Wednesday, April 22, 2009

जा, उड़ जारे पंछी ! (२)

एक माँ का, अपनी दूर रहनेवाली बेटीसे, मूक संभाषण.....

मेरी लाडली, तुझे पता है तेरा मुझे दिया सबसे बेहतरीन तोहफा कौनसा है, जो मै कभी नही भूल सकती? तुझे कैसे याद होगा? तू सिर्फ़ ३ वर्षकी तो थी। बस कुछ दिन पहलेही स्कूल जाना शुरू हुआ था तेरा। एक दिन स्कूलसे फोन आया के स्कूल बस तुझे लिए बिना निकल गयी है। मै भागी दौड़ी स्कूल पोहोंची। स्कूलके दफ्तर मे तुझे बिठाया गया था। सहमा हुआ -सा चेहरा था तेरा। मैंने तुझे अपने पास लिया तो तेरे गालपे एक आँसू अटका दिखा। मैंने धीरेसे उसे पोंछा तब तूने मुझसे कहा," माँ! मुझे लगा तुम्हे आनेमे अगर देर हो गयी तो मै क्या करुँगी? तब पता नही कहाँ से ये बूँद मेरे गालपे आ गयी?"
जानती है, आज मुझे लगता है, काश! मै उस बूँद को मोती बनाके एक डिबियामे रख सकती! तूने मुझे दिया सबसे पेशकीमती तोहफा था वो!!सहमेसे,भोले, मासूम गालपे बह निकली एक बूँद!
क्या याद करूँ क्या न करूँ??तेरा दसवीं का साल, फिर बारवीं का साल। तुझे हर क़िस्म की किताबें पढ़नेका बेहद शौक़ था/है। साहित्य/वांग्मय मे बोहोत रुची थी तुझे और समझभी। उसीतरह पर्यावरण के बारेमेभी तू बड़ी सतर्क रहती और उसमे रुची तो थीही। वास्तुशात्र भी पसंदका विषय था। हमें लगा, वास्तुशास्त्र करते हुए तू पहले दो विषयोंपे ज़रूर ध्यान दे सकेगी, लेकिन साहित्य करते,करते वास्तुशात्र नही मुमकिन था। अंतमे बारवीं के बाद तूने वास्तुशास्त्र की पढाई शुरू कर दी.....
वास्तुशास्त्र के तीसरे सालमे तू थी और तभी तेरा और राघव का परिचय हुआ। उसके पहले मै मनोमन तेरी किसकिस से जोड़ी जमाती रहती, गर तू सुनले तो बड़ा मज़ा आएगा तुझे!
तू और राघव एक दूजेके बारेमे संजीदा हो ये सुनके मुझे असीम खुशी हुई। अव्वल तो मै समझी के राघव अपनेही शेहेर का लड़का है...फिर पता चला की उसके माता-पिता बंगलौर मे रहते हैं और राघव छात्रावास मे रहके इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। हल्की-सी कसक हुई दिलमे...... लेकिन वो कसक चंद पलही रही.....

मै बोहोत उत्साहित थी। उसमे मुझे मेरी दादीका मिज़ाज मिला था! ना जाने कबसे उन्हों ने अपनी पोतीओं के लिए तरह तरह की चीज़ें बनाना तथा इकट्ठी करना शुरू कर दिया था!! वही मैंने तेरे लिए शुरू कर दिया!! अपने हाथों से चादरे बनाना, किस्म-किस्म के कुशन कवर्स सीना,patchwork करना , अप्लीक करना ,कढाई करना और ना जाने क्या,क्या!
खूबसूरत तौलिये इकट्ठे किए, परदे सिये, अपनी सारी कलात्मकता ध्यान मे रख के वोलपीसेस बनाये,सुंदर-सुंदर दरियाँ इकट्ठी कर ली........ हाथके बुने lampshades ,सिरामिक और पीतल तथा ताम्बे के फूलदान......कितनी फेहरिस्त बताऊँ अब!!
दादी-परदादीके ज़मानेकी सब लेसेस, किनारे,कढाई किए हुए पुर्जे, पुराने दुपट्टे, जिनपे खालिस सोनेसे कढाई की गयी थी, जालीदार कुर्तियाँ.....इन सबका इस्तेमाल करके मै तेरे लिए चोलियाँ सीनेवाली थी!! सबसे अलग, सबसे जुदा!!
३/४ बक्से ले आयी, उनमे नीचे प्लास्टिक बिछाया, हरेक चीज़की अलग पोटलियाँ बनी, प्लास्टिक के ऊपर नेप्थलीन balls डाले गए, और ये सब रखा गया। बस अब तेरी पढाई ख़त्म होनेका इन्तेज़ार था मुझे! नौकरी तो तुझे मिलनीही थी!!सपनों की दुनियामे मै उड़ने लगी......

और एक दिन पता चला के राघव आगेकी पढाई के लिए अमरीका जानेवाला है और तूभी आगेकी पढाई वहीँ करेगी और फिर नौकरीभी वहींपे......मेरे हर सपनेपे पानी फिर गया....आगेकी पढ़ईके लिए पहले राघव और एक सालके बाद तू,इसतरह दोनों चले गए....हम पती- पत्नीकी तरह वो बक्से भी बंजारों की भांती गाँव-गाँव, शेहेर-शेहेर घुमते रहे......

सालभर के बाद तू कुछ दिनोके लिए भारत आयी। हम सब तेरे भावी ससुराल, बंगलोर, हो आए। शादीकी तारीख तय करनेकी भरसक कोशिश की पर योग नही हुआ......

अमरीका जानेके पहलेसेही मुझे तेरे मिज़ाजमे कुछ बदलाव महसूस हुआ था। तू जल्दी-से छोटी-छोटी बातों पे चिड ने लगी थी...... तेरी सहनशक्ती कम हो गयी थी। मै गौर कर रही थी पर कुछ कर नही पा रही थी .......क्या इसकी वजह मेरी बिगड़ती हुई सहेत थी? तेरे दूर जानेके खायालसे दिमाग मे भरा नैराश्य था? जोभी हो, तू आयी और और उतनीही तेजीसे वापसभी लौट गयी। दोस्त-सहेलियाँ, खरीदारी,इन सबमेसे मेरे लिए तेरे पास समय बचाही नही। पहलेकी तरह हम दोनोमे कोई अन्तरंग बातें या गपशप होही नही पाई।
क्रमशः

3 टिप्पणियाँ:

vipinkizindagi said...

बहुत प्यारा। सुन्दर।

डा० अमर कुमार said...

बड़ा सिलसिलेवार लिखा है...कैसे एक एक छोटी बात भी सहेज कर
रख छोड़ी थी ? जैसे आज के लिये ही !

Udan Tashtari said...

बच्चे ऐसे ही बड़े हो जाते है...हम उनसे वही पुरानी उम्मीदें लिए बैठे रहते हैं. अच्छा लिख रहीं हैं, जारी रहिये.,

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जा, उड़ जारे पंछी ! (३)

अपनी बेटीसे माँ का मूक संभाषण...

