Wednesday, April 22, 2009

जा, उड़ जारे पंछी ! (३)

अपनी बेटीसे माँ का मूक संभाषण...

दिन महीने बीतते गए और तेरी पढाई भी ख़त्म हुई। तुझे अवोर्ड भी मिला। मुझे बड़ी खुशी हुई। बस उसीके पहलेका तेरा शादीके बारेमे वो फ़ोन आया था। तेरे ब्याह्के एक-दो दिनों बाद ई मेल द्वारा मैंने तुझसे पूछा," यहांसे जो साडियां ले गयी थी, उनमेसे ब्याह के समय कौनसी पहनी तुने? और बाल कैसे काढे थे...जूडा बनाया था या की...?"
"अरे माँ, साडी कहाँ से पहेनती? समय कहाँ था इन सब का?? शर्ट और जींस पेही रजिस्ट्रेशन कर लिया।और जूडा क्या बनाना... बस पोनी टेल बाँध ली...."! तेरा सीधा,सरल,बडाही व्यावहारिक जवाब!

सूट केसेस भर-भर के रखी हुई दादी-परदादी के ज़मानेकी वो ज़रीकी किनारे, वो फूल,वो लेसेस, .....और न जाने क्या कुछ...जिनमेसे मै तेरे लिए एक संसार खडा करनेवाली थी...सबसे अलाहिदा एक दुल्हन सजाने वाली थी...सामान समेटते समय फिर एकबार सब बक्सोमे करीनेसे रखा गया, मलमल के कपडेमे लपेटके, नेपथलीन बोल्स डालके.....

कुछ कलावाधीके बाद तूने और राघव ने लिखा कि, तुम दोनोका वैदिक विधीसे विवाह हो, ऐसा उसके घरवाले चाहते हैं। अंतमे तय हुआ कि १५ दिसम्बर, ये आखरी शुभ मुहूर्त था, जो की तय किया गया। उसे अभी तकरीबन ७/८ महीनोका अवधी था। पर मुझमे एक नई जान आ गयी। हर दिन ताज़गी भरा लगने लगा.......

तू मुझे फेहरिस्त बना-बनाके भेजने लगी....माँ, मुझे मेरे घरके लिए तुम्हारे हाथों से बने लैंप शेड चाहियें..., और हाँ,फ्युटन कवर का नाँप भेज रही हूँ...कैसी डिज़ाइन बनाओगी??
परदोंके नाँप आए...मैंने परदे सी लिए...उन्हें बांधनेके लिए क्रोशियेकी लेस बनायी।" माँ! मै तुम्हारी दीवारोंपेसे मेरे पसंद के वालपीसेस ले जाऊँगी....!(ज़ाहिर था की वो सब मेरेही हाथों से बने हुए थे)!अच्छा, मेरे लिए टॉप्स खरीद्के रख लेना ,हैण्ड लूम के!....."
मैंने कुछ तो पार्सल से और कुछ आने-जाने वालों के साथ चीज़ें भेजनेका सिलसिला शुरू कर दिया। बिलकुल पारंपारिक, ख़ास हिन्दुस्तानी तौरतरीकों से बनी चीज़ें...कारीगरों के पास जाके ख़रीदी हुई....ये रुची तुझे मेरेसेही मिली थी।

तेरे ब्याह्के मौकेपे मुझे बोहोतसों को तोहफे देनेकी हार्दिक इच्छा थी...तेरे पिताके दोस्त तथा उनके परिवारवालों को, उनके सह्कारियोंको , मेरे ससुराल और मायके वालों को, मेरी अपनी सखी सहेलियों को...मैंने कबसे इन बांतों की तैय्यारी शुरू कर रखी थी... समय-समय पे होनेवाली प्रदर्शनियों से कुछ-कुछ खरीद के रख लिया करती थी...हरेक को उसकी पसंद के अनुसार मुझे भेंट देनी थी.....बोहोतसों को अपने हाथोसे बनी वस्तुएँ देनेकी मेरी चाह थी.....किसीकोभी, कुछभी होलसेलमे खरीदके पकडाना नही था।

कई बरसोंसे मैंने सोनेके सिक्के इकट्ठे किए थे...अपनी कमायीमेसे...उसमेसे तेरे लिए मै ख़ुद डिजाईन बनाके गहने घड़वाने लगी, एकदम परंपरागत ...माँ के लिए एक ख़ास तरीकेका गहना,जेठानीकी कुछ वैसासाही... तेरी मासीके लिए मूंगे और मोतीका कानका...रुनझुन के लिए कानके छोटे,छोटे झुमके...!तेरी सासुमाने तेरे लिए किस किस्म की साडियां लेनी चाहियें,इसकी एक फेहरिस्त मुझे भेज रखी थी। उनमे सफ़ेद या काला धागा ना हो ये ख़ास हिदायत थी!!फिरभी मै और तेरी मासी बार-बार वही उठा लाते जो नही होना चाहिए था, और मै दौड़ते भागते लौटाने जाया करती...!
क्रमशः

4 टिप्पणियाँ:

कंचन सिंह चौहान said...

bandahne waali post agli kadi kaa intazar hai

सागर नाहर said...

शमा जी
आपका ब्लॉग आज पहली बार ही देखा, एक पोस्ट पढ़ने के बाद इतना बढ़िया लगा कि पिछली दस-बारह पोस्ट भी पढ़ ली, पता नहीं आपकी लेखनी में क्या जादू है कि बाकी पोस्ट पढ़ने रुका नहीं जा रहा पर समय की कमी के चलते इसे कल पढ़ूंगा।
धन्यवाद
॥दस्तक॥
तकनीकी दस्तक
गीतों की महफिल

Udan Tashtari said...

आह्ह!! कितने अरमान होते हैं ऐसे विशेष मौकों के लिए...दिल की गहराई से उठते इमानदार भाव..अगली कड़ी का इन्तजार.

ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ said...

Pahli baar apke blog pe aaya hoon, par padh kar man prasann ho gaya.
Is pyari si post ke liye badhaayi.

0 comments:

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