Friday, December 18, 2009

जा, उड़ जारे पंछी ! (२)

एक माँ का, अपनी दूर रहनेवाली बेटीसे, मूक संभाषण.....

मेरी लाडली, तुझे पता है तेरा मुझे दिया सबसे बेहतरीन तोहफा कौनसा है, जो मै कभी नही भूल सकती? तुझे कैसे याद होगा? तू सिर्फ़ ३ वर्षकी तो थी। बस कुछ दिन पहलेही स्कूल जाना शुरू हुआ था तेरा। एक दिन स्कूलसे फोन आया के स्कूल बस तुझे लिए बिना निकल गयी है। मै भागी दौड़ी स्कूल पोहोंची। स्कूलके दफ्तर मे तुझे बिठाया गया था। सहमा हुआ -सा चेहरा था तेरा। मैंने तुझे अपने पास लिया तो तेरे गालपे एक आँसू अटका दिखा। मैंने धीरेसे उसे पोंछा तब तूने मुझसे कहा," माँ! मुझे लगा तुम्हे आनेमे अगर देर हो गयी तो मै क्या करुँगी? तब पता नही कहाँ से ये बूँद मेरे गालपे आ गयी?"
जानती है, आज मुझे लगता है, काश! मै उस बूँद को मोती बनाके एक डिबियामे रख सकती! तूने मुझे दिया सबसे पेशकीमती तोहफा था वो!!सहमेसे,भोले, मासूम गालपे बह निकली एक बूँद!
क्या याद करूँ क्या न करूँ??तेरा दसवीं का साल, फिर बारवीं का साल। तुझे हर क़िस्म की किताबें पढ़नेका बेहद शौक़ था/है। साहित्य/वांग्मय मे बोहोत रुची थी तुझे और समझभी। उसीतरह पर्यावरण के बारेमेभी तू बड़ी सतर्क रहती और उसमे रुची तो थीही। वास्तुशात्र भी पसंदका विषय था। हमें लगा, वास्तुशास्त्र करते हुए तू पहले दो विषयोंपे ज़रूर ध्यान दे सकेगी, लेकिन साहित्य करते,करते वास्तुशात्र नही मुमकिन था। अंतमे बारवीं के बाद तूने वास्तुशास्त्र की पढाई शुरू कर दी.....
वास्तुशास्त्र के तीसरे सालमे तू थी और तभी तेरा और राघव का परिचय हुआ। उसके पहले मै मनोमन तेरी किसकिस से जोड़ी जमाती रहती, गर तू सुनले तो बड़ा मज़ा आएगा तुझे!
तू और राघव एक दूजेके बारेमे संजीदा हो ये सुनके मुझे असीम खुशी हुई। अव्वल तो मै समझी के राघव अपनेही शेहेर का लड़का है...फिर पता चला की उसके माता-पिता बंगलौर मे रहते हैं और राघव छात्रावास मे रहके इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। हल्की-सी कसक हुई दिलमे...... लेकिन वो कसक चंद पलही रही.....

मै बोहोत उत्साहित थी। उसमे मुझे मेरी दादीका मिज़ाज मिला था! ना जाने कबसे उन्हों ने अपनी पोतीओं के लिए तरह तरह की चीज़ें बनाना तथा इकट्ठी करना शुरू कर दिया था!! वही मैंने तेरे लिए शुरू कर दिया!! अपने हाथों से चादरे बनाना, किस्म-किस्म के कुशन कवर्स सीना,patchwork करना , अप्लीक करना ,कढाई करना और ना जाने क्या,क्या!
खूबसूरत तौलिये इकट्ठे किए, परदे सिये, अपनी सारी कलात्मकता ध्यान मे रख के वोलपीसेस बनाये,सुंदर-सुंदर दरियाँ इकट्ठी कर ली........ हाथके बुने lampshades ,सिरामिक और पीतल तथा ताम्बे के फूलदान......कितनी फेहरिस्त बताऊँ अब!!
दादी-परदादीके ज़मानेकी सब लेसेस, किनारे,कढाई किए हुए पुर्जे, पुराने दुपट्टे, जिनपे खालिस सोनेसे कढाई की गयी थी, जालीदार कुर्तियाँ.....इन सबका इस्तेमाल करके मै तेरे लिए चोलियाँ सीनेवाली थी!! सबसे अलग, सबसे जुदा!!
३/४ बक्से ले आयी, उनमे नीचे प्लास्टिक बिछाया, हरेक चीज़की अलग पोटलियाँ बनी, प्लास्टिक के ऊपर नेप्थलीन balls डाले गए, और ये सब रखा गया। बस अब तेरी पढाई ख़त्म होनेका इन्तेज़ार था मुझे! नौकरी तो तुझे मिलनीही थी!!सपनों की दुनियामे मै उड़ने लगी......

और एक दिन पता चला के राघव आगेकी पढाई के लिए अमरीका जानेवाला है और तूभी आगेकी पढाई वहीँ करेगी और फिर नौकरीभी वहींपे......मेरे हर सपनेपे पानी फिर गया....आगेकी पढ़ईके लिए पहले राघव और एक सालके बाद तू,इसतरह दोनों चले गए....हम पती- पत्नीकी तरह वो बक्से भी बंजारों की भांती गाँव-गाँव, शेहेर-शेहेर घुमते रहे......

सालभर के बाद तू कुछ दिनोके लिए भारत आयी। हम सब तेरे भावी ससुराल, बंगलोर, हो आए। शादीकी तारीख तय करनेकी भरसक कोशिश की पर योग नही हुआ......

अमरीका जानेके पहलेसेही मुझे तेरे मिज़ाजमे कुछ बदलाव महसूस हुआ था। तू जल्दी-से छोटी-छोटी बातों पे चिड ने लगी थी...... तेरी सहनशक्ती कम हो गयी थी। मै गौर कर रही थी पर कुछ कर नही पा रही थी .......क्या इसकी वजह मेरी बिगड़ती हुई सहेत थी? तेरे दूर जानेके खायालसे दिमाग मे भरा नैराश्य था? जोभी हो, तू आयी और और उतनीही तेजीसे वापसभी लौट गयी। दोस्त-सहेलियाँ, खरीदारी,इन सबमेसे मेरे लिए तेरे पास समय बचाही नही। पहलेकी तरह हम दोनोमे कोई अन्तरंग बातें या गपशप होही नही पाई।
क्रमशः

3 टिप्पणियाँ:

vipinkizindagi said...

बहुत प्यारा। सुन्दर।

डा० अमर कुमार said...

बड़ा सिलसिलेवार लिखा है...कैसे एक एक छोटी बात भी सहेज कर
रख छोड़ी थी ? जैसे आज के लिये ही !

Udan Tashtari said...

बच्चे ऐसे ही बड़े हो जाते है...हम उनसे वही पुरानी उम्मीदें लिए बैठे रहते हैं. अच्छा लिख रहीं हैं, जारी रहिये.,

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Tuesday, December 15, 2009

जा, उड़ जारे पंछी १)(एक माँ का अपनी दूर रहनेवाली बिटिया से किया मूक sambhashan


याद आ रही है वो संध्या ,जब तेरे पिताने उस शाम गोल्फ से लौटके मुझसे कहा,"मानवी जनवरी के९ तारीख को न्यू जर्सी मे राघव के साथ ब्याह कर ले रही है। उसका फ़ोन आया, जब मै गोल्फ खेल रहा था।"
मै पागलों की भाँती इनकी शक्ल देखती रह गयी! और फिर इनका चेहरा सामने होकरभी गायब-सा हो गया....मन झूलेकी तरह आगे-पीछे हिंदोले लेने लगा। कानोंमे शब्द गूँजे,"मै माँ को लेके कहाँ जानेवाली हूँ?"
तू दो सालकीभी नही थी तब लेकिन जब भी तुझे अंदेसा होता था की मै कहीं बाहर जानेकी तैय्यारीमे हूँ, तब तेरा यही सवाल होता था! तुने कभी नही पूछा," माँ, तुम मुझे लेके कहाँ जानेवाली हो?" माँ तुझे साथ लिए बिना ना चली जाय, इस बातको कहनेका ये तेरा तरीका हुआ करता था! कहीं तू पीछे ना छोडी जाय, इस डरको शब्दांकित तू हरवक्त ऐसेही किया करती।
सन २००३, नवेम्बर की वो शाम । अपनी लाडली की शादीमे जानेकी अपनी कोईभी संभावना नही है, ये मेरे मनमे अचनाकसे उजागर हुआ। "बाबुल की दुआएं लेती जा..." इस गीतकी पार्श्व भूमीपे तेरी बिदाई मै करनेवाली थी। मुझे मालूम था, तू नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रो लेनेवाली थी.....
मुझे याद नही, दो घंटे बीते या तीन, पर एकदमसे मै फूट-फूटके रोने लगी। फिर किसी धुंद मे समाके दिन बीतने लगे। किसी चीज़ मे मुझे दिलचस्पी नही रही। यंत्र की भाँती मै अपनी दिनचर्या निभाती। ८ जनवरी के मध्यरात्री मे मेरी आँख बिना किसी आवाज़ के खुल गयी। घडीपे नज़र पडी और मेरे दोनों हाथ आशीष के लिए उठ गए। शायद इसी पल तेरा ब्याह हो रहा हो!!आँखों मे अश्रुओने भीड़ कर दी.......

तेरे जन्मसेही तेरी भावी ज़िंदगीके बारेमे कितने ख्वाब सँजोए थे मैंने!!कितनी मुश्किलों के बाद तू मुझे हासिल हुई थी,मेरी लाडली! मै इसे नृत्य-गायन ज़रूर सिखाऊँगी, हमेशा सोचा करती। ये मेरी अतृप्त इच्छा थी! तू अपने पैरोंपे खडी रहेगीही रहेगी। जिस क्षेत्र मे तू चाहेगी , उसी का चयन तुझे करने दूँगी। मेरी ससुरालमे ऐसा चलन नही था। बंदिशें थी, पर मै तेरे साथ जमके खडी रहनेवाली थी। मानसिक और आर्थिक स्वतन्त्रता ये दोनों जीवन के अंग मुझे बेहद ज़रूरी लगते थे, लगते हैं।

छोटे, छोटे बोल बोलते-सुनते, न जाने कब हम दोनोंके बीच एक संवाद शुरू हो गया। याद है मुझे, जब मैंने नौकरी शुरू की तो, मेरी पीछे तू मेरी कोई साडी अपने सीनेसे चिपकाए घरमे घूमती तथा मेरी घरमे पैर रखतेही उसे फेंक देती!!तेरी प्यारी मासी जो उस समय मुंबई मे पढ़ती थी, वो तेरे साथ होती,फिरभी, मेरी साडी तुझसे चिपकी रहती!
तू जब भी बीमार पड़ती मेरी नींदे उड़ जाती। पल-पल मुझे डर लगता कि कहीँ तुझे किसीकी नज़र न लग जाए...

तू दो सालकी भी नही हुई थी के तेरे छोटे भी का दुनियामे आगमन हुआ। याद है तुझे, हम दोनोंके बीछ रोज़ कुछ न कुछ मज़ेकी बात हुआ करती? तू ३ सालकी हुई और तेरी स्कूल शुरू हुई। मुम्बई की नर्सरीमे एक वर्ष बिताया तूने। तेरे पिताके एक के बाद एक तबादलों का सिलसिला जारीही रहा। बदलते शहरों के साथ पाठशालाएँ बदलती रही। अपनी उम्रसे बोहोत संजीदा, तेज़ दिमाग और बातूनी बच्ची थी तू। कालांतर से , मुझे ख़ुद पता नही चला,कब, तू शांत और एकान्तप्रिय होती चली गयी। बेहद सयानी बन गई। मुझे समझाही नही या समझमे आता गया पर मै अपने हालत की वजहसे कुछ कर न सकी। आज मुझे इस बातका बेहद अफ़सोस है। क्या तू, मेरी लाडली, अल्हड़तासे अपना बचपन, अपनी जवानी जी पायी?? नही न??मेरी बच्ची, मुझे इस बातका रह-रहके खेद होता है। मै तेरे वो दिन कैसे लौटाऊ ??मेरी अपनी ज़िंदगी तारपरकी कसरत थी। उसे निभानेमे तेरी मुझे पलपल मदद हुई। मैही नादान, जो ना समझी। बिटिया, मुझे अब तो बता, क्या इसी कारन तुझे एकाकी, असुरक्षित महसूस होता रहा??
जबसे मै कमाने लगी, चाहे वो पाक कलाके वर्ग हों, चाहे अपनी कला हो या जोभी ज़रिया रहा,मिला, मैंने तिनका, तिनका जोड़ बचत की। तुम बच्चों की भावी ज़िंदगी के लिए, तुम्हारी पढ़ाई के लिए, किसी तरह तुम्हारी आनेवाली ज़िंदगी आर्थिक तौरसे सुरक्षित हो इसलिए। ज़रूरी पढ़ाई की संधी हाथसे निकल न जाय इसकारण । तुम्हारा भविष्य बनानेकी अथक कोशिशमे मैंने तुम्हारे, ख़ास कर तेरे, वर्तमान को दुर्लक्षित तो नही किया?
ज़िंदगी के इस मोड़ से मुडके देखती हूँ तो अपराध बोधसे अस्वस्थ हो जाती हूँ। क्या यहीँ मेरी गलती हुई? क्या तू मुझे माफ़ कर सकेगी? पलकोंमे मेरी बूँदें भर आती हैं, जब मुझे तेरा वो नन्हा-सा चेहरा याद आता है। वो मासूमियत, जो संजीदगीमे न जानूँ कब तबदील हो गयी....!
अपने तनहा लम्होंमे जब तू याद आती है, तो दिल करता है, अभी उसी वक्त काश तुझे अपनी बाहोँ मे लेके अपने दिलकी भडास निकाल दूँ!!निकाल सकूँ!!मेरी बाहें, मेरा आँचल इतना लंबा कहाँ, जो सात समंदर पार पोहोंच पाये??ना मेरी सेहत ऐसी के तेरे पास उड़के चली आयूँ!!नाही आर्थिक हालात!!अंधेरी रातोंमे अपना सिरहाना भिगोती हूँ। जब सुबह होती है, तो घरमे झाँकती किरनों मे मुझे उजाला नज़र नही आता....जहाँ तेरा मुखडा नही, वो घर मुझे मेरा नही लगता...गर तू स्वीकार करे तो अपनी दुनियाँ तुझपे वार दूँ मेरी लाडली!
क्रमशः

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Sunday, July 26, 2009

जिन्हें नाज़ है हिंद्पे...!