दिन महीने बीतते गए और तेरी पढाई भी ख़त्म हुई। तुझे अवोर्ड भी मिला। मुझे बड़ी खुशी हुई। बस उसीके पहलेका तेरा शादीके बारेमे वो फ़ोन आया था। तेरे ब्याह्के एक-दो दिनों बाद ई मेल द्वारा मैंने तुझसे पूछा," यहांसे जो साडियां ले गयी थी, उनमेसे ब्याह के समय कौनसी पहनी तुने? और बाल कैसे काढे थे...जूडा बनाया था या की...?"
"अरे माँ, साडी कहाँ से पहेनती? समय कहाँ था इन सब का?? शर्ट और जींस पेही रजिस्ट्रेशन कर लिया।और जूडा क्या बनाना... बस पोनी टेल बाँध ली...."! तेरा सीधा,सरल,बडाही व्यावहारिक जवाब!

सूट केसेस भर-भर के रखी हुई दादी-परदादी के ज़मानेकी वो ज़रीकी किनारे, वो फूल,वो लेसेस, .....और न जाने क्या कुछ...जिनमेसे मै तेरे लिए एक संसार खडा करनेवाली थी...सबसे अलाहिदा एक दुल्हन सजाने वाली थी...सामान समेटते समय फिर एकबार सब बक्सोमे करीनेसे रखा गया, मलमल के कपडेमे लपेटके, नेपथलीन बोल्स डालके.....

कुछ कलावाधीके बाद तूने और राघव ने लिखा कि, तुम दोनोका वैदिक विधीसे विवाह हो, ऐसा उसके घरवाले चाहते हैं। अंतमे तय हुआ कि १५ दिसम्बर, ये आखरी शुभ मुहूर्त था, जो की तय किया गया। उसे अभी तकरीबन ७/८ महीनोका अवधी था। पर मुझमे एक नई जान आ गयी। हर दिन ताज़गी भरा लगने लगा.......

तू मुझे फेहरिस्त बना-बनाके भेजने लगी....माँ, मुझे मेरे घरके लिए तुम्हारे हाथों से बने लैंप शेड चाहियें..., और हाँ,फ्युटन कवर का नाँप भेज रही हूँ...कैसी डिज़ाइन बनाओगी??
परदोंके नाँप आए...मैंने परदे सी लिए...उन्हें बांधनेके लिए क्रोशियेकी लेस बनायी।" माँ! मै तुम्हारी दीवारोंपेसे मेरे पसंद के वालपीसेस ले जाऊँगी....!(ज़ाहिर था की वो सब मेरेही हाथों से बने हुए थे)!अच्छा, मेरे लिए टॉप्स खरीद्के रख लेना ,हैण्ड लूम के!....."
मैंने कुछ तो पार्सल से और कुछ आने-जाने वालों के साथ चीज़ें भेजनेका सिलसिला शुरू कर दिया। बिलकुल पारंपारिक, ख़ास हिन्दुस्तानी तौरतरीकों से बनी चीज़ें...कारीगरों के पास जाके ख़रीदी हुई....ये रुची तुझे मेरेसेही मिली थी।

तेरे ब्याह्के मौकेपे मुझे बोहोतसों को तोहफे देनेकी हार्दिक इच्छा थी...तेरे पिताके दोस्त तथा उनके परिवारवालों को, उनके सह्कारियोंको , मेरे ससुराल और मायके वालों को, मेरी अपनी सखी सहेलियों को...मैंने कबसे इन बांतों की तैय्यारी शुरू कर रखी थी... समय-समय पे होनेवाली प्रदर्शनियों से कुछ-कुछ खरीद के रख लिया करती थी...हरेक को उसकी पसंद के अनुसार मुझे भेंट देनी थी.....बोहोतसों को अपने हाथोसे बनी वस्तुएँ देनेकी मेरी चाह थी.....किसीकोभी, कुछभी होलसेलमे खरीदके पकडाना नही था।

कई बरसोंसे मैंने सोनेके सिक्के इकट्ठे किए थे...अपनी कमायीमेसे...उसमेसे तेरे लिए मै ख़ुद डिजाईन बनाके गहने घड़वाने लगी, एकदम परंपरागत ...माँ के लिए एक ख़ास तरीकेका गहना,जेठानीकी कुछ वैसासाही... तेरी मासीके लिए मूंगे और मोतीका कानका...रुनझुन के लिए कानके छोटे,छोटे झुमके...!तेरी सासुमाने तेरे लिए किस किस्म की साडियां लेनी चाहियें,इसकी एक फेहरिस्त मुझे भेज रखी थी। उनमे सफ़ेद या काला धागा ना हो ये ख़ास हिदायत थी!!फिरभी मै और तेरी मासी बार-बार वही उठा लाते जो नही होना चाहिए था, और मै दौड़ते भागते लौटाने जाया करती...!
क्रमशः

4 टिप्पणियाँ:

कंचन सिंह चौहान said...

bandahne waali post agli kadi kaa intazar hai

सागर नाहर said...

शमा जी
आपका ब्लॉग आज पहली बार ही देखा, एक पोस्ट पढ़ने के बाद इतना बढ़िया लगा कि पिछली दस-बारह पोस्ट भी पढ़ ली, पता नहीं आपकी लेखनी में क्या जादू है कि बाकी पोस्ट पढ़ने रुका नहीं जा रहा पर समय की कमी के चलते इसे कल पढ़ूंगा।
धन्यवाद
॥दस्तक॥
तकनीकी दस्तक
गीतों की महफिल

Udan Tashtari said...

आह्ह!! कितने अरमान होते हैं ऐसे विशेष मौकों के लिए...दिल की गहराई से उठते इमानदार भाव..अगली कड़ी का इन्तजार.

ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ said...

Pahli baar apke blog pe aaya hoon, par padh kar man prasann ho gaya.
Is pyari si post ke liye badhaayi.

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जा, उड़ जारे पंछी ! (४)

Friday, July 4, 2008

जा, उड़ जारे पंछी!४)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संभाषण.)

सितम्बर के माह मे तेरे पिता का महाराष्ट्र के डीजीपी के हैसियतसे बढोत्री हुई। इत्तेफाक़न उस समय मै अस्पतालमे थी और इस खुशीके मौकेका घरपे रहके आनंद न उठा सकी !पर सपनेभी जो बात मुझे सच न लगती वो बात हो गयी!हमें सरकारकी ओरसे वही फ्लैट मिला जिसमे हम १० वर्ष पूर्व मुंबई की पोस्टिंग मे रह चुके थे...वही बेहद प्यारे पड़ोसी, जिन्हें मै अपना हिदी कथा संग्रह समर्पित कर चुकी थी!!हमें इस फ्लैट मे रहनेका ७ माह से ज्यादा मौक़ा नही मिलनेवाला था, लेकिन मेरी खुशीकी कोई सीमा न थी!!हम पड़ोसियों के दरवाज़े हमेशा एक दूसरेके लिए खुलेही रहा करते थे!

