़ाई के लिए, किसी तरह तुम्हारी आनेवाली ज़िंदगी आर्थिक तौरसे सुरक्षित हो इसलिए। ज़रूरी पढ़ाई की संधी हाथसे निकल न जाय इसकारण । तुम्हारा भविष्य बनानेकी अथक कोशिशमे मैंने तुम्हारे, ख़ास कर तेरे, वर्तमान को दुर्लक्षित तो नही किया?
ज़िंदगी के इस मोड़ से मुडके देखती हूँ तो अपराध बोधसे अस्वस्थ हो जाती हूँ। क्या यहीँ मेरी गलती हुई? क्या तू मुझे माफ़ कर सकेगी? पलकोंमे मेरी बूँदें भर आती हैं, जब मुझे तेरा वो नन्हा-सा चेहरा याद आता है। वो मासूमियत, जो संजीदगीमे न जानूँ कब तबदील हो गयी....!
अपने तनहा लम्होंमे जब तू याद आती है, तो दिल करता है, अभी उसी वक्त काश तुझे अपनी बाहोँ मे लेके अपने दिलकी भडास निकाल दूँ!!निकाल सकूँ!!मेरी बाहें, मेरा आँचल इतना लंबा कहाँ, जो सात समंदर पार पोहोंच पाये??ना मेरी सेहत ऐसी के तेरे पास उड़के चली आयूँ!!नाही आर्थिक हालात!!अंधेरी रातोंमे अपना सिरहाना भिगोती हूँ। जब सुबह होती है, तो घरमे झाँकती किरनों मे मुझे उजाला नज़र नही आता....जहाँ तेरा मुखडा नही, वो घर मुझे मेरा नही लगता...गर तू स्वीकार करे तो अपनी दुनियाँ तुझपे वार दूँ मेरी लाडली!
क्रमशः

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Sunday, May 10, 2009

दिन एक माँ के लिए...! २

" बिटिया...तुझसे रोज़ एक मूक-सा सँवाद करती रहती हूँ...ये पहली बार नही ,कि, इसके बारेमे मैंने बताया हो...पर तूने नही सुना....दुनियाने सुना पर तेरे कानोंतक नही पोहोंचा...या पोहोंचाभी, तो उसमेके भाव तेरे दिलतक नही उतरे...

मुझे हर माँ ने बताया,कि, जबतक एक औरत माँ नही बनती, वो अपनी माँ के दिलके भाव नही समझ सकती... तू माँ नही बनना चाहती...शायद तेरे बचपनके एहसास हैं, या कि अन्य अनुभव, तुझे बच्चों से मानो चिढ-सी है...ना वो ज़िम्मेदारी तुझे चाहिए, नाही उसके साथ आनेवाले बंधन...जबभी घरमे बच्चे आते हैं...और उस वक़्त तू वहाँ मौजूद होती है...चाहे वो किसीकाभी घर क्यों न हो, तू अपने बच्चे ना होनेकी खैर मानती है...और अब तुझे कुछभी सलाह मशवेरा देनेका अधिकार मुझे नही है...

वो ज़माने बीत गए जब माँ अपनी औलाद्को चंद मामलोंमे अच्छा बुरा बता सकती थी....हाँ, हैं, आजभी ऐसी खुशकिस्मत माएँ, जिनके पास बेटियाँ जाती हैं, जब दुनियासे कुछ पल अपने माँ के आँचल में पनाह चाहती हैं......
तेरे ब्याह्के बादका एकभी दिन मुझे याद नही, जब तूने खुलके मुझे गले लगाया हो.....या लगाने दिया हो....