कहाँ हैं ? कहाँ हैं? कहाँ हैं ? जिन्हें नाज़ है,हिंद्पे वो कहाँ हैं॥?

पहले भी, ये आवाज़ उठा चुकी हूँ...फिर उठा रही हूँ...वजह ? चंद रोज़ पूर्व, एक अत्यन्त विशवसनीय NGO ने मुंबई में सुरक्षा के तहत, ५,००० कैमरे लगा देनेका प्रस्ताव सरकार को दिया...CM, deputy CM, आदि सभी उस मीटिंग में मौजूद थे...प्रस्ताव स्वीकार हो गया...इसमे कोई दो राय नही थी,कि, ये इस समय की दरकार है...एक सेवा में अवकाश प्राप्त पुलिस अधिकारी , ने बड़ी शिद्दत के साथ ये मीटिंग रखवाई थी...
और सुने, मीटिंग के दो रोज़ बाद ,चंद्रा ऐय्यंगार नामक, आईएस, अफसर ने,( सेक्रेटरी to the govt ऑफ़ इंडिया, जिसके तहत पुलिस मह्कमा आता है,) प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा ," सरकार तो पहलेही इस काम में जुटी है...किसी NGO को इस कामके खातिर धनराशी देनी हो to दें...!"

वाह ! मरने दो जनता को..मरने दो सुरक्षा कर्मियों को...IAS के अफ़सर,जो पुलिस के उपरसे हटना नही चाहते, जिन्हें ज़मीनी हक़ीक़त से कोई लेन देन नही...ना वाबस्ता होना चाहते हैं, उन्हों ने एक पलमे सारा प्रस्ताव रफ़ा दफ़ा कर दिया...! जबकि, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई में, ऐसे किसी काम में जुटी नही है...! अपने अधिकार बनाये रखने के ख़ातिर, किस क़दर स्वार्थी हो सकते हैं लोग ?

कोई पूछे इनसे, ये जो, पोस्टिंग्स पे तामील करते हैं,कि, २६/११/२००८ के बाद से तक़रीबन ८ माह , ATS के प्रमुख की पोस्ट रिक्त क्यों रही? क्या इस पोस्ट को पढने वाले पाठक अपनी आवाज़ उठा सकते हैं? पाकिस्तान को क्या कहें? जब हमारे ही तथा कथित 'ज़िम्मेदार' अफ़सर अपने 'ऐसे ऐतिहासिक निर्णयों' से उस देशकी सहायता में जुटे हों तो?

अब आलेख जारी है:

पीडामे डूबी ललकार सुनाना चाहती हूँ...एक आवाहन है.....अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!

एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!

अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे डाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !

अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?

कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"

मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।

गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री। धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नॅशनल पोलिस कमिशन के तेहेत, कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शस्त्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती !
२/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-।भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे...

यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके ज़िम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नाही बच्चोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा।

कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?

मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!

सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!

इन में से कई लोगों का हमारे घर, एक परिवार की तरह आना जाना लगा रहा करता... एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।

रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...

सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??

मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मारे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रिय जनों को दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....

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Friday, July 24, 2009

दिवाली से पहले..दिए...!..!

Appliqued lamps or "Diya"s




http://chindichindi-thelightbyalonelypath.blogspot.कॉम

इस ब्लॉग पे अनेक तस्वीरें मौजूद हैं..अनेक बटुए, bags तथा pouches, जिनमे, हर तरह के तोहपे रख के दिए जा सकते हैं...जैसे, किताबें, मिठाई, साडी, या अन्य पेहराव, ज़ेवर, आदि,आदि....आईये..हम सब मिलके कागज़ बचने का प्राण करें...तथा प्लास्टिक का इस्तेमा टालें..ऐसी थैलियाँ.., अपने खाली समय में सालभर हम बना सकते हैं...बल्कि,तोहफे के तौर पे इन bags को भी दिया जा सकता है..!
और सिर्फ़ दिवाली नही..हरेक अवसर के लिए ऐसी थैलियाँ बन सकतीं हैं...शादी-ब्याह के लिए भी...!

घरमे सिलाई न करते हों, तो दर्ज़ी अपना कबाड़ जब फेंक देता है, वहाँ पोहोंच जाएँ......किसीभी दर्ज़ी के पास..हाँ, बादमे आपको छाँटना ज़रूर पड़ेगा..!

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Thursday, June 18, 2009

National Police commission...

At end of Emergency regime in 1977, the Government constituted the Second National Police Commission to suggest ways & means to make our Police force across the country a real Service; pro-people, free of the political stranglehold & accountable to the Law of the land & not to the politicians in power. It was a bitter lesson learnt by the Nation about the Police which was being governed by an archaic Act enacted by a foreign power ruling the country interested in perpetuating its own rule. Such a police force respected the Ruler only & not the people. PEOPLE did not matter. It was insensitive to the aspirations of a Nation & perceived as slave drivers. Governments in the Independent India did precious little to change that Act or amend suitably that law. The intent was clear & the consequences were for every one to see in their full glory during the Emergency.

The VICTIMS of these repercussions themselves ordered formation of the National Police Commission headed by late Dharma Vir, a retired officer of the elite Indian Civil Service; a bureaucrat of outstanding reputation. The Nation waited with hope for a positive out come which would ‘humanise’ the police & make it a friend of the people accountable to law & law alone freeing from the shackles of political interference.

The Commission to its credit did deliver. It produced a comprehensible document recommending sweeping police reforms along with the path forward suggested clearly. It was a report any commission in the world would be proud of.

The reforms suggested included secure tenure for police officers in executive posts guaranteeing freedom of operation to the police to work as per law. In any case the courts supervise the work of the police in our system. In the U K, the form of democracy that we decided to follow, this independence of police working is called Independence of Constabulary. This is the concept that endears the police to the people in that country. ‘Bobby’ is a respected institution & a role model for other forces in the democratic world.

Law in India is a state subject. Administration of police & maintenance of Law & Order is the domain of the State governments; the Centre, as per the Constitution, is not supposed to interfere.

(Note- Rizi, laws are enacted either by the Parliament or the State Legislature. As per the Constitution there are three lists of Laws: a) Central list listing laws concerning national subjects like Defense, Foreign Affairs, etc, b) State list like civic administration, Local self governments, Education, Law & Order, etc. Some subjects are common. There is a third list called Concurrent list. This list has some common subjects. Either the Center or the states can legislate on those laws but the laws made therein by the Center shall prevail. Also, a Parliamentary democracy function a lot by conventions in addition to laws, if there are no specific laws is available on the subject. This note I have added just as a background.)

Expectedly, no State government was keen to implement this vital police reforms on one ground or the other. Even the Central Government did not implement this reform in the Union Territories administered by the Center itself. All successive governments of different shades & colours steered clear of letting police to operate independently as per law. Instead of considering the police as the arm of the law, it was treated as the STRONG ARM of the party in power, always, by every government. They feel they will be helpless to tackle their governance if the Police were not under their total control. They want Police to be accountable (Read dependent) on their mercy exercised through the potent power of transfers & postings! An assured tenure system & an independent selection process would defeat this design.

The right thinking officers & some respected leaders of the force, present & retired, ably backed by Activist NGOs, kept on demanding vociferously this implementation. However, the people in power are made of sterner stuff! They would not let go!!

Ultimately, after a protected legal battle, the Apex Court directed the state and the central governments to implement this vital police reform in 2006. Despite that it has been ducked effectively so far. Actually, the Stares have asked for revision of this order on grounds of impracticability. The Babus controlling the Governments are past masters at producing powerful arguments to substantiate such claims.

Feeble attempts to take terrorism on gets attention when some people get killed, which is happening more frequently. However, it resumes its appointed place on the back benches soon & the magnanimous society tends to forget the trauma once again. Blame is apportioned for the failure to the police & the Intelligence agencies squarely. The punching bag awaits another round to be offered as the fodder! And the ones to be accounted for remain free to criticise the police & the famous “foreign” hand. And the water keeps flowing down the Ganges.

Less said the better about the living & working conditions of a police man. The training resources are pathetic. All reports suggesting reforms & improvements are accumulating dust in various government offices in every state in the country. Every government in the states is interested in transfers & postings of the officers. This is true not only of the police department but all other departments where the government ‘servants’ can “Service” the people! It is a well known secret and the weapon of transfers is used effectively to tame the non compliant ones!

And a society that can not hold the value it preaches individually & collectively violates them without batting an eyelid when it comes to self interest. Meanwhile, the Police machinery is expected to uphold these “Noble Values” in & for an increasingly valueless society.

WHO CARES?!

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Tuesday, June 16, 2009

माँ ! प्यारी माँ ! ६

"अम्मा ! आप कुछ देर बाहर गयीं हैं, तो मैंने आगे लिखने का मौक़ा हथिया लिया...! जानती हूँ, आपके घरमे रहते मै, नेट पे बैठ जाती हूँ, तो आपको बड़ा घुस्सा आता है...!

"कुछ रोज़ पूर्व, चंद अल्फाज़ लिखे थे....शायद हर बेटी को यही महसूस होता हो...या फिर जिन बेटियों को ये महसूस होता है, उनकी माँ उस क़ाबिल होती हो!

"मिलेगी कोई गोद यूँ,
जहाँ सर रख लूँ?
माँ! मै थक गयी हूँ!
कहाँ सर रख दूँ?

तीनो जहाँ ना चाहूँ..
रहूँ, तो रहूँ,
बन भिकारन रहूँ...
तेरीही गोद चाहूँ...

ना छुडाना हाथ यूँ,
तुझबिन क्या करुँ?
अभी एक क़दम भी
चल ना पायी हूँ !

दर बदर भटकी है तू,
मै खूब जानती हूँ,
तेरी भी खोयी राहेँ,
पर मेरी तो रहनुमा तू!

"अम्मा ! आपके इतिहास की पुनुराव्रुत्ती मेरे साथ हुई...हम दोनों ने जब कभी, किसी औरको सहारा देके उठाना चाहा, उसने हम ही को गिराया...वो उठा या नही, ये नही पता...लेकिन हम ज़रूर आहत हुए....बार, बार जीवन ने हमारे संग ये खेल खेला...आज तक नही समझ सकी, कि, दो समांतर रेषायों की भाँती हमारी ज़िंदगी कैसे चली??

"कैसे, कैसे दर्द समेटे हम दोनों चलते रहे...रहगुज़र करते रहे...?सिलसिला है,कि, थमता नही....दोनों के जीवन में बेशुमार ग़लत फेहमियाँ शामिल रहीं...एक से निपट लेते तो दूसरी हाज़िर...! ये कैसे इत्तेफ़ाक़ रहे?

"बोहोत कुछ लिखना चाह रही हूँ..लेकिन, सारी उम्र कम पड़ सकती है...और किस उम्र की बात करूँ?? आपकी अनगिनत यादें लिख चुकी हूँ...फिरभी लगता है, अभी तो कुछ नही कहा...! कुछ भी नही! ये समापन किश्त है, या और सफ़र बाक़ी है, मेरे लेखन का...आपके लिए...??गर होगा तो, उसे कुछ अन्य नाम दे दूँगी...शुक्र गुजार हूँ, अम्मा आपकी, के, मुझे ऐसे अनुभव आपके रहते मिले.....के ऐसी माँ मिली...आपसे होके जो राह गुज़री, उसमे शामिल हर ममता को नमन....हर ममता को सलाम !"

समाप्त ।

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Friday, June 5, 2009

माँ, प्यारी माँ! ४

" अम्मा ! आज जो ख़बर दी आपने, दिल एकबार फिरसे धक्-सा रह गया है...अम्मा अभी तो आपसे कितना कुछ कहना है...लिखना शुरू किया तभी, ऊपरवालेसे दुआ की थी, कि, आप मेरा लिखा पढ़ सकें, इतनी मोहलत तो मिले मुझे...