अस्पताल से लौटतेही मैंने अपना साजों -सामाँ नए फ्लैट मे सजा लिया। कुल दो दिनही गुज़रे थे कि, एक खबरने मुझे हिला दिया। हमारे पड़ोसी, जो IAS के अफसर थे,और निहायत अच्छे इंसान उन्हें कैंसर का निदान हो गया। पूरे परिवार ने इस बातको बोहोत बहादुरी से स्वीकारा। उनकी जब शल्य चिकित्छा हुई तब उनके घर लौटने से पहले,मैंने उस घरको भी उसी तरह सजाके रखा,जैसे वो घरभी शादीका हो!!
वे घर आए तो एक बच्चे की तरह खुशी से उछल पड़े !मैंने और उनकी पत्नी, ममता ने मिलके लिफ्ट के आगेकी कॉमन लैंडिंग भी ऐसे सजायी के आनेवाले को समझ ना आए किस फ्लैट के लिए मुड़ना है! छोटी-सी बैठक, गमले,फूलोंके हार, निरंजन, रंगोली,.....पता नही और क्या कुछ!!उनके घरके लिए मैंने वोल पीसेस भी बनाये थे। नेम प्लेट भी एकदम अलग हटके बनायी। कॉमन लैंडिंग मे भी मैंने फ्रेम किए हुए वाल्पीसेस सजा दिए। ममता ने अपनी माँ की पुरानी ज़रीदार साडियोंको सोफा के दोनों और सजा दिया। कभी भी इससे पहले नए घरमे समान हिलानेमे मुझे इतनी खुशी नही हुई थी जितनी के तब! सिर्फ़ दिलमे एक कसक थी....रमेशजी का कैंसर!!उन्हें तेरे ब्याह्का कितना अरमान था। ऐसी हालत मेभी वो बंगलौर आनेकी तैयारी कर रहे थे। महारष्ट्र मे विधानसभाका सर्दियोंका सेशन नागपूर मे होता है। वे सीधा वहीं से आनेवाले थे। हम सोचते क्या हैं और होता क्या है....!वो दोनों हमारे घर तेरी मेहेंदीके समारोह के लिएभी न आ सके!उनका कीमोका सेशन था उस दिन!मुंबई के स्वागत समारोह मेभी आ न सके क्योंकि नागपूर का सेशन एक दिन देरीसे ख़त्म हुआ। तेरे ब्याह्के कुछ ही दिनोबाद उनके लिवर का भी ओपरेशन कराना पडा। आज ठीक एक वर्ष पूर्व उस अत्यन्त बहादुर और नेक इंसान का देहांत हो गया। खैर! उनकी बात चली तो मै कहाँ से कहाँ बह निकली....लौटती हूँ गृहसज्जा की ओर...
घर हर तरहसे,हर किस्म से श्रृंगारित करने लगी मै। शादीके दिनोमे मेहमान आयेंगे, तू आयेगी, बल्कि तुम दोनों आयोगे इस लिहाज़ से घर साफ़- सुंदर दिखना था। क्या करुँ ,क्या न करूँ....हाँ लिफ्टके प्रवेशद्वारपे जहाँ servant क्वार्टर की ओर सीढीयाँ जाती थी , वहांभी परदे लग गए...बीछो-बीछ खूबसूरत-सी दरी डाली गयी...शुभेन्द्र तथा पुन्यश्री , ममताके दोनों बच्चे , उन्हेभी उतनाही उत्साह था। मेरे भी सरपे एक जुनून सवार था। तेरे पिता तो नागपूर मे थे...काफी जिम्मेदारियाँ मुझपे आन पडी थी। आमंत्रितों की फेहरिस्त बनाना...हर शेहेर्मे किसी एक नज़दीकी दोस्तको अपने हाथोंसे पत्रिका बाँट नेकी बिनती करना...उसी समय,उनको तोह्फेभी पोहोचा देना...बंगलोर की BSF मेस के कैम्पस मे किसको कहाँ ठहराना ...किसकी किसके साथ पटेगी ये सब सोंच -विचारके!! जबकी मेस मैंने देखीही नही थी... सब कागज़ के प्लान देखके तय करना था!!
और तेरे आनेका दिन करीब आने लगा....जिस दिन तू आयेगी...उस दिन तुम्हारे कमरेमे कौनसा बेड कवर बिछेगा??कौनसे परदे लगेंगे??कौनसा गुलदान,कौनसे फूल??पीले गुलाब, पीली सेवंती, साथ लेडीस लैस...यहाँ सिरामिक का गुलदान,यहाँ,पीतल का,यहाँ ताम्बेका...ये राजस्थानी वंदनवार। कब दिन निकलता और कब डूबता पताही नही चलता।
क्रमश

1 टिप्पणियाँ:

DR.ANURAG said...

कहते है ना एक मौन भी कभी कभी किसी संवाद से बेहतर होता है.....आपका मूक संवाद भी बेहद भावुक ओए सच्चा है.....

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जा उड़ जारे पंछी...! ५

जा, उड़ जारे पंछी!५)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

मै घरके बीछो बीछ खडी रहती और नज़र हर ओर तेज़ीसे घुमाती..... रसोई मे नारंगी रंगका लैंप शेड..और दीवारपे नीला कैंडल स्टैंड...कोनेमे ये चार फ्रेम्स, सिरेमिक टाइल पे लगी ये खूँटी, रसोई के सिंक के पास...पीले तथा केसरिया रंगों की पैरपोंछ्नियाँ... ...!!और,हाँ...स्नानगृह भी बैठक जितनाही सुंदर दिखना चाहिए....!!तो ये यहाँ बड़े तौलिये, ये छोटे तौलिये, यहाँ भी छोटी-छोटी फ्रेम्स ...नयी साबुनदानी लानी होगी...कांचके शेल्फ पे फूलदान...स्नेहल से कहूंगी ...उसके नीचेवाले फूलवाले को ख़बर देनेके लिए....रोज़ लम्बी टहनी के फ़ूल ला देगा , कभी पीले गुलाब,कभी सेवंती,साथ ताज़े पत्ते भी...

तेरी चोलियाँ सीने के लिए मै नासिक से पुराना दर्जी बुलानेवाली थी...आके यहीं रहने वाला था...बक्सों मेसे सारी-के सारी किनारे बाहर निकाली गयी,लेसेस निकली, जालियाँ निकली, ज़रीके फूल निकले....हाँ, इस चोलीपे ये लेस अच्छी लगेगी, इसवालेपे ये किनार...इसकी आस्तीनें इसतरह सिलवानी हैं...पीठपे ये ज़र सजेगी....ओहो!!राघव के लिए अभी चूडीदार पजामे-कुरते लाने हैं !!

दिनभर का सब ब्योरा मै तुझे इ-मेल करती। एक दिन तूने लिखा,माँ अब बसभी करो तैय्यारियाँ....!!
और मैंने जवाब मे लिखा, मुझे हर एक पल पूरी तरह जीना है..."इस पलकी छाओं मे उस पलका डेरा है, ये पल उजाला है, बाकी अँधेरा है,ये पल गँवाना ना, ये पलही तेरा है,जीनेवाले सोंच ले,यही वक्त है,करले तू पूरी आरज़ू ...
आगेभी जाने ना तू, पीछेभी जाने ना तू, जोभी है, बस यही एक पल है"!(पंक्तियों का सिलसिला ग़लत हो सकता है!)
सच, मेरी ज़िंदगी के वो स्वर्णिम क्षण थे...कभी ना लौटके आनेवाले लम्हें...भरपूर आनंद उठाना मुझे उन सब लम्हों का...!

अरे, तुझे कौनसी फ्रेम्स अच्छी लगेंगी सबसे अधिक?? मै पूछ ही लेती!!तू कहती सारीके सारी...लेकिन ले नही जा पाऊँगी...!!
उफ़!!चूडियाँ औरबिंदी लानी है है ना अभी!!

और अचानक से किसी संथ क्षण, मनमे ख़याल झाँक जाता...पगली!!होशमे आ...संभाल अपनेआपको...सावध हो जा...चुटकी बजातेही ये दिन ख़त्म हो जायेंगे...फिर इसी जगह खडी रहके तू इन सजी दीवारों को भरी हुई आंखों से निहारेगी...चुम्हलाया हुआ घर सवारेगी-संभालेगी..वोभी कुछ ही दिनों के लिए....इनका सेवा निवृत्ती का समय बस आनेही वाला है...बंजारे अपने आख़री मकाम के लिए चल देंगे....!

