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Sunday, May 10, 2009

दिन एक माँ के लिए...! २

" बिटिया...तुझसे रोज़ एक मूक-सा सँवाद करती रहती हूँ...ये पहली बार नही ,कि, इसके बारेमे मैंने बताया हो...पर तूने नही सुना....दुनियाने सुना पर तेरे कानोंतक नही पोहोंचा...या पोहोंचाभी, तो उसमेके भाव तेरे दिलतक नही उतरे...

मुझे हर माँ ने बताया,कि, जबतक एक औरत माँ नही बनती, वो अपनी माँ के दिलके भाव नही समझ सकती... तू माँ नही बनना चाहती...शायद तेरे बचपनके एहसास हैं, या कि अन्य अनुभव, तुझे बच्चों से मानो चिढ-सी है...ना वो ज़िम्मेदारी तुझे चाहिए, नाही उसके साथ आनेवाले बंधन...जबभी घरमे बच्चे आते हैं...और उस वक़्त तू वहाँ मौजूद होती है...चाहे वो किसीकाभी घर क्यों न हो, तू अपने बच्चे ना होनेकी खैर मानती है...और अब तुझे कुछभी सलाह मशवेरा देनेका अधिकार मुझे नही है...

वो ज़माने बीत गए जब माँ अपनी औलाद्को चंद मामलोंमे अच्छा बुरा बता सकती थी....हाँ, हैं, आजभी ऐसी खुशकिस्मत माएँ, जिनके पास बेटियाँ जाती हैं, जब दुनियासे कुछ पल अपने माँ के आँचल में पनाह चाहती हैं......
तेरे ब्याह्के बादका एकभी दिन मुझे याद नही, जब तूने खुलके मुझे गले लगाया हो.....या लगाने दिया हो....

और जब तू चाहती थी, तेरे लड़कपन के दिनोंमे ...हर रात सोनेसे पूर्व तू ज़िद करके मेरे गले लगने आती...और चाहती कि मै तेरे दोनों गाल चूम लूँ...मै चूमभी लेती...लेकिन अन्य परिवारकी निगाहेँ मुझपे टिकी रहतीं.....जैसे मै कोई बड़ा अपराध करने जा रही हूँ...लड़कियोंको इतना ज़्यादा अपनेसे चिपकाके रखना नही चाहिए...ये बात मेरे ज़ेहेन्मे दबे सुरमे सुनायी देती ...एक अपराध बोध के तले मै झट तुझसे दूर हो जाती...मेरे ससुरालमे तू तीसरी कन्या थी....

"तुम तो ऐसे बर्ताव करती हो,कि, दुनियाकी पहली माँ हो,"...ये अल्फाज़ अनंत बार मैंने सुने...कभी कहनेका साहस नही हुआ, कि, कह दूँ, मै दुनियाकी पहली माँ ना सही, मै तो इस दुनियामे पहली बार माँ बनी हूँ....क्या यही काफी नही था,कि, मै तेरा जन्म एक उत्सव के तरह मना पाऊँ?उत्सव की परिभाषा भी कितनी-सी? तुझे हँस खेल नेहला लूँ....चंद पल तेरे साथ कुछ छोटे खेल खेलके बिताऊँ.........देख रही थी,कि, समय कितना तेज़ीसे फिसलता जा रहा है...पर... .इसी "पर" पे आके रुक जाना पड़ जाता.....

मेरे बच्चे...मै अपनेआपको कितना असहाय महसूस करती कि क्या बताऊँ.....? उस अपराधबोध को बिसराने...उस असहायताको भुलाने, मै ना जाने और कितने कलात्मक कामोंमे लगा लेती अपनेआपको.....लेकिन वो पर्याय तो नही था...

मेरे पीहरमे तेरे जनमका उत्सव ज़रूर मना...तू मेरे दादा-दादा-दादीकी पहली परपोती थी...सबसे अधिक प्यार तुझे मेरे नैहरमे मिला...मै उसके लिए जिंदगीसे शुक्रगुजार हूँ...मेरी दादी तुझपे वारी न्यारी जाती.....तेरी नानी, तेरी हर कठिन बीमारीमे दौडी चली आती....

लेकिन क्या उस प्यारने तुझे कहीँ ऐसा महसूस करा दिया कि, उसके बदले तुझसे उम्मीदें रखी जाएँगी? लाडली ऐसा कुछभी नही था...लेकिन, तेरी मनोदशा पिछले चंद सालोंसे कुछ अजीब-सी बनाती चली गयी...एक विद्रोही...मै नही तो और कौन समझेगा, तुझे मिले सदमोंका असर? लेकिन मैभी अपनी मर्यादायों को समझती थी.....चक्कीके दो पाटोंमे तूभी पीसी मैभी पीसी....