"आपका एक ख़त अपने सामने लिए बैठी हूँ...एक माँ ने अपनी बेटी को दिया प्रशस्ती पत्रक....बोहोत,बोहोत पहले मेरी बेटी ने मुझे, बडेही भोले भावोंसे, कुछ लिखके पकडाया था....मेरे लिए वो नायब tribute था....मैंने उस छोटेसे निबंध को उसकी teacher के पास पढनेके ख़ातिर दिया और मुझे वापस नही मिला...अब मैंने आपके इस खतको laminate करके रखा है...पहले तो उसकी प्रतियाँ निकाल लीं....

" आप लिखती है,'उस रोज़, मै ऐसेही फुरसत से सोचते बैठी थी...बरामदा खामोश था....कई ख़याल दिलकी राहोँ से से गुज़रते रहे.....और जाना कि, उनका रुख तुम्हारी ओर हुआ....मै अनायास तुम्हारी कई सारी बातें याद करती रही...
"याद आता रहा, कि, तुमने हम सभी के लिए कितना कुछ किया है...खुले,बड़े दिलसे, बदलेमे कोई अपेक्षा न रखते हुए.....खुशीसे ओतप्रोत होते हुए....एक सम्पूर्णता से बस निछावर ही निछावर करती गयीं....
चाहे वो मेरी अनगिनत बीमारियाँ हो, तुम्हारी छोटी बेहेनका ब्याह हो या, छोटे भाई का ब्याह हो...दादी अम्माकी सर्जरीस हों....या और कुछ....जोभी हो...और खुले दिल और हाथोंसे तुम सभी को देतीही देती गयीं....सिर्फ़ हमीं लोगों को नहीं...तुम्हारे संपर्क में आनेवाले हरेक को तुमने खुले दिलसे दिया ही दिया...अपना पराया, ये भेद किए बिना...जिसने जब माँगा, और वो युम्हारे पास था, उसे मिलही जाता...इतना निरपेक्ष?

"जब, फुरसत के लम्हात होते हैं, मै तुम्हारेही बारेमे सोचने लग जाती हूँ....तुम्हारे लिए दुआएँ करती रहती हूँ...ख़ास करके , सूनी-सी दोपहर में या रातको सोनेसे पूर्व...मनसे ढेरों दुआएँ निकलती हैं....

"तुम मेरी सबसे अधिक, ख़याल रखनेवाली, सबसे अधिक समझदार बेटी हो...सबसे अधिक ज़िम्मेदार......
ढेरों प्यार सहित
अम्मा' "

"अम्मा !...आपका ये ख़त मैंने ना जाने कितनी बार पढा..कितनी बार अपने सीनेसे लगाया...!आँसू से भिगोया....

"अम्मा! और लिखना बाकी है...इत्तेफ़ाक़ देखिये! अभी, अभी, लिखते,लिखते,एक गीत लताके सुरों में सुन रही थी...मानो अपना कलेजा उँडेल दिया उसमे लाताजी ने........अल्फाज़ कुछ इस तरह के थे,'
वो जो औरों की ख़ातिर जिए मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला? उन्हें क्या मिला?
जैसे बादल बरसता हुआ,
प्यास सबकी बुझाता हुआ,
जैसे चंदन सभीके लिए,
अपनी खुषबू लुटाता रहा...
वहीँ तुम, अपना जीवन लुटाती रहीं....

पर तुम्हें प्यार किसका मिला,
ख्वाब देखे हमारे लिए,
एक पलभी अगर सो गयीं,
तुम हो माँ सारे परिवार की,
सबकी फिकरों में तुम खो गयीं..

तुम ना ब्याही, ना मेहंदी रची,
और न माथेको टीका मिला '
वो जो औरोंके ख़ातिर जिए,मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला, क्या sssss मिला sssss?

" अम्मा ये ख़त पढ़ ,मेरी आँखों में कई बार आसूँ छलके..."
"खैर! आप ब्याही तो गयीं...और इसीलिये तो मेरी और मेरे भाई बेहेन की माँ बनी.....लेकिन इसके अलावा , हर वो क़ुरबानी दी ,जो इस गीत से बयाँ होती है....और उससे भी अधिक...

अभी तो कितनी बातें करनी हैं...कईं बातों की माफ़ी भी माँग लेनी है...
क्रमश:

1 comments:

gargi gupta said...

bhut hi bhavpurn
maan ko chhu gai aap
saama ji aap ki rachna ki baat hi alag hai

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Saturday, May 30, 2009

माँ, प्यारी माँ...!३

"अम्मा, आज बेहद थक गयी हूँ...फिरभी रायभान के बारेमे लिखनेका मोह टाल नही पा रही हूँ...
हाँ, वही क़िस्सा बयाँ करनेके खातिर आज लिखना शुरू किया....

पता नही क्यों,रायभान को बस्ती परके सारे बच्चे, क्यों हिक़ारत से देखते थे...उसके साथ बुरी तरहसे पेश आते थे...जैसे कि,वो बतख की कहानी...उन बतखों मे एक हँस था..जिसे सब कुरूप कहते थे....रायभान की माँ, हमारे घरमे काम करती थी....

"सब बच्चे हमारी घरकी सीढियों पे बैठ, कुछ खेल रहे थे...मै बगीचे से आयी और सीढीयाँ लाघते हुए, रायभानको एक लात मार दी...बेचारेने," अरे, हटता हूँ, हटता हूँ," कहा और हट गया...
अम्मा, आप सब देख रहीँ थीं...आपने अन्य बच्चों को एक तरफ़ बिठा दिया ...मुझे और रायभानको अपने सामने बुलाया...
"मुझसे बोलीं," इसके सामने कान पकडके १० बार उठक बैठक करो, और हर बार माफी माँगो...कहो,कि, ऐसी हरकत फिरसे कभी नही करोगी..!"
"बेचारा रायभान बडाही सकुचाया-सा एक कोनेमे खड़ा हो गया...
"आपके आगे मना करनेका तो सवालही नही था..जैसा आपने कहा वैसाही मैंने किया॥
उसके बाद आपने सब बच्चों को अपने,अपने घर भेज दिया...
मुझे अपने पास,प्यारसे लेके बैठीं और कहा," देखो बेटा, खुदाके आगे सब बच्चे एक जैसे होते हैं...और तुम्हें उसे लात मारके ख़ुशी मिली? तुमने हरकोई उसके साथ ऐसीही चाल चलता है ये देखा और वैसाही किया...हैना? '
"अम्मा, ये शत प्रतिशत सच था...मै खामोश बैठी रही...मेरी उम्र थी कुछ ३ सालकी...लेकिन मैंने ग़लत बात की है, ये मै खूब समझ गयी...

"उस रात मेरे गलेसे खाना उतरा नही..दादा पूछते रहे,कि, मै क्यों खाना नही खा रही...
आपने कहा," कोई बात नही गर एक रात नही खायेगी तो...उसने शामको दूध तो लेही लिया है...फलभी खाया है...नही खा पा रही,तो उसे सो जाने देते हैं।'

"दूसरे दिन सुबह हुई,तो मैंने अपनी माँ और पिताको घरसे नदारत पाया....दादी को पुकारने लगी...वो आ गयीं....
मैंने उनसे पूछा," अम्मा और बाबा कहाँ गए हैं? और वनुमासी,(रायभान की माँ,) क्यों नही आयी? आप क्यों नाश्ता बना रहीं हैं?"

दादीअम्मा ने कहा," तुम्हारे अम्मा -बाबा किसी वजहसे अस्पताल गए हैं...!"

बाबा तो कुछ देर बाद लौट आए...आप नही लौटी....
शाम हुई तो मैंने ज़िद की," दादी अम्मा मुझे बस्ती परके बच्चों के साथ खेलना है...उन्हें बुलाओ ना...और रायभान से मुझे,'डम डम डिगा,डिगा ये गाना भी सुनना है..."

दादी अम्माने मुझे समझाते हुए कहा, " आज नही...अभी कल देखेंगे....! चलो आज मैही तुम्हें कहानी भी सुना दूँगी, और खाना भी खिला दूँगी.."

"अम्मा आप देर रात किसी वक़्त आयीं ...मुझे ठीकसे पता नही चला, लेकिन आपको मेरी बग़ल मे पाके बड़ा सुरक्षित लगा..

"सुबह मेरी आँखें खुली, तो फिर आप मेरे पास नही थीं ...मुझे बस्ती परसे रोने धोनेकी आवाजें आ रहीं थीं...मै कुछ समझ नही सकी...जानती थी,कि, बस्तीपरके कई मर्द अपनी बीबिओं को मारते हैं..ऐसेमे वो रोती,रोती माँ या दादी के पास आती थीं..अब जब माँ ख़ुद बस्तीपे मौजूद है,ये मुझे बताया गया, तो मुझे बेहद हैरानी हुई,...माँ के होते हुए भी क्या उन औरतोंको मारा जा रहा है?

मैंने दादी अम्मासे कहा," मुझे बस्तीपे जाना है...मुझे जाने दो ना.....!"

"दादीअम्मा ने मुझे अपनी गोदीमे लेके कहा," अभी नही...शामको देखेंगे......"
"लेकिन आप कलसे मुझे रोक रहीं हैं..मुझे वो गाना सुनना है रायभान से...उसे तो बुला लो ना..!"मैंने अपनी ज़िद कायम रखी......
"अंतमे दादी अम्मा ने शायद सोचा कि, मुझे चंद बातें औरोसे पता चलें, उस बनिस्बत, वो खुद्ही बता दें तो बेहतर होगा......
"वो कहने लगीं,तो मैंने गौरसे उनके चेहरेकी और देखा...उनकी आँखों मे पानी था..होंठ काँप रहे थे,और उन्हों ने कहना शुरू किया," बच्चे रायभान अब फिरसे यहाँ कभी नही आयेगा.......!"
"लेकिन क्यों? मैंने उसे लात मारी थी इसलिए? मैंने माफी तो माँगी थी..दादी अम्मा आप उससे कहो ना,कि, मै फिरसे ऐसा नही करूँगी.." मुझे अब रुलाई-सी आने लगी थी...

"दादी अम्माके आँखों से अब पानी बहने लगा था...वो बोलीं," रायभान अब भगवान् जी के पास चला गया है! वो दोबारा हमें कभी नही दिखेगा....!"
मेरा मन एकदमसे धक्-सा रह गया..मै इतना जानती थी,कि, एकबार जब कोई "भगवान्" या "खुदाके" पास जाता है तो फिर कभी नही लौटता...! मुझे यक़ीन हो गया कि,वो मुझीसे रूठके चला गया....मेरे बाल मनपे जो उस समय गुज़री, उसका बयान करना कठिन है.....

"बादमे पता चलता रहा...वनुबाई ने चुल्हेपे बड़े-से पतीलेमे, नहानेके लिए पानी गरम करने चढाया था...रायभान और उसकी छोटी बेहेन छबी, वहीँ पे शायद कुछ उधम मचा रहे थे...वो खौलता पानी, चुल्हेपरसे उलट गया और दोनों बच्चों पे जा गिरा...छबू तो बच गयी...रायभान ईश्वर को प्यारा हो गया....

"मुझे याद है, मै, बोहोद दिनों तक सदमेमे चली गयी थी..खानेके लिए जैसे मुझे बिठाया जाता था, मुझे उबकाई आ जाती थी..मुझे अन्य एक बच्चे ने बताया था,कि, रायभान को भूक लगी थी, इसलिए वो अपनी माँ के पास पोहोंचा था..रोटी माँगते हुए...मुझे अब तो याद नही,कि, मै कितने दिन खाना नही खा पायी....

"अम्मा, अगर आप उस शाम मुझसे माफी ना मँगवाती,तो ताउम्र मै पश्च्यातापकी अग्नीमे जलती रहती...कभी खुदको माफ़ करही नही पाती...आजभी वो सारी बातें मेरे मनमे ऐसे अंकित हैं, जैसे कल परसों घटी हों....

सोचती हूँ, मैंने ऐसी हरकत कीही कैसे? क्या सवार था मुझपे? सिर्फ़ किसी अन्य की देखा देखी कर दी? लेकिन,जब कभी मुझे ये बात याद आती है तो शर्मसार हो जाती हूँ...जब कभी, डम डम डिगा, डिगा ये गीत बजता है,तो रायभान का भोला-सा चेरा सामने आ जाता है..."
क्रमश:

वर्तनी के लिए माफी चाहती हूँ..कोशिश तो की है, फिरभी गर कुछ typos रह गए हों,तो क्षमाप्रार्थी हूँ!

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Tuesday, May 26, 2009

माँ, प्यारी माँ ! २

आजसे अपनी माँ के साथ, सीधा संभाषण ही करूँगी...जैसे अपनी बेटीसे करती रही हूँ...मूक...वो सुने ना सुने...चाहती हूँ, कि, ये आलेख मेरी माँ ज़रूर पढ़ें...ईश्वर, ये मौक़ा मुझे ज़रूर देना...ये सँवाद अनसुना ना रह जाय...

"अम्मा...आपकी आजकल, पहले शायद कभी नही आती थी, इतनी याद आने लगी है...
आपकी नवासी का एक छोटा-सा किस्सा सुनाती हूँ आपको..शायद पहले ज़रूर सुनाया होगा, पर फिर एकबार...