इनके DGPke हैसियतसे जो सेवा काल रहा, उसमे मैंने कुछ एहेम ज़िम्मेदारियाँ निभानी थी..एक तो तेरी शादी, जिसमे गलतीसे भी किसीको आमंत्रित ना करना बेहद बड़ी भूल होगी...IPS अफसरों के एसोसिशन की अध्यक्षा की तौरपे मैंने, हर स्तर के अफ्सरानके पत्नियोंको अपने संस्मरण लिख भेजनेके लिए आमंत्रित किया था। इस तरह का ये पहला अवसर था,जब अफसरों की अर्धान्गिनियाँ अपने संस्मरण लिखनेवाली थीं...और वो प्रकाशित होनेवाले थे.." WE THE WIVES".द्विभाषिक किताबकी मराठी आवृत्ती का नाम था,"सांग मना, ऐक मना"। हिन्दीमे," कह मेरे दिल,सुन मेरे दिल"। साथ ही मेरी किताबोंका प्रकाशन होना था। नासिक मे स्टेट पोलिस गेम्सका आयोजन करना था। और उतनाही एहेम काम...पुनेमे रहनेके लिए फ्लैट खोजना था......

जैसा मैंने सोंचा था, वैसाही हुआ। एक तूफानकी तरह तुम दोनों आए, साथ मेहमान भी आए, घर भर गया, शादीका घर, शादीकी जल्दबाजी!!सारा खाना मैही बनाती...फूल सजते...चादरें रोज़ नयी बिछाती....बैठक मेभी हर रोज़ नयी साज-सज्जा करती। ये मौक़ा फिर न आना था....
क्रमशः।

1 टिप्पणियाँ:

डा० अमर कुमार said...

बाँधे हुये है..अब तक !
फिर, आगे ?

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जा उड़ जारे पंछी...!(अन्तिम)

Sunday, July 6, 2008

जा,उड़ जारे पंछी!६)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

और फिर तेरे सिंगारके दिन शुरू हो गए!!तुझे शोर शराबा पसंद नही था। संगीत जैसे किसी कार्यक्रमका आयोजन नही था,लेकिन इस मौके के लिए मौज़ूम हों, ऐसे कुछ ख़ास गीत CDs मे टेप करा लिए थे...सब पुराने, मीठे, शीतल, कानोको सुहाने लगनेवाले !धीमी आवाजमे वो बजते रहे,लोग आते जाते रहे, खानपान होता रहा। मेरी अपनी कुछ सहेलियों को तथा कुछ रिश्तेदारों को मै वर्षों बाद मिलनेवाली थी!

तेरी हथेलियों तथा पगतलियों पे हीना सजने लगी तो मेरी आँखें झरने लगी। इतनी प्यारी लगी तू के मैंने अपनी आँखों से काजल निकाल तेरे कानके पीछे एक टीका लगा दिया। हर माँ को अपनी बेटी सुंदर लगती है,और हर दुल्हन अपनी-अपनी तौरसे बेहद सुंदर होती है....

हिना लगनेके दूसरे दिन बंगलोर के लिए प्रस्थान..... वहाँ के अलग रीतरिवाज...तेरे कपड़े,साडियाँ,ज़ेवरात,कँगन-चूडियाँ, तेरा सादा-सादा लेकिन मोहक सिंगार....यही मेरी दुनिया बन गयी!!मैंने बिलकुल अलग ढंगसे तेरी चोलियाँ सिलवायीं थी...... काफी पुराने बंगाली ढंग का मुझपे असर था...... मेरी बालिका वधु!!ये ख़याल जैसा मेरे मनमे आया वैसाही तेरी मासी के मनमेभी आया.... तेरी साडियाँ,चोलियाँ,जेवरात सबकुछ बेहद सराहा गया....

फेरे ख़त्म हुए और मेरे मनका बाँध टूट गया!! अपनी माँ के गले लग मैंने अपने आसूँओ को राहत देदी। उस वक्त की वो तस्वीर....एक माँ,दूसरी माँ के गले लग रो रही थी...एक माँ अपनी बिटियासे कह रही थी...यही तो जगरीत है मेरी बच्ची ...आज तेरी दुनिया तुझसे जुदा हो रही है...सालों पहले मैनेभी अपनी दुनियाको ऐसेही बिदा कर दिया था!....

मेरे वो रिमझिम झरते नयनभी तेरे गालों पे कुछ तलाश रहे थे....बस एक बूँद जो बरसों पहले तूने मुझे भेंट की थी....बस एक बूँद अपनी तर्जनी पे लेके कुछ पल उसे मै तेरी तरफसे मुझे मिला सबसे हसीन तोहफा समझने वाली थी!!सिर्फ़ एक मोती!!पर उस वक्त मै वो तोह्फेसे वंचित रह गयी....

और मुंबई का वो स्वागत समारोह! उसके अगलेही दिन तू फिर बंगलोर, अपनी ससुराल चली गयी। तेरे लौटने के दो दिनों बाद राघव आ गया.....

तुम्हारी बिदायीके उन आखरी दो दिनोमे मै लगातार बातें करती रही। कबके भूले बिसरे प्रसंग,किस्से याद करती रही...उस बडबड के पीछे कारण था.....मुझे अपने मनकी अस्वस्थता,चलबिचल, तेरे बिरह्के आँसू, और न जानू क्या कुछ छुपाना था....तुझे हवाई अड्डे पे से लाने गयी थी, तब भी मैंने इसीतरह लगातार बातें की थी,साथ आयी तेरी मासी के पास....अति उत्साह और हजारों शंका कुशंकाएँ....सब मुझे दुनियासे छुपाना था!!
क्या अब तू सच मे पराई हो गयी?तुझे एक किसी इख्तियारसे कुछ कहनेके दिन बीत गए??

"चलो,चलो सामान नीचे ले जाना शुरू करो....!"तेरे पिताकी आवाज़। आख़री वक़त मैंने तेरी ९ वार की कांजीवरम से दो खूबसूरत रजाईयाँ बना डाली!!कमसे तुम दोनों उसे देख तो सकोगे इस बहने, इस्तेमाल तो होंगी...वरना वहाँ पड़े,पड़े उनका क्या हश्र होता??राघव ने ख़रीदी हुई किताबे निकालके इनकी बक्सों मे जगह बना ली। मैंने बादमे सी-मेल से उन किताबोंको भेज देनेका सोंच लिया...

हम सब परिवारवाले तुझे बिदा करने नीचे आ गए। विमान सुबह ४ बजे उडनेवाला था। मुझे सभी ने हवाई अड्डे पे जानेसे रोका। तेरे पिता और भाई गाडीमे बैठे, साथ तू और राघव भी.....