जो अल्फाज़ मेरे कानोंने सुने, जो एक तेज़ाब की तरह मेरे कनोंमे उतरे और दिल जलाके पैवस्त हो गए....." माँ ! तुमने पैदा होतेही मेरा गला क्यों ना घोंट दिया.....मैंने नही कहा था, मुझे इस दुनियामे लाओ..."

तुझे गले लगानेकी कोशिश की, लेकिन तूने एक झटके से मुझे परे कर दिया, अपनी पलकोंपे आँसू तोलती मै कमरेके बाहर जाने लगी तो तूने खींचके फिर बुलाया," नही जाने दूँगी बाहर ...मेरी बात सुनके जाओ...जवाब देके जाओ....

"बेटे इस वक़्त मुझे माफ़ कर ..तेरी गुनहगार तो हूँ, लेकिन इतनी नही कि, अपनी सबसे प्यारी, फूल-सी नाज़ुक-सी नन्हीका गला घोट दती...? उसके पहेले मै ना मर जाती? तेरी एक हलकी-सी चुलबुला हट से मेरे सीनेमे दूध उतर आता....तू कुछ दूरीपे होती और तेरी आवाज़, जिसमे भूख होती, मेरे सीनेमे दूध उतार देती.........एक अविरल धारा जो तेरे होटोको छूती और मुझे तृप्त कर जाती....क्या ये माँ और उसकी औलाद्का कुदरत ने बनाया एक अटूट ,विलक्षण बंधन नही?"

मै इतना लम्बा तो नही बोल पाई...."बस, मुझे एकबार माफ़ कर ...." इतनेही अल्फाज़ बडीही मुश्किलसे कह पायी...लेकिन बरसों दबी एक विलक्षण अभिमान और खुशीकी याद, एक टीस बनके सीनेमे उभर आयी......
वो यादगार मुझे मेरी दादी तथा दादाने सुनायी थी...

मेरे जनमकी जब उन्हें डाकिये ने ख़बर दी...( मेरा जन्म मेरे नानिहालमे हुआ था), तो उस ज़मानेमे, तकरीबन अर्धशतक से अधिक पहेले, सेहेरपे निकले मेरे दादा-दादीने डाकिये को २५ रुपये थमाए...उसकी प्रतिक्रया हुई," समझ गया ...आपको पोता हुआ...."

मेरे दादा बोले," अरे पागल, तू क्या समझेगा कि हम एक लड़कीके लिए कितना तरस रहे थे...इसका जोभी नाम रखा जाएगा, उसके पहेले "लक्ष्मी " ज़रूर जुडेगा ...ये तो पैदाभी लक्ष्मी पू़जन के दिन हुई है...और वो नाम जुडाभी...

वो बात मुझे उस वक़्त ऐसे शिद्दत से याद आ गयी...लगा गर , मेरे जनम के दिन मेरी माता मेरा गला घोंट देतीं , तो मुझे ये अल्फाज़ तो सुनने नही पड़ते...और ग़म तो इस बातकाभी नही था...वो महिला दिवस था..उसके ठीक एक साल पहेले एक समारोहमे मैंने एक बडीही फूर्तीली कविता, तभी तभी रचके सुनाई थी...

आज लगा, कहीँ किसी दूसरी दुनियासे , मेरे दादा-दादी, गर अपनी इतनी लाडली पोतीको, अपनीही निहायत लाडली परपोतीके मुहसे निकले या अल्फाज़ सुन रहे होंगे, तो उनके कलेजे ज़रूर फट गए होंगे.....ये कैसी विडम्बना की मेरी जिन्दगीने मेरे साथ....पर जैसे मै अपनी फूलसी बेटीका गला घोंटना क्या, उसपे गर्दन पे बैठी, मख्ही भी बर्दाश्त नही कर सकती, तो क्या मेरी माँ, ऐसा ज़ालिम काम कर सकती ?

ना जाने ये कथा किसकी और व्यथा कौन भुगत रहा...नही पताके उसके कहे इन अल्फाजोंकी गूँज कितने दिन मेरे कानोंमे गूँजती रहेगी...ना जाने मेरी बिटिया,तू इन्हें भुलायेगी, या इसी शिकायत के साथ ताउम्र तड़पेगी?और शिकायतों में कमी नही, इज़ाफा करती रहेगी? ना, मेरे बच्चे ,मत तड़प तू इतना...तेरी माँ इतनीभी गुनेहगार नही...हालातकी मारी सही....
मै क्या करूँ,कि, तू चैन पाये....?अपनी दुनियाँ तुझपे वार देनेके लिए तैयार हूँ...तू गर स्वीकारे.....गर तुझे वो चैन दे...
बता मेरे बच्चे, मेरे सपनेमे आके बता, के सामने तो तू नही बताएगी...के मै क्या करूँ? मै ऐसे बोझको लेके कैसे शांतीसे मर पाऊँगी?

क्या अबके मिलेगी तो बिछड़ने से पहले एकबार मुझे कसके गला लेगी?"

क्रमश:

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