कुछ ४ साल की आयु थी उसकी...किसी बातपे मुझसे नाराज़ हुई, और अपना पलंग ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगी...
मैंने कहा," बेटा, जानती हो ये कितना पुराना पलंग है? जब तुम्हारे नाना छोटे थे, तो वो इसमे सोते थे....उसके बाद जब मै छोटी थी, तो मुझे इसमे सुलाया जाता था...बादमे तुम्हारी,मासी, मामा, सब इसीमे सोते रहे...आज वो तुम्हें मिला है..."
जैसे, जैसे मै उसे बता रही थी, वो स्तब्ध होती जा रही थी...आँखें फटी जा रही थीं....! पलंग हिलाना भी बंद हो गया...!
मुझसे बोली," माँ! जब तुम छोटी थीं, तो हम दोनों की देखभाल कौन करता था?"
मै जोरसे हँस पडी,बोली," जब मै छोटी थी,तो तुम दोनों इस दुनियामे नही थे!"
उसकी आँखें औरभी गोल, गोल हो गयीं...बोली," तो फिर हम कहाँ थे?"
"तुम भगवानजी के पास थे,"मेरा उत्तर ....
बेटी: "तो फिर हमें वहाँसे यहाँ कौन लाया?"
मै: " तुम दोनों हमें बोहोत पसंद आ गए...इसलिए तुम्हें हम भगवानजी से माँग के इस दुनियामे ले आए.."

कैसा निष्पाप, भोला बचपन था उसका....
अम्मा ! जब मै छोटी थी, तो मुझेभी ऐसाही लगता था...अपनी माँ हमेशा बड़ी ही रही होगी...याद है आपको मै आपसे कैसे,कैसे सवाल किया करती थी?

मेरी कँघी कर रहीँ थीं आप..मुझे इतना याद है, कि, मेरी छोटी बेहेन का जन्म तब नही हुआ था...मैंने पता नही क्या बात कही, और आप जोरसे हँस पड़ीं..
मैंने आपसे, बड़े अचरज से पूछा," अम्मा, जब आपकी माँ आपके पास नही हैं, तो आप हँस कैसे सकती हैं? आपको रोना नही आता?"
आप फिर एकबार हँस पड़ीं, बोलीं:"एक दिन तूभी मुझसे दूर होगी और फिरभी तू हँस पायेगी...खुदा करे, ऐसा हो....!"

मै खामोश हो गयी...ऐसाभी कभी हो सकता है? माँ साथ न हो? घरमे रिकॉर्ड प्लेएर पे एक गीत हमेशा सुना करती थी मै...शमशाद बेगम का गाया हुआ...."छोड़ बाबुल का घर, मोहे पीके नगर, आज जाना पडा,आज जाना पडा, याद करके ये घर, रोयीं आँखें मगर ,मुस्कुराना पडा, आज जाना पडा.."
याद है,मैंने आपसे पूछा था," अम्मा ! 'बाबुल" का " घर क्या होता है?"
अम्मा: ""बाबुल"का घर मतलब अपनी माँ घर, अपने पिता का घर..."
मै:" और 'पीका' घर मतलब?"
अम्मा:" पीका" घर मतलब, जैसे,ये घर मेरे लिए है...ये घर मेरी माँ का घर नही..मै शादी करके,फिर यहाँ रहने आयी....ये मेरे 'पतीका" मतलब 'पीका" घर है....तेरे 'बाबा' मेरे 'पी' हैं..!"
मै:" क्यों? आपको अपना घर क्यों छोड़ना पडा? नानीअम्मा को बुरा नही लगा आपको यहाँ भेज देना? और वो गानेवाली को क्यों जाना पडा? उसके साथ किसीने ज़बरदस्ती की? उसको रोना भी आया फिरभी उसको क्यों जाना पडा?"
मुझे याद है, आप बोलीं थीं:"एक दिन तुझेभी जाना पडेगा..इसी तरह...और शायद तू खुशीसे जायेगी...हो सकता है, जाते समय रो दे......"
मैंने वो ख़याल अपने मनसे पूरी तरह झाड़ दिया...ऐसा होही नही सकता...मै अपनी माँ, दादा, दादी और इस घर को छोड़ के कहीँ भी नही जा सकती...बल्कि, नही ही जाऊँगी...!

लेकिन, चलीही गयी...हाँ, रोई तो बोहोत...घरको तो भूल पाना, खाई, नामुमकिन है...!..उस घरमे कितनेही बदलाव हो गए, लेकिन मुझे, वो घर वैसाही दिखता है, अपने सपनों में, जैसा तब था..जब आपका और मेरा ये सम्भाषण हुआ था...

इतने बरसों बादभी,मुझे "अपने घरके" तौरपे वही घर दिखता है! मुझे अपने ससुराल वालेभी गर सपनेमे दिखते हैं, तो उसी घरमे....! मुझे आजतक कोई अन्य घर दिखाही नही!
और ये बात आपकी छोटी बेटीके साथभी होती है...इतनाही नही..हमें किहीम भी और वहाँ का समंदर भी ( मेरे परदादाका एक घर किहीम, इस गाँव के, समंदरके किनारे, था....मुम्बईके पास), अपने खेतको लगी ज़मीनपे दिखता है...और सिर्फ़ मुझे और कुन्नुको नहीँ...आपके बेटेको भी किहीम का समंदर वहीँ नज़र आता है,अपने सपनोंमे... !!!उसे अपना घर छोड़, अन्य घर जाना नही पडा, तो उसे बचपनका घर सपनेमे दिखना लाज़िम है..लेकिन हम दोनों लड़कियोंको???
पता है आपको अम्मा...जब दादा के गुज़र जानेके बाद, दादीअम्मा कुछ रोज़ मेरे पास आके रहीँ,तो हमारी ये सपनों में घर दिखने वाली बात निकली...हैरान रह वो बोलीं," मुझे मेरा मायका छोडे ७२ सालसे अधिक हो गए...लेकिन, सपनेमे मुझे वही खम्बात का घर दिखता है..!"

सोचो तो ज़रा...दादाके साथ उनकी ज़िंदगी कितनी खुश गँवार गुज़री...! जिस दिन दादा गुज़र गए, वो उन दोनोकी शादीकी ७२ वी सालगिरह थी...! जिस दिन साथ जुड़े , उसी दिन बिछडे...!
लड़कियाँ क्यों "पराया धन" कहलातीं हैं? उनकी जड़ें कितनी अधिक उस भूमी, उस घरसे जुडी होती हैं, जहाँ, उनका बचपन गुजरता है...जहाँ उन्हें अपने यौवन मे पनाह मिली होती है..!!!जहाँ उन्हें सुरक्षित महसूस कराया जाता है...या जाना चाहिए...

वो एक शाम मुझे आजतलक नहीँ भूली...मै अपने दादा-दादीके साथ खेतपे घूमने गयी थी...वहाँसे लौटी तो आप रसोईकी सीढीपे खड़ी मिली..मै आपके क़रीब गयी,तो आपने मेरा माथा चूमा....उस एक प्यारे चुम्बनने मुझे कितना सुरक्षित महसूस कराया...मै इतने बरसों बादभी नही भूली...!

और एक बात के लिए मै आपकी ताउम्र शुक्र गुज़ार रहूँगी....ना जाने उस वक़्त आप मुझसे वैसा नही करवाती ,तो, मै ज़िंदगीभर कितना अधिक पछताती...३ सालकी उम्र होगी मेरी...फिरभी वो वाक़या मेरे ज़हन मे अंकित होके रह गया...नाभी रेहता, गर उसके अगले दिन जो घटा ,वो, ना घटा होता...आजभी सिहर जाती हूँ..आजभी अपनी प्यारी माँ के आगे नतमस्तक हो जाती हूँ...
आपके सदाही रुण मे रहना चाहती हूँ...चाहूँगी..."

क्रमश:

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Friday, May 22, 2009

माँ, प्यारी,माँ! १

बेटीपे लिखा..एक माँ ने..अब एक बेटी अपनी माँ को याद कर ,उसके बारेमे लिखना चाह रही...
चाह तो बड़े दिनों से थी..और ऐसा नही,कि, पेहले लिखा नही..पर ये कुछ नए सिरेसे..एक बेटी, जो,माँ होनेका दर्द झेल रही है....और अपनी माँ का दर्द समझ रही है..उसका बड़प्पन याद कर रही है..उसकी कई बातें, आज मेरे सामने एक दीप शिखा बन खड़ी हो गयीं हैं...

कई बार चाहा,कि, एक औलाद, मुझेभी, याद करे,कुछ इसीतरह, जब भी, किसी अन्य को अपनी माँ को याद करते हुए,पढा,या सुना...शायद, वो मेरी किस्मत नही...
इस आलेखमे, कुछ उन्हीं के अल्फाज़ ,जो,खतों के रूपमे मेरे पास हैं...या बोलोंके रूपमे मुझे याद हैं...उन्हीं को ,उजागर करना चाह रही हूँ..लेकिन,सिर्फ़ उतनाही नही...औरभी बोहोत कुछ...

वोभी मेरे लिए,कितनीही बार फानूस बनी...अपने हाथ जला लिए,ऐसा करते, करते...ज़रूरी नही था,कि, मैनेही उन्हें जलाया हो...लेकिन,हाँ, जाने-अनजाने ये ख़ता मैंने ज़रूर की है...

उनका हर किया,अनुकरणीय ही था,ऐसाभी नही...लेकिन, वो नही था, येभी,कई बार, उन्होंने ने ख़ुद दिखलाया...
आज इससे अधिक लिखनेका समय नही....उनके बारेमे,इत्मिनानसे ही लिखना होगा..दिल भर,भर आता है...
उनपे, उतारा गुस्साभी याद आता है..अपनी हताशा भी याद आती है....

क्रमशः

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Monday, May 18, 2009

दिन एक माँ के लिए.. ४

रिश्ता था हमदोनोका ऐसा अभिन्न न्यारा
घुलमिल आपसमे,जैसा दिया और बातीका!
झिलमिलाये संग,संग,जले तोभी संग रहा,
पकड़ हाथ किया मुकाबला तूफानोंका !
बना रहा वो रिश्ता प्यारा ,न्यारा...

वक़्त ऐसाभी आया,साथ खुशीके दर्दभी लाया,
दियेसे बाती दूर कर गया,दिया रो,रो दिया,
बन साया,उसने दूरतलक आँचल फैलाया,
धर दी बातीपे अपनी शीतल छाया,कर दुआ,
रहे लौ सलामत सदा,दियेने जीवन वारा!!

जीवनने फिर एक अजब रंग दिखलाया,
आँखोंमे अपनों की, धूल फेंक गया,
बातीने तब सब न्योछावर कर अपना,
दिएको बुझने न दिया, यूँ निभाया रिश्ता,
बातीने दियेसे अपना,अभिन्न न्यारा प्यारा,


तब उठी आँधी ऐसी,रिश्ताही भरमाया
तेज़ चली हवा तूफानी,कभी न सोचा था,
गज़ब ऐसा ढा गया, बना दुश्मन ज़माना,
इन्तेक़ाम की अग्नी में,कौन कहाँ पोहोंचा!
स्नेहिल बाती बन उठी भयंकर ज्वाला!

दिएको दूर कर दिया,एक ऐसा वार कर दिया,
फानूस बने हाथोंको दियेके, पलमे जला दिया!
कैसा बंधन था,ये क्या हुआ, हाय,रिश्ता नज़राया!
ज़ालिम किस्मत ने घाव लगाया,दोनोको जुदा कर गया!
ममताने उसे बचाना चाहा, आँचल में छुपाना चाहा!!

बाती धधगती आग थी, आँचल ख़ाक हो गया,
स्वीकार नही लाडली को कोई आशीष,कोई दुआ,
दिया, दर्दमे कराह जलके ख़ाक हुआ,भस्म हुआ,
उस निर्दयी आँधीने एक माँ का बली चढाया,
बलशाली रिश्तेका नाज़ ख़त्म हुआ, वो टूट गया...

रिश्ता तेरा मेरा ऐसा लडखडाया, टूटा,
लिए आस, रुकी है माया, कभी जुडेगा,
अन्तिम साँसोसे पहले साथ हो, बाती दिया,
और ज़ियादा क्या माँगे, वो दिया?
बने एकबार फ़िर न्यारा,रिश्ता,तेरा मेरा?

जानती है, १२ मईको "तैय्याका" फोन आया था? वो तेरे बारेमे पूछ रही थीं! मुझसे रहा न गया...दिल भर आया ..मैं कुछ देर खामोश रही...तैय्या बार, बार पूछती गयीं...अंतमे भर्राई आवाज़मे मैंने कह दिया," भाभी वो मुझसे बेहद रूठी हुई है...पता नही वो मुझसे कभी सामान्य हो पायेगी या नही? "

तैय्याको ३१ साल पूर्व का वो बनारससे ,देहलीतक किया सफर याद आ गया....३० मईको मै तुझे लेके तैय्याके साथ, बनारससे देहली निकली थी...बिना आरक्षण किए...३रे दर्जेकी बोगीमे...देहली स्टेशन पे एक ऐसी भीड़ दिब्बेमे घुस पडी,की, मै और तैय्या तो बिछड़ ही गए...मै, बोगीके passege में तुझे ले गिर पडी...अपने शरीरको १२ दिनोकी एक नाज़ुकसी कलीपे ढाल बनाये रखा...मेरे उपरसे भीड़ गुज़र रही थी..तू डर और भूखसे जारोज़ार रो रही थी..एक मुसाफिरने मेरी हालत देखी...मानो फ़रिश्ता बन वो सामने या...हम दोनोको उसने खड़ा किया और कहा," अब मै अन्दर घुसनेवाली भीडको एक ज़ोरदार धक्का लगा दूँगा...आप उस वक्त डिब्बेसे उतर जाना...!"