उस एक मोतीकी चाह अब भी, अधूरी ही रह गयी...अब तेरा मेरा ये बिरह कितने दिनोका??गाडी चल पडी तो मन बोला, जा मेरे प्यारे पंछी...जा उड़ जा....उड़ जा अपने आसमान मे दूर,दूर, ऊचाईयों तक पोहोंच जा...!लेकिन मेरी चिडिया,जब कभी माँ याद आए,इस घोंसलेमे उडके चली आना...मेरे पंखोंसे अधिक सुरक्षित,शीतल जगह तुझे दुनिया मे दूसरी कोई नही मिलेगी। थक जाए तो विश्राम के लिए चली आना। अब तो हमारे आकाशभी अलग-अलग हो गए हैं...तेरे आकाशमे मुक्त उड़ान भर ले मेरे बच्चे!!पर इस घोंसलेको भुला न देना!!
जब तेरी दुनिया मे सूरज पूरबमे लालिमा बिखेरेगा,तब मेरे यहाँ सूनी-सी शाम ढलेगी...तभी तो लगता है, हमारे आसमान,हमारे क्षितिज अब कितने जुदा हो गए??

समाप्त

4 टिप्पणियाँ:

डा० अमर कुमार said...

*****


पढ़कर मानो लफ़्ज़ों की मोहताज़ी से बावस्ता हूँ, चुनाँचे आज...फिर, वही..... ओहः ह !

महामंत्री-तस्लीम said...

माँ और बेटी का सम्बंध भी निराला है। यह श्रंखला संबंधों के कई नए आयाम खोल रही है।

vipinkizindagi said...

बहुत अच्छा लिखा है उस के लिए बधाई
एक शेर मेरा ........
वक़्त की रेत पे कुछ एसे निशान छोड़ते चलो,
की याद करे ज़माना, कुछ एसी यादे छोड़ते चलो,

Rachna Singh said...

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जा उड़ जारे पंछी ! (अन्तिम)

जा,उड़ जारे पंछी!६)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

और फिर तेरे सिंगारके दिन शुरू हो गए!!तुझे शोर शराबा पसंद नही था। संगीत जैसे किसी कार्यक्रमका आयोजन नही था,लेकिन इस मौके के लिए मौज़ूम हों, ऐसे कुछ ख़ास गीत CDs मे टेप करा लिए थे...सब पुराने, मीठे, शीतल, कानोको सुहाने लगनेवाले !धीमी आवाजमे वो बजते रहे,लोग आते जाते रहे, खानपान होता रहा। मेरी अपनी कुछ सहेलियों को तथा कुछ रिश्तेदारों को मै वर्षों बाद मिलनेवाली थी!

तेरी हथेलियों तथा पगतलियों पे हीना सजने लगी तो मेरी आँखें झरने लगी...... इतनी प्यारी लगी तू के, मैंने अपनी आँखों से काजल निकाल तेरे कानके पीछे एक टीका लगा दिया....... हर माँ को अपनी बेटी सुंदर लगती है,और हर दुल्हन अपनी-अपनी तौरसे बेहद सुंदर होती है.......

हीना लगनेके दूसरे दिन बंगलोर के लिए प्रस्थान..... वहाँ के अलग रीतरिवाज...तेरे कपड़े,साडियाँ,ज़ेवरात,कंगन-चूडियाँ, तेरा सादा-सादा लेकिन मोहक सिंगार....यही मेरी दुनिया बन गयी!!मैंने बिलकुल अलग ढंगसे तेरी चोलियाँ सिलवायीं थी। काफी पुराने बंगाली ढंग का मुझपे असर था। मेरी बालिका वधु!!ये ख़याल जैसा मेरे मनमे आया वैसाही तेरी मासी के मनमेभी आया........ तेरी साडियाँ,चोलियाँ,जेवरात सबकुछ बेहद सराहा गया।

फेरे ख़त्म हुए और मेरे मनका बाँध टूट गया!! अपनी माँ के गले लग मैंने अपने आसूँओ को राहत देदी। उस वक्त की वो तस्वीर....एक माँ,दूसरी माँ के गले लग रो रही थी...एक माँ अपनी बिटियासे कह रही थी...यही तो जगरीत है मेरी बच्ची ...आज तेरी दुनिया तुझसे जुदा हो रही है...सालों पहले मैनेभी अपनी दुनियाको ऐसेही बिदा कर दिया था!....
मेरे वो रिमझिम झरते नयनभी तेरे गालों पे कुछ तलाश रहे थे....बस एक बूँद जो बरसों पहले तूने मुझे भेंट की थी....बस एक बूँद अपनी तर्जनी पे लेके कुछ पल उसे मै तेरी तरफसे मुझे मिला सबसे हसीन तोहफा समझने वाली थी!!सिर्फ़ एक मोती!!पर उस वक्त मै वो तोह्फेसे वंचित रह गयी....

और मुंबई का वो स्वागत समारोह! उसके अगलेही दिन तू फिर बंगलोर, अपनी ससुराल चली गयी। तेरे लौटने के दो दिनों बाद राघव आ गया........

तुम्हारी बिदायीके उन आखरी दो दिनोमे मै लगातार बातें करती रही। कबके भूले बिसरे प्रसंग,किस्से याद करती रही...उस बडबड के पीछे कारण था.....मुझे अपने मनकी अस्वस्थता,चलबिचल, तेरे बिरह्के आँसू, और न जानू क्या कुछ छुपाना था....तुझे हवाई अड्डे पे से लाने गयी थी, तब भी मैंने इसीतरह लगातार बातें की थी,साथ आयी तेरी मासी के पास....अति उत्साह और हजारों शंका कुशंकाएँ....सब मुझे दुनियासे छुपाना था!!
क्या अब तू सच मे पराई हो गयी?तुझे एक किसी इख्तियारसे कुछ कहनेके दिन बीत गए??

"चलो,चलो सामान नीचे ले जाना शुरू करो....!"तेरे पिताकी आवाज़। आख़री वक़त मैंने तेरी ९ वार की कांजीवरम से दो खूबसूरत रजाईयाँ बना डाली!!कमसे तुम दोनों उसे देख तो सकोगे इस बहने, इस्तेमाल तो होंगी...वरना वहाँ पड़े,पड़े उनका क्या हश्र होता??राघव ने ख़रीदी हुई किताबे निकालके इनकी बक्सों मे जगह बना ली। मैंने बादमे सी-मेल से उन किताबोंको भेज देनेका सोंच लिया....

हम सब परिवारवाले तुझे बिदा करने नीचे आ गए। विमान सुबह ४ बजे उडनेवाला था। मुझे सभी ने हवाई अड्डे पे जानेसे रोका। तेरे पिता और भाई गाडीमे बैठे, साथ तू और राघव भी......
उस एक मोतीकी चाह अधूरी ही रह गयी...अब तेरा मेरा ये बिरह कितने दिनोका??गाडी चल पडी तो मन बोला, जा मेरे प्यारे पँछी...जा उड़ जा....उड़ जा अपने आसमान मे दूर,दूर, ऊचाईयों तक पोहोंच जा...!लेकिन मेरी चिडिया,जब कभी माँ याद आए,इस घोंसलेमे उडके चली आना...मेरे पंखोंसे अधिक सुरक्षित,शीतल जगह तुझे दुनिया मे दूसरी कोई नही मिलेगी। थक जाए तो विश्राम के लिए चली आना। अब तो हमारे आकाशभी अलग-अलग हो गए हैं...तेरे आकाशमे मुक्त उड़ान भर ले मेरे बच्चे!!पर इस घोंसलेको भुला न देना!!

जब तेरी दुनिया मे सूरज पूरबमे लालिमा बिखेरेगा,तब मेरे यहाँ सूनी-सी शाम ढलेगी...तभी तो लगता है, हमारे आसमान,हमारे क्षितिज अब कितने जुदा हो गए??

समाप्त

4 टिप्पणियाँ:

डा० अमर कुमार said...