और जब तू चाहती थी, तेरे लड़कपन के दिनोंमे ...हर रात सोनेसे पूर्व तू ज़िद करके मेरे गले लगने आती...और चाहती कि मै तेरे दोनों गाल चूम लूँ...मै चूमभी लेती...लेकिन अन्य परिवारकी निगाहेँ मुझपे टिकी रहतीं.....जैसे मै कोई बड़ा अपराध करने जा रही हूँ...लड़कियोंको इतना ज़्यादा अपनेसे चिपकाके रखना नही चाहिए...ये बात मेरे ज़ेहेन्मे दबे सुरमे सुनायी देती ...एक अपराध बोध के तले मै झट तुझसे दूर हो जाती...मेरे ससुरालमे तू तीसरी कन्या थी....

"तुम तो ऐसे बर्ताव करती हो,कि, दुनियाकी पहली माँ हो,"...ये अल्फाज़ अनंत बार मैंने सुने...कभी कहनेका साहस नही हुआ, कि, कह दूँ, मै दुनियाकी पहली माँ ना सही, मै तो इस दुनियामे पहली बार माँ बनी हूँ....क्या यही काफी नही था,कि, मै तेरा जन्म एक उत्सव के तरह मना पाऊँ?उत्सव की परिभाषा भी कितनी-सी? तुझे हँस खेल नेहला लूँ....चंद पल तेरे साथ कुछ छोटे खेल खेलके बिताऊँ.........देख रही थी,कि, समय कितना तेज़ीसे फिसलता जा रहा है...पर... .इसी "पर" पे आके रुक जाना पड़ जाता.....

मेरे बच्चे...मै अपनेआपको कितना असहाय महसूस करती कि क्या बताऊँ.....? उस अपराधबोध को बिसराने...उस असहायताको भुलाने, मै ना जाने और कितने कलात्मक कामोंमे लगा लेती अपनेआपको.....लेकिन वो पर्याय तो नही था...

मेरे पीहरमे तेरे जनमका उत्सव ज़रूर मना...तू मेरे दादा-दादा-दादीकी पहली परपोती थी...सबसे अधिक प्यार तुझे मेरे नैहरमे मिला...मै उसके लिए जिंदगीसे शुक्रगुजार हूँ...मेरी दादी तुझपे वारी न्यारी जाती.....तेरी नानी, तेरी हर कठिन बीमारीमे दौडी चली आती....

लेकिन क्या उस प्यारने तुझे कहीँ ऐसा महसूस करा दिया कि, उसके बदले तुझसे उम्मीदें रखी जाएँगी? लाडली ऐसा कुछभी नही था...लेकिन, तेरी मनोदशा पिछले चंद सालोंसे कुछ अजीब-सी बनाती चली गयी...एक विद्रोही...मै नही तो और कौन समझेगा, तुझे मिले सदमोंका असर? लेकिन मैभी अपनी मर्यादायों को समझती थी.....चक्कीके दो पाटोंमे तूभी पीसी मैभी पीसी....

जो अल्फाज़ मेरे कानोंने सुने, जो एक तेज़ाब की तरह मेरे कनोंमे उतरे और दिल जलाके पैवस्त हो गए....." माँ ! तुमने पैदा होतेही मेरा गला क्यों ना घोंट दिया.....मैंने नही कहा था, मुझे इस दुनियामे लाओ..."

तुझे गले लगानेकी कोशिश की, लेकिन तूने एक झटके से मुझे परे कर दिया, अपनी पलकोंपे आँसू तोलती मै कमरेके बाहर जाने लगी तो तूने खींचके फिर बुलाया," नही जाने दूँगी बाहर ...मेरी बात सुनके जाओ...जवाब देके जाओ....

"बेटे इस वक़्त मुझे माफ़ कर ..तेरी गुनहगार तो हूँ, लेकिन इतनी नही कि, अपनी सबसे प्यारी, फूल-सी नाज़ुक-सी नन्हीका गला घोट दती...? उसके पहेले मै ना मर जाती? तेरी एक हलकी-सी चुलबुला हट से मेरे सीनेमे दूध उतर आता....तू कुछ दूरीपे होती और तेरी आवाज़, जिसमे भूख होती, मेरे सीनेमे दूध उतार देती.........एक अविरल धारा जो तेरे होटोको छूती और मुझे तृप्त कर जाती....क्या ये माँ और उसकी औलाद्का कुदरत ने बनाया एक अटूट ,विलक्षण बंधन नही?"