गर वो ना होता तो पता नही, ज़िंदगी ने हमें वहीँ रौन्दके रख दिया होता.....तेरे कपड़े डिब्बेमे छूट गए..मेरे पैरोंमे चप्पल नही रही...

तैय्या platform पर नही उतर पायी...दूसरी तरफकी पटरियों पे उन्हें उतरना पडा..मै जैसेही platform पे उतरी...तेरे पिताके एक दोस्त हमें लिवाने आए थे..मुझे धीरज दिलाते हुए, एक बेंच पे बिठाया...मैंने तुझे स्तनपान कराया...कितनी भूकी प्यासी थी तू! ! मै आजतक वो दिन नही भूली...एक नन्हीं जान अपनी माँ पे कितनी निर्भर होती है..कितनी महफूज़ होती है, उसके आँचल में! !
मैं भी कभी ऐसीही महफूज़ रही हूँगी अपनी माँ के आँचल में....मुझे आजभी अपनी माँ का आँचल , हर धूपमे छाया देता है..काश मेरे जैसा नसीब तेराभी हो..कि तूभी...फिर एकबार, मेरे होते, अपने आपको उतनाही महफूज़ महसूस करे!!!काश..काश..मेरी इतने बरसों की अराधना सफल रहे....
जानती हूँ, तेरा जीवनसाथी, तेरे लिए एक विलक्षण सहारा है..वो बना रहे..तुम दोनों बने रहो..किसी अदृश्य रूपसे मेरी दुआएँ तुमतक पोहोंचतीं रहेँ...आमीन!

मै लिखना चाहूँ,तो और पता नही कितना लिख दूँगी..पर अब बस..इसके पहलेभी काफी लिख चुकी हूँ..कितना दोहराऊँ?

समाप्त।

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Tuesday, May 12, 2009

दिन एक माँ के लिए.. ३

बिटिया आज तेरा जनमदिन...आज एक माँ का भी जनमदिन...के तूने मुझे माँ बनाया...

बनारसकी चिलचिलाती दोपहरी....सिज़ेरिअन सेक्शन से तेरा जनम होगा ये तय कर लिया गया था..मेरी मानसिक हालत और तेरे पैर आगे देख, यही वैद्यक शास्त्र की दृष्टीसे सही था..
मेरे होमिओपथ ने काफी कोशिश की ये सर्जरी टल जाय...दवाई देके तेरा सर घुमानेकी ...ये तो खैर पता तो नही था कि, लड़का है या लडकी....लेकिन मुझे कोई फ़र्क़ नही पड़नेवाला था...हाँ, मेरे ससुरालवालों को पड़नेवाला था...और पडाभी.....तेरे आगमन की ख़बर तेरे पिताने एक बडेही अपराध बोधसे ,तेरी दादीको सुनाई......और मेरा मन छलनी,छलनी हो गया...किसीने उन्हें बता रखा था, की, मुझे २ लड़केही होंगे...

मुझे याद, OT में तेरी "तैय्या"को अन्दर नही आने दिया तो मैंने कितना उधम मचा दिया था...एक डॉक्टर और मेरी शुभ चिन्तक की हैसियत से मेरा सिर्फ़ मेरी उस जेठानीपे ही विश्वास रहा था...मुझे, शायद, बहलाए रखनेके लिए, भरोसा दिया गया था,कि, भाभी को OT में आने दिया जायेगा...
पता चला कि, मेरी डॉक्टर को तो ऐतराज़ नही था..लेकिन अनेस्थीशिया देनेवाले डॉक्टर की मर्जी नही थी...मुझे ज़बरदस्ती पकड़ रखा गया और बेहोशीकी दवा सुंघाई गयी...पता नही मैंने कितनी देर साँस रोके राखी थी...
जब होश आया तो मै OT के बाहर थी...

वो ward,जहाँ मुझे रखा जानेवाला था, दूसरी इमारतमे था...तुझे तो बिना किसी आवरण केही मेरी माँ के हाथ पकड़ा दिया गया था...उन्होंने एक आयासे उसका एप्रन माँगा...!
दोपेहेरकी, बनारसकी गरमी...१ बजके २० मिनट पे तेरा जन्म...२ बजेके करीब, मुझे दूसरी इमारत में ले जाना था..अजीब आवाज़ें मेरे कानोंमे आ रही थीं.."इस बिल्डिंग से उस बिल्डिंग में हम स्ट्रेचर नही देते...आपको वहाँ से मँगवाना होगा.."
भाभी बरस पड़ीं," अरे तो क्या इस औरत को चलाके भेजोगे? वो भी नही दे रहे स्ट्रेचर...! और सिज़ेरिअन का बच्चा तो इतना नाज़ुक समझा जाता है...उसकी तो किसीको चिंताही नही..."

खैर..इतना याद है,कि, मुझे दो बार एक स्ट्रेचर परसे दूसरेपे डाला गया..मतलब उस बिल्डिंग से OT की बिल्डिंग के बीछ, एक स्ट्रेचर आया ..वहाँसे मुझे उसपे शिफ्ट किया गया...ये सब बादमे पता चला...

और दिनों डॉक्टरों की स्ट्राईक चल रही थी...उनका कहना था,कि, गर प्राइवेट ward के मरीज़ों से अधिक पैसे लिए जाते हैं, तो डॉक्टर्स कोभी उसी मुताबिक तनख्वाह या मेहताना मिलना चाहिए...
दूसरी ओर १२ से १५ घंटे बिजलीका गुल होना साधारण बात थी...और मुझे जिस पलंग पे रखा गया उसको सटके एक टीबी की मरीज़ थी..ये तो भाभीकी आदत थी ,कि, वो अन्य मरीज़ोंके बारेमे अपनी जानकारी रखतीं..गर वो ना होती तो किसकी सुनवाई नही होती..!

इसके पूर्व मुझे जो जगह दी गयी,थी वो एक छोटा -सा अलग ward था...भाभी ने पूछताछ की," यहाँ पहले कौन था?"
एक नर्स ने बताया," यहाँ एक सेप्टिक का मरीज़ था...कुछ घंटों पूर्व उसकी मौत हो ......"
भाभी तकरीबन चींख पडी," अरे ये क्या बकवासबाज़ी लगा रखी है..! इस मरीज़ कोभी मार देना है क्या? इससे तो जनरल ward ठीक है..हमें क्या पता था,कि, यहाँ इतनी अंधेर नगरी है....! इस अस्पताल के management की तो मत मारी गयी है..सिज़ेरियन का बच्चा तो वैसेही इतना नाज़ुक होता है..और बच्चों के बनिस्बत उसमे प्रतिकारशक्ती कम होती है...और यहाँ तो सीधे सेप्टिक ward में उसे रखा जा रहा है...इसे disinfect भी किया था के नही.....? या ऐसेही सीधे अगले मरीज़ को घुसा दिया....?"
नर्सने कुछ कहनेसे मनाही कर दिया..ज़ाहिर था...कमरेको sterilize नही किया था...!
ये अंधेर नगरी ही थी....!!!

आज मुड के देखती हूँ, तो लगता है, गर भाभी,( जिन्हें तू बादमे, तैय्या कहने लगी, क्योंकि, ताईजी बोलना नही आता था), और मेरी माँ नही होती, मेरे साथ, तो शायद तू मेरे हाथ नही लगती...
माँ तो अपना घरबार छोड़ मेरे पास महीनों आके रुकही गयीं थीं...पहले ३ गर्भपातका इतिहास था...और भाभीभी अपने ८/९ सालके बच्चे को छोड़ लगातार मेरे पास दौडे चली आतीं...वो दिल्लीमे कार्यरत थीं...और उनकी पेड़ छुट्टी ख़त्म हो गयी तो उन्होंने बिना तनख्वाह छुट्टी ले ली थी....नही पता कि हमारे किन जन्मोंके रिश्ते थे...जो वो निभा रही थीं...

देखा जाय तो तेरी तैय्या, मेरी सासकी सौतेली बेहेनकी बहु थीं...लेकिन हमारे परिवारमे मै उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी..उन्होंने वैसेतो हमारे घरके हर व्यक्तीके लिए बड़े कष्ट उठाये,लेकिन, उनपे इल्ज़ाम ज़रूर धरा गया कि, मै अधिक लाडली हूँ...प्यार नाप तौलके तो किया नही जाता...अपने फ़र्ज़ तो वो हमेशा बेक़ायदी से निभाती रहीं...
इसी बातपरसे एक बात याद गयी तो वो बताते चलती हूँ....

हम तब दिल्लीमेही थे...मेरे ब्याह को शायद एकही साल हुआ था...हम एशिया हाउस जहाँ भाभी रहती थीं, वो जगह छोड़ बंगाली मार्केट के इलाकेके टोडरमल squaire में शिफ्ट हो गए...यहाँ दो कमरे अधिक थे....
एक दिन तेरे पिताकी रातमे अचानक से तबियत बिगड़ी....भाभीका फोन लग नही रहा था...हम सभी परेशान थे , कि de- hydration ना हो जाय....इन्हें क़ै और मतली हुई जा रही थी..साथ,साथ दस्तभी.....कार तो मैभी चला सकती...के जाके भाभीको ले आऊँ...पर उस दौरान इन्हें कौन देखता? और अव्वल तो मेरे ससुराल का मेरी driving पे भरोसा नही था....!

मै ट्राफिक के नियमों नुसार गाडी चलाती...और दिल्लीमे ऐसा कोई चलन नही था...!
सभीको लगता गर,मै रेड सिग्नल पे रुक गयी, इशारा देकेभी, कोई ना कोई पीछेसे आके धड़क लेगा...गाली गलौच अलग होगी सो होगी...!मेरा क्या नुकसान होगा, इसकी परवाह तो नही थी, लेकिन कार को कुछ होता है,तो नुकसान उठाना पडेगा...ये डर!!

इसमे फैसला हुआ, दिनेश भैया को प्रचारण कर, हालत बताके,उन्हें अपनी byke पे एशिया हाउस भेजा जाय और,उनके पीछे बैठ भाभी आ जायें !
अब भाभीने इनके दोस्त दिनेश को, तो देखाही नही था!
दिनेश अपना परिचय जताते हुए, भाभीके घर पोहोंचा.....भाभीका फो बंद होनेके कारण हम तो इत्तेला देही नही सके थे....मैंने भाभीको एक छोटी -सी चिट्ठी लिख दी...बस वही एक प्रमाण....रातके २ बज चुके थे...दिल्ली शेहेरकी ख्याती तो सब जानतेही थे...मुम्बई में एक अकेली लडकी/औरत, बेझिझक टैक्सी पकड़, अपनी निर्धारित जगह जा सकती थी...लेकिन यहाँ?

भाभी हिम्मतवाली...उनसे बढ़के उनके पती काभी उनपे विश्वास...!
चली आयीं...दिनेशके पीछे सवार हो..लेकिन उतरी तो दखा, एक हाथमे चप्पल पकड़ रखी थी...!
कहने लगीँ," हमने सोच लिया था,कि, गर ये ज़राभी रास्ता बदलता तो मै उसे चप्पल जूती जो हाथ लग जाता, जमके पिटाई तो करही देती.....चलो...... भाई दिनेश , अब तू तो हमें माफ़ करही दे....मै तो हूँही ऐसी...!"

दिनेशने अपनी खैर मनायी......!उसकी ज़रा-सी गलती, और सिरपे जूती...!लेकिन भाभीकी हिम्मतका कायल हो गया........!प्रेमा भाभीका नाम सुनतेही,वो कहता है," हाँ...चप्पलवाली भाभी.....! उन्हें कैसे भूल सकता हूँ??सिर्फ़ सिरपे क्या, क्या पड़ता, वो बात छोडो, भाभी तो उन्हें पटकी खिला देतीं और दिनेश अपना ठीकसे बचाव भी नही कर पाता, ये जानते हुए,कि, भाभी किसकी हैं?

पतीको तो वो फिर एक रातके लिए भरती करवाकेही आयीं...
आज मेरे मनमे सवाल उठता है...भाभीकी हिम्मतकी सभीने तारीफ़ की...आजतक करते हैं....गर ये बात मुझे करनी पड़ती तो क्या मुझे इसतरह से जाने दिया होता? नही...ये दोहरी प्रतिक्रया है...मै चाहे कितनीही भले कामके लिए हल्का-सा खतरा मोल लूँ..तो उफ़! इतनी जवाबदेही..!

तो ऐसी तैय्या तेरे पास मौजूद थीं....मेरे पास मौजूद थीं ... जैसे फ़रिश्ता कोई हमारी रक्षा कर रहा हो....
काफी विषयांतर हो गया..लेकिन असलमे ये विषयांतर नही..ये व्यक्ति चित्रण है...