*****


पढ़कर मानो लफ़्ज़ों की मोहताज़ी से बावस्ता हूँ, चुनाँचे आज...फिर, वही..... ओहः ह !

महामंत्री-तस्लीम said...

माँ और बेटी का सम्बंध भी निराला है। यह श्रंखला संबंधों के कई नए आयाम खोल रही है।

vipinkizindagi said...

बहुत अच्छा लिखा है उस के लिए बधाई
एक शेर मेरा ........
वक़्त की रेत पे कुछ एसे निशान छोड़ते चलो,
की याद करे ज़माना, कुछ एसी यादे छोड़ते चलो,

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आँखें थक ना जायें....

आओ, मेरे लाडलों, लौट आओ !!!

ऑंखें थक ना जाएँ !!

(एक माँ के दर्द की कहानी, उसीकी ज़ुबानी)

हमारा कुछ साल पेहेले जब मुम्बई से पुणे तबादला हुआ तो मेरी बेटी वास्तुशाश्त्र के दूसरे साल मे पढ़ रही थी । सामान ट्रक मे लदवाकर जब हम रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हुए तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा मेरे ज़हन मे आज भी ताज़ा है।

हमने उसे मुम्बई मे ही छोड़ने का निर्णय लिया था। पेहेले पी.जी. की हैसियत से और फिर होस्टल मे। उसे मुम्बई मे रेहेना बिलकुल भी अच्छा नही लगता था। वहाँ की भगदड़ ,शोर और मौसम की वजह से उसे होनेवाली अलेर्जी, इन सभी से वो परेशान रहती। पर उस वक़्त हमारे पास दूसरा चाराभी नही था।


जब हमने उस से बिदा ली तो मेरी माँ के अल्फाज़ बिजली की तरह मेरे दिमाग मे कौंध गए। सालों पूर्व जब वो मेरी पढ़ाई के लिए होस्टल मे छोड़ने आयी थी ,उन्होने अपनी सहेली से कहा था,"अब तो समझो ये हमसे बिदा हो गयी!जो कुछ दिन छुट्टियों मे हमारे पास आया करेगी,बस उतनाही उसका साथ। पढायी समाप्त होते,होते तो इसकी शादीही हो जायेगी।"


मेरे साथ ठीक ऐसाही हुआ था। मैंने झटके से उस ख़याल को हटाया । "नही अब ऐसा नही होगा। हमारा शायद वापस मुम्बई तबादला हो!शायद क्यों ,वहीँ होगा!"लेकिन ऐसा नही हुआ।


वास्तुशाश्त्रके कोर्स मे उसे छुट्टियाँ ना के बराबर मिलती थी,और उसका पुणे आनाही नही होता......नाही किसी ना किसी कारण वश मैं उस से मिलने जा पाती। देखते ही देखते साल बीत गए। मेरी लाडली वास्तु विशारद की पदवी धर हो गयी।

हमारा पुणे से नासिक तबादला हुआ.......और हमे हमारे बेटे कोभी पढ़ाई के लिए पीछे छोड़ना पडा। इसी दरमियान मेरी बेटी ने आगे की पढ़ाई के लिए, अमरीका जाने का निर्णय ले लिया...... मेरा दिल तो तभी बैठ गया था!मेरी माँ की बिटिया कमसे कम अपने देश मे तो थी!और हमारा कुछ ही महीनोमे और भी दूर.....नागपूर, तबादला हो गया। बेटाभी था उस से भी कहीँ और ज़्यादा दूर रह गया।
बिटिया अमेरिका जाने की तैय्यारियोंमे लगी रही........


वो दिन भी आही गया जब हम मुम्बई के आन्तर राष्ट्रीय हवायी अड्डे पे खडे थे। कुछ ही देर मे मेरी लाडली को एक हवायी जहाज़ दूर मुझ से बोहोत दूर उड़ा ले जाने वाला था। उस वक़्त उसकी आँखोंमे भविष्य के सपने थे। ये सपने सिर्फ अमेरिकामे पढ़ाई करने के नही थे। उनमे अब उसका भावी हमसफ़र भी शामिल था।

उन दोनोकी मुलाक़ात जब मेरी बेटी तीसरे वर्ष मे थी तब हुई थी,और बिटिया का अमेरिका जानेका निर्णय भी उसीकी कारण था। मेरा भावी दामाद भविष्य मे वहीँ नौकरी करनेवाला था।

मेरी लाडली के नयन मे खुशियाँ चमक रही थी,और मेरी आँखोंसे कयी महीनोसे रोके गए आँसू ,अब रोके नही रूक रहे थे। वो अपने पँखों से खुले आसमान मे ऊँची उड़ान भरना चाहती थी,और मैं उसे अपने पँखों मे समेटना चाह रही थी......

मुझे मित्रगण पँछियों का उदहारण देते है..... उनके बच्चे कैसे पँख निकलते ही आकाश मे उड़ान लेते हैं.........इतनाही नही बल्कि मादा उन्हें अपने घोंसले से उड्नेके लिए मजबूर करती है....... लेकिन मुझे ये तुलना अधूरी सी लगती है। पँछी बार बार घोंसला बनाते हैं.....,अंडे देते हैं....,उनके बच्चे निकलते हैं.....,लेकिन मेरे तो ये दो ही है। उनके इतने दूर उड़ जाने मे मेरा कराह ना लाज़िम था।
मेरी लाडली सात समंदर पार चली गयी....... हम वापस लौट आये...... सिर्फ दोनो। पति अपने काम मे बेहद व्यस्त। बड़ा सा, चार शयन कक्षों वाला मकान....... हर शयन कक्ष के साथ दो दो ड्रेसिंग रूम्स और स्नानगृह। चारों ओरसे बरामदोसे घिरा हुआ।
सात एकरोमे स्तिथ । ना अडोस ना पड़ोस।


मैं बेटे के कमरे मे गयी। मन अनायास भूत कालमे दौड़ गया। मेरे कानोमे मेरे छुट्को की आवाजे गूँजने लगी,उन्ही आवाजोमे मेरी आवाज़ भी ना जानूँ, कब मिल गयी......

"माँ!देखो तो इसने मेरी यूनिफार्म पे गीला तौलिया लटकाया है,"मेरी बेटी चीख के शिक़ायत कर रही थी!

"माँ!इसने बाथरूम मे देखो कितने बाल फैलाये है!छी!इसे उठाने को कहो"!बेटा शोर मचा रहा था!


" मुझे किसी की कोई बात नही सुन नी !चलो जल्दी !स्कूल बस आने मे सिर्फ पाँच मिनट बचे हैं !उफ़!अभीतक वाटर बोतल नही ली!"मैं भी झुँझला उठी!!


"माँ!मेरी जुराबे नही मिल रही,प्लीज़ ढूँढ दो ना",बेटा इल्तिजा कर रहा था।

"रखोगे नही जगह पे तो कैसे कुछ भी मिलेगा???"मैं भी चिढ़कर बोल रही थी।


अंत मे जब दोनो स्कूल जाते तो मेरी झुंझलाहट कम होती। अब आरामसे एक प्याली चाय पी जाय !

मुझ पगली को कैसे समझा नही कि एक बार मेरे पँछी उड़ गए तो ना जानू आँखें इन्हें देखने के लिए कितनी तरस जाएँगी???