मै इतना लम्बा तो नही बोल पाई...."बस, मुझे एकबार माफ़ कर ...." इतनेही अल्फाज़ बडीही मुश्किलसे कह पायी...लेकिन बरसों दबी एक विलक्षण अभिमान और खुशीकी याद, एक टीस बनके सीनेमे उभर आयी......
वो यादगार मुझे मेरी दादी तथा दादाने सुनायी थी...

मेरे जनमकी जब उन्हें डाकिये ने ख़बर दी...( मेरा जन्म मेरे नानिहालमे हुआ था), तो उस ज़मानेमे, तकरीबन अर्धशतक से अधिक पहेले, सेहेरपे निकले मेरे दादा-दादीने डाकिये को २५ रुपये थमाए...उसकी प्रतिक्रया हुई," समझ गया ...आपको पोता हुआ...."

मेरे दादा बोले," अरे पागल, तू क्या समझेगा कि हम एक लड़कीके लिए कितना तरस रहे थे...इसका जोभी नाम रखा जाएगा, उसके पहेले "लक्ष्मी " ज़रूर जुडेगा ...ये तो पैदाभी लक्ष्मी पू़जन के दिन हुई है...और वो नाम जुडाभी...

वो बात मुझे उस वक़्त ऐसे शिद्दत से याद आ गयी...लगा गर , मेरे जनम के दिन मेरी माता मेरा गला घोंट देतीं , तो मुझे ये अल्फाज़ तो सुनने नही पड़ते...और ग़म तो इस बातकाभी नही था...वो महिला दिवस था..उसके ठीक एक साल पहेले एक समारोहमे मैंने एक बडीही फूर्तीली कविता, तभी तभी रचके सुनाई थी...

आज लगा, कहीँ किसी दूसरी दुनियासे , मेरे दादा-दादी, गर अपनी इतनी लाडली पोतीको, अपनीही निहायत लाडली परपोतीके मुहसे निकले या अल्फाज़ सुन रहे होंगे, तो उनके कलेजे ज़रूर फट गए होंगे.....ये कैसी विडम्बना की मेरी जिन्दगीने मेरे साथ....पर जैसे मै अपनी फूलसी बेटीका गला घोंटना क्या, उसपे गर्दन पे बैठी, मख्ही भी बर्दाश्त नही कर सकती, तो क्या मेरी माँ, ऐसा ज़ालिम काम कर सकती ?

ना जाने ये कथा किसकी और व्यथा कौन भुगत रहा...नही पताके उसके कहे इन अल्फाजोंकी गूँज कितने दिन मेरे कानोंमे गूँजती रहेगी...ना जाने मेरी बिटिया,तू इन्हें भुलायेगी, या इसी शिकायत के साथ ताउम्र तड़पेगी?और शिकायतों में कमी नही, इज़ाफा करती रहेगी? ना, मेरे बच्चे ,मत तड़प तू इतना...तेरी माँ इतनीभी गुनेहगार नही...हालातकी मारी सही....
मै क्या करूँ,कि, तू चैन पाये....?अपनी दुनियाँ तुझपे वार देनेके लिए तैयार हूँ...तू गर स्वीकारे.....गर तुझे वो चैन दे...
बता मेरे बच्चे, मेरे सपनेमे आके बता, के सामने तो तू नही बताएगी...के मै क्या करूँ? मै ऐसे बोझको लेके कैसे शांतीसे मर पाऊँगी?

क्या अबके मिलेगी तो बिछड़ने से पहले एकबार मुझे कसके गला लेगी?"

क्रमश:

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