तो लौटी हूँ, उन्हीँ लम्होंमे..समय देखा जाए तो घड़ी पास आ रही है...इस वक्त...तेरे जन्मको बस १२ घंटे होनेवाले हैं...
माँ ने अपने हाथोंसे तुझे नेहलाया...
भाभीने जब मुझे, ले जाया रहा था, तेरे जनमके बाद तो पूछा," जानना चाहती हो है लड़का है या लडकी?
मैंने "नामे" सर हिला दिया.....उनकी बातें,जो मेरे कानपे आ टकरा जो गयीं थीं....
"तुम उसका चेहरा देखना चाहोगी?"
" अभी नही..." मैंने जवाब दिया...
मुझे मन था, जब इसे अपने आँचल में लूँगी, तभी जी भरके देख लूँगी...तब दुआओं के अलावा मनसे क्या निकलता?
एकेक बारीकी याद है मुझे.....कुछ भी नही भूली...कुछभी नही....
कैसे गुज़रे वो चंद दिन? मेरा घोर डिप्रेशन कहाँ गया? अब अगली बार.....
मेरे बच्चे, तुझे इतना कुछ कह देना है...किस छोरको पकडूँ, किस छोरको छोड़ दूँ?कैसे कहूँ,कि तूही मेरी दुनियाँ बन गयी...क्योंकि....तुझे इस बेदर्द ज़मानेसे मुझेही बचाना था/ होगा...हर गुज़रते लम्हे के साथ, इस एहसास की संगीनता नज़र आ रही थी....
क्रमशः

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Sunday, May 10, 2009

दिन एक माँ के लिए...! २

" बिटिया...तुझसे रोज़ एक मूक-सा सँवाद करती रहती हूँ...ये पहली बार नही ,कि, इसके बारेमे मैंने बताया हो...पर तूने नही सुना....दुनियाने सुना पर तेरे कानोंतक नही पोहोंचा...या पोहोंचाभी, तो उसमेके भाव तेरे दिलतक नही उतरे...

मुझे हर माँ ने बताया,कि, जबतक एक औरत माँ नही बनती, वो अपनी माँ के दिलके भाव नही समझ सकती... तू माँ नही बनना चाहती...शायद तेरे बचपनके एहसास हैं, या कि अन्य अनुभव, तुझे बच्चों से मानो चिढ-सी है...ना वो ज़िम्मेदारी तुझे चाहिए, नाही उसके साथ आनेवाले बंधन...जबभी घरमे बच्चे आते हैं...और उस वक़्त तू वहाँ मौजूद होती है...चाहे वो किसीकाभी घर क्यों न हो, तू अपने बच्चे ना होनेकी खैर मानती है...और अब तुझे कुछभी सलाह मशवेरा देनेका अधिकार मुझे नही है...

वो ज़माने बीत गए जब माँ अपनी औलाद्को चंद मामलोंमे अच्छा बुरा बता सकती थी....हाँ, हैं, आजभी ऐसी खुशकिस्मत माएँ, जिनके पास बेटियाँ जाती हैं, जब दुनियासे कुछ पल अपने माँ के आँचल में पनाह चाहती हैं......
तेरे ब्याह्के बादका एकभी दिन मुझे याद नही, जब तूने खुलके मुझे गले लगाया हो.....या लगाने दिया हो....

और जब तू चाहती थी, तेरे लड़कपन के दिनोंमे ...हर रात सोनेसे पूर्व तू ज़िद करके मेरे गले लगने आती...और चाहती कि मै तेरे दोनों गाल चूम लूँ...मै चूमभी लेती...लेकिन अन्य परिवारकी निगाहेँ मुझपे टिकी रहतीं.....जैसे मै कोई बड़ा अपराध करने जा रही हूँ...लड़कियोंको इतना ज़्यादा अपनेसे चिपकाके रखना नही चाहिए...ये बात मेरे ज़ेहेन्मे दबे सुरमे सुनायी देती ...एक अपराध बोध के तले मै झट तुझसे दूर हो जाती...मेरे ससुरालमे तू तीसरी कन्या थी....

"तुम तो ऐसे बर्ताव करती हो,कि, दुनियाकी पहली माँ हो,"...ये अल्फाज़ अनंत बार मैंने सुने...कभी कहनेका साहस नही हुआ, कि, कह दूँ, मै दुनियाकी पहली माँ ना सही, मै तो इस दुनियामे पहली बार माँ बनी हूँ....क्या यही काफी नही था,कि, मै तेरा जन्म एक उत्सव के तरह मना पाऊँ?उत्सव की परिभाषा भी कितनी-सी? तुझे हँस खेल नेहला लूँ....चंद पल तेरे साथ कुछ छोटे खेल खेलके बिताऊँ.........देख रही थी,कि, समय कितना तेज़ीसे फिसलता जा रहा है...पर... .इसी "पर" पे आके रुक जाना पड़ जाता.....

मेरे बच्चे...मै अपनेआपको कितना असहाय महसूस करती कि क्या बताऊँ.....? उस अपराधबोध को बिसराने...उस असहायताको भुलाने, मै ना जाने और कितने कलात्मक कामोंमे लगा लेती अपनेआपको.....लेकिन वो पर्याय तो नही था...

मेरे पीहरमे तेरे जनमका उत्सव ज़रूर मना...तू मेरे दादा-दादा-दादीकी पहली परपोती थी...सबसे अधिक प्यार तुझे मेरे नैहरमे मिला...मै उसके लिए जिंदगीसे शुक्रगुजार हूँ...मेरी दादी तुझपे वारी न्यारी जाती.....तेरी नानी, तेरी हर कठिन बीमारीमे दौडी चली आती....

लेकिन क्या उस प्यारने तुझे कहीँ ऐसा महसूस करा दिया कि, उसके बदले तुझसे उम्मीदें रखी जाएँगी? लाडली ऐसा कुछभी नही था...लेकिन, तेरी मनोदशा पिछले चंद सालोंसे कुछ अजीब-सी बनाती चली गयी...एक विद्रोही...मै नही तो और कौन समझेगा, तुझे मिले सदमोंका असर? लेकिन मैभी अपनी मर्यादायों को समझती थी.....चक्कीके दो पाटोंमे तूभी पीसी मैभी पीसी....

जो अल्फाज़ मेरे कानोंने सुने, जो एक तेज़ाब की तरह मेरे कनोंमे उतरे और दिल जलाके पैवस्त हो गए....." माँ ! तुमने पैदा होतेही मेरा गला क्यों ना घोंट दिया.....मैंने नही कहा था, मुझे इस दुनियामे लाओ..."

तुझे गले लगानेकी कोशिश की, लेकिन तूने एक झटके से मुझे परे कर दिया, अपनी पलकोंपे आँसू तोलती मै कमरेके बाहर जाने लगी तो तूने खींचके फिर बुलाया," नही जाने दूँगी बाहर ...मेरी बात सुनके जाओ...जवाब देके जाओ....

"बेटे इस वक़्त मुझे माफ़ कर ..तेरी गुनहगार तो हूँ, लेकिन इतनी नही कि, अपनी सबसे प्यारी, फूल-सी नाज़ुक-सी नन्हीका गला घोट दती...? उसके पहेले मै ना मर जाती? तेरी एक हलकी-सी चुलबुला हट से मेरे सीनेमे दूध उतर आता....तू कुछ दूरीपे होती और तेरी आवाज़, जिसमे भूख होती, मेरे सीनेमे दूध उतार देती.........एक अविरल धारा जो तेरे होटोको छूती और मुझे तृप्त कर जाती....क्या ये माँ और उसकी औलाद्का कुदरत ने बनाया एक अटूट ,विलक्षण बंधन नही?"

मै इतना लम्बा तो नही बोल पाई...."बस, मुझे एकबार माफ़ कर ...." इतनेही अल्फाज़ बडीही मुश्किलसे कह पायी...लेकिन बरसों दबी एक विलक्षण अभिमान और खुशीकी याद, एक टीस बनके सीनेमे उभर आयी......
वो यादगार मुझे मेरी दादी तथा दादाने सुनायी थी...

मेरे जनमकी जब उन्हें डाकिये ने ख़बर दी...( मेरा जन्म मेरे नानिहालमे हुआ था), तो उस ज़मानेमे, तकरीबन अर्धशतक से अधिक पहेले, सेहेरपे निकले मेरे दादा-दादीने डाकिये को २५ रुपये थमाए...उसकी प्रतिक्रया हुई," समझ गया ...आपको पोता हुआ...."

मेरे दादा बोले," अरे पागल, तू क्या समझेगा कि हम एक लड़कीके लिए कितना तरस रहे थे...इसका जोभी नाम रखा जाएगा, उसके पहेले "लक्ष्मी " ज़रूर जुडेगा ...ये तो पैदाभी लक्ष्मी पू़जन के दिन हुई है...और वो नाम जुडाभी...

वो बात मुझे उस वक़्त ऐसे शिद्दत से याद आ गयी...लगा गर , मेरे जनम के दिन मेरी माता मेरा गला घोंट देतीं , तो मुझे ये अल्फाज़ तो सुनने नही पड़ते...और ग़म तो इस बातकाभी नही था...वो महिला दिवस था..उसके ठीक एक साल पहेले एक समारोहमे मैंने एक बडीही फूर्तीली कविता, तभी तभी रचके सुनाई थी...

आज लगा, कहीँ किसी दूसरी दुनियासे , मेरे दादा-दादी, गर अपनी इतनी लाडली पोतीको, अपनीही निहायत लाडली परपोतीके मुहसे निकले या अल्फाज़ सुन रहे होंगे, तो उनके कलेजे ज़रूर फट गए होंगे.....ये कैसी विडम्बना की मेरी जिन्दगीने मेरे साथ....पर जैसे मै अपनी फूलसी बेटीका गला घोंटना क्या, उसपे गर्दन पे बैठी, मख्ही भी बर्दाश्त नही कर सकती, तो क्या मेरी माँ, ऐसा ज़ालिम काम कर सकती ?

ना जाने ये कथा किसकी और व्यथा कौन भुगत रहा...नही पताके उसके कहे इन अल्फाजोंकी गूँज कितने दिन मेरे कानोंमे गूँजती रहेगी...ना जाने मेरी बिटिया,तू इन्हें भुलायेगी, या इसी शिकायत के साथ ताउम्र तड़पेगी?और शिकायतों में कमी नही, इज़ाफा करती रहेगी? ना, मेरे बच्चे ,मत तड़प तू इतना...तेरी माँ इतनीभी गुनेहगार नही...हालातकी मारी सही....
मै क्या करूँ,कि, तू चैन पाये....?अपनी दुनियाँ तुझपे वार देनेके लिए तैयार हूँ...तू गर स्वीकारे.....गर तुझे वो चैन दे...
बता मेरे बच्चे, मेरे सपनेमे आके बता, के सामने तो तू नही बताएगी...के मै क्या करूँ? मै ऐसे बोझको लेके कैसे शांतीसे मर पाऊँगी?

क्या अबके मिलेगी तो बिछड़ने से पहले एकबार मुझे कसके गला लेगी?"

क्रमश:

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Saturday, May 9, 2009

दिन एक माँ के लिए...१ ...

कई बार ऐसी यादें घिर आती हैं अतीतके गर्दिशमेसे उभरके...के बेसाख्ता बह निकलती हूँ...
येभी नही समझमे आता कि किस क्रममे लिखूँ..इस्तरह्से एक बाढ़ आती है....
शायद जो क़रीबका अतीत होता है,वो ज्यादा छलता है...
इसीपे एक मालिका शुरू करने जा रही हूँ..जहाँ एक मुक्तीधारा बेहेने दूँगी..अनिर्बंधित...लेकिन, साफ़ इतनी के जिसकी गहरायीका एहसास ना हो...पूरी पारदर्शक....लेकिन सिर्फ़ अपनेआपको कुरेदूँगी.....किसी औरको नही...के ज़िंदगी ने समझाया, वो मेरा अधिकार नही...

सुनती आयी हूँ, 'mother's day' के बारेमे, पिछ्ले कुछ सालोंसे....
मेरी अपनी बेटीके जनम दिवस के पासही होता है..बल्कि,उसी दिन....
जिस दिन वो जन्मी, एक माँ जन्मी....इसलिए हम दोनोका जन्म दिन तो एकही दिन होना चाहिए...
शायद मेरी माँ और मेरा जनम दिन भी एकही दिन होना चाहिए..कि मैही उनकी पहली औलाद थी...
उस दिन वो, मेरी लाडली, मुझे कितना याद करती है, करतीभी है या नही, मुझे नही मालूम...
हाँ, मुझे ज़रूर याद आती है...दिल करता है उसे पूछूँ ," क्या मैभी तुझे याद आती हूँ, मेरी बिटिया? या तेरी ज़िंदगी की तेज़ रफ़्तार तुझे इतनी मोहलत ही नही देती....ना देती हो तो, शिकायत भी नही..
तेरा जन्मदिवस तो मै भूलही नही सकती...कि एक माँ का उस दिन जन्म हुआ था..मातृत्व क्या होता है,इसका एहसास हुआ था...
बोहोत कुछ बताने कहनेका मन है तुझे...लेकिन डर भी जाती हूँ...अब तू बड़ी हो गयी है...शायद मुझसे अधिक सयानी....
बचपनको याद करती हूँ तेरे..तो अनायास आँखें भरही आती हैं...बोहोत तेज़ीसे फिसल गया मेरे हाथोंसे..मेरी बाहोंसे...अपनी बाहों में तो तुझे ठीकसे भरभी नही पाई..ये ज़िंदगी की ज़ंजीरे , जो मेरे हाथ बाँधे हुई थीं..लेकिन मनकी अतृप्त इच्छाएँ, कभी तो अपने खूने जिगरसे, अपने जिगरके तुकडके नाम ज़रूर लिखूँगी....
लिखूँगी, के, तेरे साथ क्या, क्या खेल रचाना चाहती थी...तेरे साथ खेलके तुझे खिलखिलाना चाहती थी..और चुपचाप अपने आँचल से अपने आँसू पोंछ लेना चाहती थी..