अब इस कमरे मे कितनी खामोशी थी!सब जहाँ के तहाँ !चद्दर पे कहीँ कोई सिलवट नही!डेस्क पे किताबोंका बेतरतीब ढ़ेर नही !कुर्सी पर इस्त्री किये कपड़ों पर गीला तौलिया फेंका हुआ नही!अलमारी मे सबकुछ अपनी जगह!


"मेरा एकही जूता है!दूसरा कहाँ गया??मेरी टाई नही दिख रही!मेरी कम्पास मे रुलर नही है!किसने लिया??"बच्चों की ये घुली मिली आवाजे थी।.......

"तो मैं क्या कर सकती हूँ ???अपनी चीज़े क्यों नही सँभालते??"पलट के चिल्लानेवाली मैं खामोश खडी थी।

सजे संवरे कामरोको देख के ईर्षा करनेवाली मैं.....अब मेरे सामने ऐसाही कमरा था!

"लो ये तुम्हारा इश्तेहारवाला कमरा"!!!मेरे मन ने मुझे उलाहना दी....!तुम्हे यही पसंद था ना हमेशा!हाज़िर है अब ये तुम्हारे लिए!सुबह उठोगी तो ये ऐसाही मिलेगा तुम्हे........!" मुझे सिसकियाँ आने लगी!

उस कमरे से निकल के मैं मेरी बिटियाके कमरेमे आयी। इतने दिनोसे पोर्टफोलियो के चक्कर मे बिखरे हुए कागजात,ऍप्लिकेशन फोर्म्स,साथ,साथ चल रही पैकिंग,और बिखरे हुए कपडे,अधखुली सूट केसेस ....अब कुछ भी नही था वहाँ....!मैंने घबराकर दोनो लैंप जला दिए!वो कुछ मुद्दत से बडे नियम से व्यायाम करती थी। उसने दीवार पे कुछ आसनों के पोस्टर लगा रखे थे......केवल वही उसके अस्तित्व की निशानी...खाली ड्रेसिंग टेबल (वैसे वो कुछ भी प्रसाधन तो इस्तेमाल नही करती थी).....ड्रेसिंग टेबल पे उसके कागज़ कलम ही पडे रहेते थे....पलंग पे फेंका दुपट्टा नही....हाँ अल्मारीके पास कोनेमे पडी उसकी कोल्हापुरी चप्पल ज़रूर थी। मैं सबको हमेशा बडे गर्व से कहती थी की मेरी बेटी मेरी सहेली की तरह है,हम ख़ूब गप लडाते है,आपसमे हंसी मजाक करते है,एकदूसरेके कपडे पेहेनते है। मुम्बई मे रेहेते हुए भी उसका परिधान सादगी भरा था। हाथ करघे का शलवार कुर्ता तथा कोल्हापुरी चप्पल।

उन्ही दिनोंकी,एक बड़ी ही मन को गुदगुदा देनेवाली घटना याद है मुझे....... उसके क्लास की study tour जानेवाली थी । उसने मुझे बडेही इसरार के साथ रेलवे स्टेशन चलने को कहा . .मैं भी तैयार हो गयी। स्टेशन पोहोच के उनसे मुझे अपने क्लास के साथियोसे तथा उनके माता पिता जो वहाँ आये थे,उन सभीसे बडेही गर्व से मिलवाया। फिर मुझे शरारत भरी आँखों से देखते हुए बोली,"माँ,अब तुम्हे जाना है तो जाओ। "

"क्यों??जब आही गयी हूँ तो मैं ट्रेन छूटने तक रूक जाती हूँ!"मैंने कहा।

"नही,जाओ ना!तुम्हें क्यों लायी थी ये लॉट के बताउंगी !" उसकी आंखों मे बड़ी चमक थी।

"ठीक है...तुम कहती हो तो जाती हूँ!" कहके मैं घर चली आयी..... और उसके सफरसे लौटने का इंतज़ार करने लगी। वो जब लौटी, स्टेशन वाली बात मुझे याद भी नही थी। अपने सफ़र के बारेमे बताते हुए उसने मुझ से कहा,"माँ तुम पूछोगी नही,की मै तुम्हें स्टेशन क्यों ले गयी थी??"

"हाँ,हाँ बताओ,बताओ,क्यों ले गयी थी??" मैनेभी कुतूहल से पूछा!

वो बोली,"मुझे मेरे सारे क्लास को दिखाना था कि मेरी माँ कितनी नाज़ुक और खूबसूरत भी है! अभी तक उन्हों ने तुम्हारे talents के बारेमे ही सुन रखा था! हाँ ,तुम्हारे हाथ का खाना ज़रूर चखा था....पर तुम्हे देखा नही था!!जानती हो,जैसे ही तुम थोडी दूर गयी ,सारा क्लास मुझपे झपट पडा !सब कहने लगे ,अरे! तुम्हारी माँ तो बेहद खूबसूरत है! तुम्हारी साडी और जूडेपे भी सब मर मिटे। "

मेरे मन मे सच उस वक़्त जो खुशीकी लेहेर उठी ,मैं उसका कभी बयाँ नही कर सकती!हर बच्चे को अपनी माँ दुनिया शायद सब से सुन्दर माँ लगती होगी। लेकिन मेरी लाडली जिस विश्वास और अभिमान के साथ मुझे स्टेशन ले गयी थी,मुझे सच मे अपने आप को आईने मे देखने का मन किया!

मेरा मन और अधिक भूतकाल मे दौड़ गया। हमलोग तब भी मुम्बई मे ही थे। बेटी ने तभी तभी स्कूल जाना शुरू किया था। वो स्कूल बस से जाती थी। एक दिन स्कूल से मुझे फ़ोन आया। स्कूल बस गलती से उसे बिना लिए चली गयी थी। मैं तुरंत स्कूल दौड़ी । उसे ऑफिस मे बिठाया गया था। उसके एक गाल पे आँसू एक कतरा था। मैंने हल्केसे उसे पोंछ डाला,तो वो बोली,"माँ!मुझे लगा,तुम जल्दी नही आओगी,इसलिये पता नही कहॉ से ये पानी मेरी गाल पे आ गया।"

अब पीछे मुड़कर देखती हूँ ,तो लगता है,वो एक आँसू उसने मुझे पेश की हुई सब से कीमती भेंट थी..... काश! उसे मैं मोती बनाके किसी डिब्बी मे रख सकती!

कुछ दिन पेहेले मैं अपने कैसेट प्लेयर पे रफी का गाया ,"बाबुल की दुआएँ लेती जा,"गाना सुन रही थी तो उसने झुन्ज्लाकर मुझ से कहा,"माँ!कैसे रोंदु गाने सुनती हो!इसीलिये तुम्हें डिप्रेशन होता है!"


एक और प्रसंग मुझे याद आया । तब हमलोग ठाने मे थे। बिटिया की उम्र कोई छ: साल की होगी। उसे उस वक़्त कुछ बडाही भयानक इन्फेक्शन हो गया।एक सौ चार -पांच तक का बुखार,मतली। उसे सुबह शाम इंजेक्शन लगते थे। इंजेक्शन देने डॉक्टर आते, तो नन्ही सी जान मुझे कहती,"माँ!तुम डरना मत!मुझे बिलकूल दर्द नही होता है!तुम दूसरी तरफ देखो। डाक्टर अंकल जब माँ दूसरी तरफ देखे तब मुझे इंजेक्शन देना,ठीक है?"

मेरी आँखों मे आये आँसू छुपाने के लिए मैं अपना चेहरा फेर लेती!