गुड्डे गुड्डी के ब्याह रचाना चाहती थी...झूट मूटकी शादी...झूट मूट की बिदाई...झूट मूट की दावतें...झूट मूट के खाने, वो निवाले,जो तू मुझे खिलाती , और पूछती," माँ, अच्छा लगा?"
मै गर कहती,"हाँ, बोहोत अच्छा लगा,"तो तू झट कहती,
"तो लो मुँह खोलो, और खाओ",...फिर एक झूठ मूट का कौर...
हूँ...ये खेल तो खेलेही नही गए...और अब क्या खेलेंगे?

क्रमश:

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Monday, May 4, 2009

पुलिस reforms suggested by डॉ धरमवीर National Police commission.

At end of Emergency regime in 1977, the Government constituted the Second National Police Commission to suggest ways & means to make our Police force across the country a real Service; pro-people, free of the political stranglehold & accountable to the Law of the land & not to the politicians in power. It was a bitter lesson learnt by the Nation about the Police which was being governed by an archaic Act enacted by a foreign power ruling the country interested in perpetuating its own rule. Such a police force respected the Ruler only & not the people. PEOPLE did not matter. It was insensitive to the aspirations of a Nation & perceived as slave drivers. Governments in the Independent India did precious little to change that Act or amend suitably that law. The intent was clear & the consequences were for every one to see in their full glory during the Emergency.

The VICTIMS of these repercussions themselves ordered formation of the National Police Commission headed by late Dharma Vir, a retired officer of the elite Indian Civil Service; a bureaucrat of outstanding reputation. The Nation waited with hope for a positive out come which would ‘humanise’ the police & make it a friend of the people accountable to law & law alone freeing from the shackles of political interference.

The Commission to its credit did deliver. It produced a comprehensible document recommending sweeping police reforms along with the path forward suggested clearly. It was a report any commission in the world would be proud of.

The reforms suggested included secure tenure for police officers in executive posts guaranteeing freedom of operation to the police to work as per law. In any case the courts supervise the work of the police in our system. In the U K, the form of democracy that we decided to follow, this independence of police working is called Independence of Constabulary. This is the concept that endears the police to the people in that country. ‘Bobby’ is a respected institution & a role model for other forces in the democratic world.

Law in India is a state subject. Administration of police & maintenance of Law & Order is the domain of the State governments; the Centre, as per the Constitution, is not supposed to interfere.

(Note- laws are enacted either by the Parliament or the State Legislature. As per the Constitution there are three lists of Laws: a) Central list listing laws concerning national subjects like Defense, Foreign Affairs, etc, b) State list like civic administration, Local self governments, Education, Law & Order, etc. Some subjects are common. There is a third list called Concurrent list. This list has some common subjects. Either the Center or the states can legislate on those laws but the laws made therein by the Center shall prevail. Also, a Parliamentary democracy function a lot by conventions in addition to laws, if there are no specific laws is available on the subject. This note I have added just as a background.)

Expectedly, no State government was keen to implement this vital police reforms on one ground or the other. Even the Central Government did not implement this reform in the Union Territories administered by the Center itself. All successive governments of different shades & colours steered clear of letting police to operate independently as per law. Instead of considering the police as the arm of the law, it was treated as the STRONG ARM of the party in power, always, by every government. They feel they will be helpless to tackle their governance if the Police were not under their total control. They want Police to be accountable (Read dependent) on their mercy exercised through the potent power of transfers & postings! An assured tenure system & an independent selection process would defeat this design.

The right thinking officers & some respected leaders of the force, present & retired, ably backed by Activist NGOs, kept on demanding vociferously this implementation. However, the people in power are made of sterner stuff! They would not let go!!

Ultimately, after a protected legal battle, the Apex Court directed the state and the central governments to implement this vital police reform in 2006. Despite that it has been ducked effectively so far. Actually, the Stares have asked for revision of this order on grounds of impracticability. The Babus controlling the Governments are past masters at producing powerful arguments to substantiate such claims.

Feeble attempts to take terrorism on gets attention when some people get killed, which is happening more frequently. However, it resumes its appointed place on the back benches soon & the magnanimous society tends to forget the trauma once again. Blame is apportioned for the failure to the police & the Intelligence agencies squarely. The punching bag awaits another round to be offered as the fodder! And the ones to be accounted for remain free to criticise the police & the famous “foreign” hand. And the water keeps flowing down the Ganges.

Less said the better about the living & working conditions of a police man. The training resources are pathetic. All reports suggesting reforms & improvements are accumulating dust in various government offices in every state in the country. Every government in the states is interested in transfers & postings of the officers. This is true not only of the police department but all other departments where the government ‘servants’ can “Service” the people! It is a well known secret and the weapon of transfers is used effectively to tame the non compliant ones!

And a society that can not hold the value it preaches individually & collectively violates them without batting an eyelid when it comes to self interest. Meanwhile, the Police machinery is expected to uphold these “Noble Values” in & for an increasingly valueless society.

WHO CARES?!

Reproduced by a very senior retired IPS officer।


क्या कोई इस तथ्यकी दख़ल लेगा?

मैंने ये ख़ास दास कबीर के लिए पोस्ट किया है। उन्हों ने बिनती की थी.

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Wednesday, April 22, 2009

गज़ब कानून..१...आतंकके ख़िलाफ़ जंग..

एक संस्मरण !

( अपनी श्रीन्ख्लासे एक ब्रेक लेके इस ज़रूरी संस्मरण को लिखना चाहती हूँ...वजह है अपने१५० साल पुराने, इंडियन एविडेंस एक्ट,(IEA) कलम २५ और २७ के तहेत बने कानून जिन्हें बदल ने की निहायत आवश्यकता है....इन कानूनों के रहते हमआतंकवाद या अन्य तस्करीसे निजाद पाही नही सकते...
इन कानूनों मेसे एक कानून के परिणामों का , किसीने आँखों देखा सत्य प्रस्तुत कर रही हूँ.....जिसपे आधारित एक सत्य घटनाका कहानीके रूपमे परिवर्तन करुँगी। डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल के अनुरोधपे " शोध दिशा" इस मासिक के लिए...)
CHRT( कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट्स इनिशियेटिव .....Commonwealth Human Rights Initiative), ये संघटना 3rd वर्ल्ड के तहेत आनेवाले देशों मे कार्यरत है।
इसके अनेक उद्दिष्ट हैं । इनमेसे,निम्लिखित अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है :
अपने कार्यक्षेत्र मे रिफोर्म्स को लेके पर्याप्त जनजागृती की मुहीम, ताकि ऐसे देशोंमे Human Rights की रक्षा की जा सके।
ये संघटना इस उद्दिष्ट प्राप्ती के लिए अनेक चर्चा सत्र ( सेमिनार) तथा debates आयोजित करती रहती है।
ऐसेही एक चर्चा सत्र का आयोजन, २००२ की अगस्त्मे, नयी देहली मे किया गया था। इस सत्र के अध्यक्षीय स्थानपे उच्चतम न्यायालयके तत्कालीन न्यायाधीश थे। तत्कालीन उप राष्ट्रपती, माननीय श्री भैरव सिंह शेखावत ( जो एक पुलिस constable की हैसियतसे ,राजस्थान मे कार्यरत रह चुके हैं), मुख्य वक्ता की तौरपे मौजूद थे।
उक्त चर्चासत्र मे देशके हर भागसे अत्यन्त उच्च पदों पे कार्यरत या अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों से ताल्लुक रखनेवाली हस्तियाँ मोजूद थीं : आला अखबारों के नुमाइंदे, न्यायाधीश ( अवकाश प्राप्त या कार्यरत) , आला अधिकारी,( पुलिस, आईएस के अफसर, अदि), वकील और अन्य कईं। अपने अपने क्षेत्रों के रथी महारथी। हर सरकारी मेहेकमेकों के अधिकारियों के अलावा अनेक गैर सरकारी संस्थायों के प्रतिनिधी भी वहाँ हाज़िर थे। (ngos)

जनाब शेखावत ने विषयके मर्मको जिस तरहसे बयान किया, वो दिलो दिमाग़ को झक झोर देने की क़ाबिलियत रखता है।
उन्होंने, उच्चतम न्यायलय के न्यायमूर्ती( जो ज़ाहिर है व्यास्पीठ्पे स्थानापन्न थे), की ओर मुखातिब हो, किंचित विनोदी भावसे क्षमा माँगी और कहा,"मेरे बयान को न्यायालय की तौहीन मानके ,उसके तहेत समन्स ना भेज दिए जाएँ!"
बेशक, सपूर्ण खचाखच भरे सभागृह मे एक हास्य की लहर फ़ैल गयी !
श्री शेखावत ने , कानूनी व्यवस्थाकी असमंजसता और दुविधाका वर्णन करते हुए कहा," राजस्थान मे जहाँ, मै ख़ुद कार्यरत था , पुलिस स्टेशन्स की बेहद लम्बी सीमायें होती हैं। कई बार १०० मीलसे अधिक लम्बी। इन सीमायों की गश्त के लिए पुलिस का एक अकेला कर्मचारी सुबह ऊँट पे सवार हो निकलता है। उसके साथ थोडा पानी, कुछ खाद्य सामग्री , कुछ लेखनका साहित्य( जैसे कागज़ पेन्सिल ) तथा लाठी आदि होता है।
"मै जिन दिनों की बात कर रहा हूँ ( और आजभी), भारत पाक सीमापे हर तरह की तस्करी, अफीम गांजा,( या बारूद तथा हथियार भी हुआ करते थे ये भी सत्य है.....जिसका उनके रहते घटी घटनामे उल्लेख नही था) ये सब शामिल था, और है।
एक बात ध्यान मे रखी जाय कि नशीले पदार्थों की कारवाई करनेके लिए ,मौजूदा कानून के तहेत कुछ ख़ास नियम/बंधन होते हैं। पुलिस कांस्टेबल, हेड कांस्टेबल, या सब -इंस्पेक्टर, इनकी तहकीकात नही कर सकता। इन पदार्थों की तस्करी करनेवाले पे, पंचनामा करनेकी विधी भी अन्य गुनाहों से अलग तथा काफी जटिल होती है।"
उन्होंने आगे कहा," जब एक अकेला पुलिस कर्मी , ऊँट पे सवार, मीलों फैले रेगिस्तानमे गश्त करता है, तो उसके हाथ कभी कभार तस्कर लगही जाता है।
"कानूनन, जब कोई मुद्देमाल पकडा जाता है, तब मौक़ाये वारदात पेही( और ये बात ह्त्या के केस के लिएभी लागू है ), एक पंचनामा बनाना अनिवार्य होता है। ऐसे पंचनामे के लिए, उस गाँव के या मुहल्ले के , कमसे कम दो 'इज्ज़तदार' व्यक्तियों का उपस्थित रहना ज़रूरी है।"

श्री शेखावत ने प्रश्न उठाया ," कोईभी मुझे बताये , जहाँ मीलों किसी इंसान या पानीका नामो निशाँ तक न हो , वहाँ, पञ्च कहाँ से उपलब्ध कराये जाएँ ? ? तो लाज़िम है कि , पुलिसवाला तस्करको पकड़ अपनेही ही ऊँट पे बिठा ले। अन्य कोई चारा तो होता ही नही।
"उस तस्करको पकड़ रख, वो पुलिसकर्मी सबसे निकटतम बस्ती, जो २०/ २५ किलोमीटर भी हो सकती है, ले जाता है। वहाँ लोगोंसे गिडगिडा के दो " इज्ज़तदार व्यक्तियों" से इल्तिजा करता है। उन्हें पञ्च बनाता है।
" अब कानूनन, पंचों को आँखों देखी हकीकत बयान करनी होती है। लेकिन इसमे, जैसाभी वो पुलिसकर्मी अपनी समझके अनुसार बताता है, वही हकीकत दर्ज होती है। "पञ्च" एक ऐसी दास्तान पे हस्ताक्षर करते हैं, जिसके वो चश्मदीद गवाह नही। लेकिन कानून तो कानून है ! बिना पंचानेमेके केस न्यायालय के आधीन होही नही सकता !!
" खैर! पंचनामा बन जाता है। और तस्कर या जोभी आरोपी हो, वो पुलिस हिरासतसे जल्द छूट भी जता है। वजह ? उसके बेहद जानकार वकील महोदय उस पुलिस केस को कानून के तहेत गैरक़ानूनी साबित करते हैं!!!तांत्रिक दोष...A technical flaw !
" तत्पश्च्यात, वो तस्कर या आरोपी, फिर से अपना धंदा शुरू कर देता है। पुलिस पे ये बंधन होता है की ३ माह के भीतर वो अपनी सारी तहकीकात पूरी कर, न्यायालयको सुपुर्द कर दे!! अधिकतर ऐसाही होता है, येभी सच है ! फिर चाहे वो केस, न्यायलय की सुविधानुसार १० साल बाद सुनवाईके लिए पेश हो या निपटाया जाय....!

"अब सरकारी वकील और आरोपी का वकील, इनमे एक लम्बी, अंतहीन कानूनी जिरह शुरू हो जाती है...."
फिर एकबार व्यंग कसते हुए श्री शेखावत जी ने कहा," आदरणीय जज साहब ! एक साधारण व्यक्तीकी कितनी लम्बी याददाश्त हो सकती है ? २ दिन २ माह या २ सालकी ??कितने अरसे पूर्व की बात याद रखना मुमकिन है ??
ये बेहद मुश्किल है कि कोईभी व्यक्ती, चश्मदीद गवाह होनेके बावजूद, किसीभी घटनाको तंतोतंत याद रखे !जब दो माह याद रखना मुश्किल है तब,१० सालकी क्या बात करें ??" (और कई बार तो गवाह मरभी जाते हैं!)
" वैसेभी इन २ पंचों ने (!!) असलमे कुछ देखाही नही था! किसीके " कथित" पे अपने हस्ताक्षर किए थे ! उस " कथन" का झूठ साबित करना, किसीभी वकील के बाएँ हाथका खेल है ! और वैसेभी, कानून ने तहेत किसीभी पुलिस कर्मी के( चाहे वो कित्नाही नेक और आला अफसर क्यों न हो ,) मौजूदगी मे दिया गया बयान ,न्यायलय मे सुबूतके तौरपे ग्राह्य नही होता ! वो इक़्बालिये जुर्म कहलाही नही सकता।( चाहे वो ह्त्या का केस हो या अन्य कुछ) ।(IEA ) कलम २५ तथा २७ , के तहेत ये व्यवस्था अंग्रेजों ने १५० साल पूर्व कर रखी थी, अपने खुदके बचाव के लिए,जो आजतक कायम है ! कोई बदलाव नही ! ज़ाहिरन, किसीभी पुलिस करमी पे, या उसकी बातपे विश्वास किया ही नही जा सकता ऐसा कानून कहता है!! फिर ऐसे केसका अंजाम क्या होगा ये तो ज़ाहिर है !"


10 comments:

AAKASH RAJ said...

आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .....

रचना गौड़ ’भारती’ said...

ब्लोगिंग जगत में स्वागत है
लगातार लिखते रहने के लि‌ए शुभकामना‌एं
कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
http://www.rachanabharti.blogspot.com
कहानी,लघुकथा एंव लेखों के लि‌ए मेरे दूसरे ब्लोग् पर स्वागत है
http://www.swapnil98.blogspot.com
रेखा चित्र एंव आर्ट के लि‌ए देखें
http://chitrasansar.blogspot.com

वन्दना अवस्थी दुबे said...

ब्लौग जगत में आपका स्वागत है...

Abhishek Mishra said...

अच्छा संस्मरण प्रस्तुत किया आपने. स्वागत

VisH said...

waah achha jabab.....

VisH said...

waah post ka jabab nahi....

नारदमुनि said...

wah aap ne to aag laga di, narayan narayan

Deepak Sharma said...

मेरी सांसों में यही दहशत समाई रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पर ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का क्या होगा।
अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है "दीपक" फिर दामन का क्या होगा।
@कवि दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.co.in
इस सन्देश को भारत के जन मानस तक पहुँचाने मे सहयोग दे.ताकि इस स्वस्थ समाज की नींव रखी जा सके और आवाम चुनाव मे सोच कर मतदान करे.
काव्यधारा टीम

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

हिमांशु पाण्डेय said...

हमारे अतीत वर्तमान ऒर भविष्य के साथ जुडी बहुत ही गम्भीर समस्या उजागर करने के लिए साधुवाद। अनेकानेक कानून एसे है जॊ आये दिन एसी समस्याएं उत्पन्न करते हैं अभी हाल ही में एक मुस्लिम पति ने अपनी पत्नी कॊ तलाक दे दिया(तीन बार बॊल के) कानूनी व्यवस्था यह है कि अब यदि वह दुबारा अपने पति के साथ रहना चाहे तॊ उसे किसी गैर मर्द के साथ विवाह करना पडेगा उसे बाद ही वह अपने पति के साथ कानूनी रूप से रह सकती है ४० वर्ष की आयु ऒर ३ बच्चॊ के साथ यह उस महिला के लिए कितनी विषम परिस्थिति उत्पन्न करता है। कानून मे समय एवं आवश्यकता के साथ परिवर्तन बेहद जरूरी है। आपके लेख के लिए एक बार फिर धन्यवाद

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गज़ब कानून...! २

जारी है, श्री शेखावत, भारत के माजी उपराष्ट्रपती के द्वारा दिए गए भाषण का उर्वरित अंश:
श्री शेखावतजी ने सभागृह मे प्रश्न उपस्थित किया," ऐसे हालातों मे पुलिसवालों ने क्या करना चाहिए ? कानून तो बदलेगा नही...कमसे कम आजतक तो बदला नही ! ना आशा नज़र आ रही है ! क़ानूनी ज़िम्मेदारियों के तहत, पुलिस, वकील, न्यायव्यवस्था, तथा कारागृह, इनके पृथक, पृथक उत्तरदायित्व हैं।

"अपनी तफ़तीश पूरी करनेके लिए, पुलिस को अधिकसे अधिक छ: महीनोका कालावधी दिया जाता है। उस कालावाधीमे अपनी सारी कारवाई पूरी करके, उन्हें न्यायालय मे अपनी रिपोर्ट पेश करनेकी ताक़ीद दी जाती है। किंतु, न्यायलय पे केस शुरू या ख़त्म करनेकी कोई समय मर्यादा नही, कोई पाबंदी नही ! "

शेखावतजीने ऐलानिया कहा," पुलिस तक़रीबन सभी केस इस समय मर्यादा के पूर्व पेश करती है!"( याद रहे, कि ये भारत के उपराष्ट्रपती के उदगार हैं, जो ज़ाहिरन उस वक्त पुलिस मेहेकमेमे नही थे....तो उनका कुछ भी निजी उद्दिष्ट नही था...नाही ऐसा कुछ उनपे आरोप लग सकता है!)
"अन्यथा, उनपे विभागीय कारवाई ही नही, खुलेआम न्यायलय तथा अखबारों मे फटकार दी जाती है, बेईज्ज़ती की जाती है!! और जनता फिर एकबार पुलिस की नाकामीको लेके चर्चे करती है, पुलिसकोही आरोपी के छूट जानेके लिए ज़िम्मेदार ठहराती है। लेकिन न्यायलय के ऊपर कुछभी छींटा कशी करनेकी, किसीकी हिम्मत नही होती। जनताको न्यायलय के अवमान के तहत कारवाई होनेका ज़बरदस्त डर लगता है ! खौफ रहता है ! "
तत्कालीन उप राष्ट्रपती महोदयने उम्मीद दर्शायी," शायद आजके चर्चा सत्र के बाद कोई राह मिल जाए !"
लेकिन उस चर्चा सत्रको तबसे आजतक ७ साल हो गए, कुछभी कानूनी बदलाव नही हुए।

उस चर्चा सत्र के समापन के समय श्री लालकृष्ण अडवानी जी मौजूद थे। ( केन्द्रीय गृहमंत्री के हैसियतसे पुलिस महेकमा ,गृहमंत्रालय के तहेत आता है , इस बातको सभी जानतें हैं)।
समारोप के समय, श्री अडवाणीजी से, (जो लोह्पुरुष कहलाते हैं ), भरी सभामे इस मुतल्लक सवाल भी पूछा गया। ना उन्ह्नों ने कोई जवाब दिया ना उनके पास कोई जवाब था।
बता दूँ, के ये चर्चा सत्र, नेशनल पुलिस commission के तहेत ( 1981 ) , जिसमे डॉ. धरमवीर ,ICS , ने , पुलिस reforms के लिए , अत्यन्त उपयुक्त सुझाव दिए थे, जिन्हें तुंरत लागू करनेका भारत के अत्युच्च न्यायलय का आदेश था, उनपे बेहेस करनेके लिए...उसपे चर्चा करनेके लिए आयोजित किया गया था। आजभी वही घिसेपिटे क़ानून लागू हैं।
उन सुझावों के बाद और पहलेसे ना जाने कितने अफीम गांजा के तस्कर, ऐसे कानूनों का फायदा उठाते हुए छूट गए...ना जाने कितने आतंकवादी बारूद और हथियार लाते रहे, कानून के हथ्थेसे छूटते गए, कितने बेगुनाह मारे गए, कितनेही पुलिसवाले मारे गए.....और कितने मारे जायेंगे, येभी नही पता।
ये तो तकरीबन १५० साल पुराने कानूनों मेसे एक उदाहरण हुआ। ऐसे कई कानून हैं, जिनके बारेमे भारत की जनता जानती ही नही।
मुम्बई मे हुए ,सन २००८, नवम्बर के बम धमाकों के बाद, २/३ पहले एक ख़बर पढी कि अब e-कोर्ट की स्थापना की जा रही है। वरना, हिन्दुस्तान तक चाँद पे पोहोंच गया, लेकिन किसी आतंक वादीके मौजूदगी की ख़बर लखनऊ पुलिस गर पुणे पुलिस को फैक्स द्वारा भेजती, तो न्यायलय उसे ग्राह्य नही मानता ...ISIका एजंट पुणे पुलिसको छोड़ देनेकी ताकीद न्यायलय ने की ! वो तो लखनऊसे हस्त लिखित मेसेज आनेतक, पुणे पुलिस ने उसपे सख्त नज़र रखी और फिर उस एजंट को धर दबोचा।
सम्पूर्ण

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रोई आँखें मगर....१

रोई आँखें मगर.......

मई महीनेकी गरमी भरी दोपहर थी.... घर से कही बाहर निकलने का तो सवालही नही उठता था।....सोचा कुछ दराजें साफ कर लू। कुछ कागजात ठीकसे फाइलोमे रखे जाएँ तो मिलनेमे सुविधा होगी....

मैं फर्शपे बैठ गई और अपने टेबल की सबसे निचली दराज़ खोली। एक फाइलपे लेबल था,"ख़त"। उसे खोलके देखने लग गई और बस यादोंकी नदीमे हिचकोले खाने लगी......वो दिन १५ मई का था .......दादाजीका जन्म दिन....!!!

पहलाही ख़त था मेरे दादाजीका...... बरसों पहले लिखा हुआ!!!पीलासा....लगा,छूनेसे टूट ना जाय!! बिना तारीख देखे,पहलीही पंक्तीसे समझ आया कि , ये मेरी शादीके तुरंत बाद उन्होंने अपनी लाडली पोतिको लिखा था!! कितने प्यारसे कई हिदायतें दी थी!!
"खाना बनते समय हमेशा सूती साड़ी पहना करो...."!"बेटी, कुछ ना कुछ व्यायाम ज़रूर नियमसे करना....सेहेतके लिए बेहद ज़रूरी है....."!
मैंने इन हिदायतोको बरसों टाल दिया था........ पढ़ते,पढ़ते मेरी आँखें नम होती जा रही थी.....औरभी उनके तथा दादीके लिखे ख़त हाथ लगे...बुढापे के कारन काँपते हाथोँ से लिखे हुए..... जिनमे प्यार छल-छला रहा था!!
ये कैसी धरोहर अचानक मेरे हाथ लग गई,जिसे मैं ना जाने कब भुला बैठी थी!!ज़हन मे सिर्फ़ दो शब्द समा गए ..."मेरा बाबुल"..."मेरा बचपन"!!

बाबुल.....इस एक लफ़्ज़्मे क्या कुछ नही छुपा? विश्वास,अपनत्व,बचपना,और बचपन,किशोरावस्था और यौवन के सपने,अम्मा-बाबाका प्यार, दादा-दादीका दुलार,भाई-बेहेनके खट्टे मीठे झगडे,सहेलियों के साथ बिताये निश्चिंत दिन..... खेले हुए खेल, सावनके झूले, रची हुई मेहँदी, खट्टी इमली और आम....... सायकल सीखते समय गिरना, रोना, और सँभालना,......बीमारीमे अम्मा या दादीको अपने पास से हिलने ना देना...... उनसे कई बार सुनी कहानियाँ बार-बार सुनना, लकडी के चूल्हेपे बना खाना और सिकी रोटियाँ....... लालटेन के उजालेमे की गई पढाई..... क्योंकि मेरा नैहर तो गाँव मे था...बल्कि गाँवके बाहर बने एक कवेलू वाले घरमे .....जहाँ मेरे कॉलेज जानेके बाद किसी समय बिजली की सुविधा आई थी...
सुबह रेहेट्की आवाज़से आँखें खुलती थी। रातमे पेडोंपे जुगनू चमकते थे और कमरोंमेभी घुस आते थे जिसकी वजहसे एक मद्धिम-सी रौशनी छाई रहती।
अपूर्ण

3 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

कई बार पुरानी यादों में खो जाना अच्छा लगता है.

शायदा said...

आप खु़शकि़स्‍मत हैं कि आपके पास एक ऐसा ख़त है जिसमें प्‍यार और वात्‍सल्‍य छलक रहा है, संभालकर रखिए इसे क्‍योंकि आने वाली जैनरेशन्‍स के पास ऐसे ख़त कहां होंगे....।

उन्मुक्त said...

यह कहानी है कि सत्य कथा?

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