वो जब थोडी ठीक हुई तो उस ने मुझसे नोट बुक तथा पेंसिल माँगी और मुझपे एक निहायत खूबसूरत निबंध लिख डाला!

उसने लिखा,"जब मैं बीमारीसे उठी तो माँ ने मेरे बालोंमे हल्का-हल्का तेल लगाके कंघी की फिर चोटी बनाई। गरम पानीमे तौलिया दुबाके बदन पोंछा। फिर बोहोत प्यारी खुशबु वाला,मेरी पसंद का powder लगाया.......जब मैं बीमार थी तब वो मुझे बड़ा गंदा खाना देतीं थी..... लेकिन उसीसे तो मैं ठीक हुई!"

ऐसा और बोहोत कुछ! मैं ख़ुशी से फूले ना समाई! वो निबंध मैंने उसकी टीचर को पढने के लिए दिया..... वो मुझे वापस मिलाही नही! काश! मैंने उसकी इक कॉपी बनाके टीचर को दी होती! वो लेख तो एक बच्ची ने अपनी माँ को दिया हुआ अनमोल प्रशास्तिपत्रक था! एक नायाब tribute!!

अभी,अभी तक जब हम पुनेमे मे थे,वो मुझे देर रात बैठ के लंबे लंबे ख़त लिखती ,जिनमे अपने मनकी सारी भडास उँडेल देती!

पत्र के अंत मे दो चहरे बनाती,एक लिखने के पेहेलेका, बड़ा दुखी सा,और एक मनकी शांती पाया हुआ,बडाही
सन्तुष्ट! उसे मेरे migraine के दर्द की हमेशा चिंता रहती।

आज हवायी अड्डे परका उसका चेहेरा याद करती हूँ ,तो दिलमे एक कसकसी होती है!!लगता है, एकबार तो उसकी आँखों मे मुझे,मुझसे इतना दूर जाता हुए, हल्की- सी नमी दिखती!......ऐसी नमी जो मुझे आश्वस्त करती के उसे अपनी माँ वहाँ भी याद आयेगी, जितनी मुम्बई से आती थी!!काश! हवायी अड्डे परभी उसके गालपे जुदाई का सिर्फ एक आँसू लुढ़क आया होता जो मेरे कलेजेको ठंडक पोहोचाता ....... एक मोती, जो बरसों पेहेले मेरी इसी लाडली ने मुझे दिया था! जानती हूँ,उसका मेरे लिए लगाव,प्यार सब बरकारार है!फिरभी मेरे दिलने एक आश्वासन चाहा था!

मन फिर एकबार बच्चों के बचपन मे दौड़ गया। हम उन दिनों औरंगाबाद मे थे । मेरा बेटा केवल दो साल का था। बड़ा प्यारासा तुतलाता था!एक रात मेरे पीछे पड़ गया,"माँ मुझे कहानी छुनाओ ना!,"उसने भोले पनसे मेरा आँचल खीचा।

मैंने अपना आँचल छुडाते हुए कहा,"चलो अच्छे बच्चे बनके सो जाओ तो!!मुझे कितने काम करने है अभी!दादीमाको खानाभी देना है!"

"तो छोटी वाली कहानी छुना दो ना!",उसने औरभी इल्तिजा भरा सुर मे कहा।

"तुम्हे पता है ना वो वी विली विंकी क्या करता है.....जो बच्चे अपनी माँ की बात नही सुनते,उनकी माँ को ही वो ले जाता है...बच्चों को पीछे ही छोड़ देता है"!

कितनी भयानक बात मैंने मेरे मासूम से बच्चे को कह दी ! मुड़ के देखती हूँ तो अपनेआप को इतना शर्मिन्दा महसूस करती हूँ ,के बता नही सकती। सब कुछ छोड के एक दो मिनिट की कहानी क्यों नही सुनाई मैंने उसे?? कभी कभार ही तो वो चाहता था!

अब जब औरंगाबाद की स्मृतियाँ छा गईँ तो और एक बात याद आ गयी। ये बचपन से अंगूठा चूसता था और मेरे परिवार वाले मेरे पीछे पड़ जाते थे, कि, मैं उसकी आदत छुडाऊँ !मुझे ख़ूब पता था ,कि, ये आदत इसतरहा छुडाये नही छूटेगी.... लेकिन मैं उनके दबाव मे आही गयी

एक दिन उसे अपने पास ले बैठी और कहा,"देखो,तुम्हारी माँ अँगूठा नही चूसती,तुम्हारे बाबा नही चूसते..." आदि,आदि, अनेक लोगोंकी लिस्ट सुना दी मैंने उसे...उसने अँगूठा मूहमे से निकाला,तो मुझे लगा, वाक़ई इसपे मेरी बात का कुछ तो असर हुआ है!!अगलेही पल निहायत संजीदगी से बोला,"तो फिर उन छब को बोलो ना छूस्नेको!!"

अँगूठा वापस मूहमे और सिर फिरसे मेरी गोदी मे !!अकेलेम कभी, कभी उसकी ये बात याद आती है है तो एक आँख हँसती है एक रोती है....

अभी,अभी कालेज मे भी रात मे अँगूठा चूसने वाला छुटका,सोनेसे पहले एक बार ज़रूर लाड प्यार करवाने के लिए मेरी गोदीमे सिर रखने वाला मेरा लाडला,परदेस रेहनेकी बात करेगा और मुझे उस से किसी भी सम्पर्क के लिए तरसना पडेगा...कभी दिमाग मे आयाही नही था....भूल गयी थी ये पँख मैनेही इन्हें दिए है......अब इनकी उड़ान पे मेरा कोई इख्तियार नही.....लेकिन दिलको कैसे समझाऊँ ??दोस्तोने फिर कहा, लोग तो बच्चे अमेरिका जाते हैं ,तो मिठाई बाँटते है.....तुम्हे क्या हो गया है????"

सच मानो तो मेरा मूह कड़वा हो गया था.....!

फिर एकबार मन वर्तमान मे आ गया!!घर मे किस कदर सन्नाटा है....कंप्यूटर पे कौन बैठेगा इस बात पे झगडा नही.......खाली पडा हुआ कंप्यूटर.........कौनसा चॅनल देखना है टी.वी.पर........कोई बहस नही और कोई कुछ नही देखेगा ,कहके चिल्ला देने वाली मैं खामोश ........इतनी खामोशी के, मुझ से सही नही गयी......मैंने एक चैनल लगा दिया......मुझे घर मे कुछ तो आवाज़ चाहिए थी....मानवी आवाज़.....मेरे कितने ही छन्द थे.....लेकिन मुझे इसवक्त मेरे अपने, मेरे अतराफ़ मे चाहिऐ थे......


मेरे बच्चो!जानती हूँ जीवन मूल्यों मे तेज़ी से बदलाव आ रहा है।! तुम्हारी पीढी के लिए भौगोलिक सीमा रेशायें नगण्य होती जा रही है!फिरभी कभी तो इस देश मे लॉट आना। यही भूमी तुम्हारी जन्मदात्री है। मेरी आत्माकी यही पुकार है। इस जन्म भूमी को तुम्हीने स्वर्ग से ना सही अमेरिका से बेहतर बनाना है!!मेरा आशीर्वाद तुम्हारे पीछे है और आँखें तुम्हारी वापसी के इंतज़ार मे!!कहीँ ये थक ना जाएँ....गगन को छू लेनेवाले मेहेल और माँकी झोंपडी की ये टक्कर है......ऐसा ना हो के मेरे जीवन की शाम राह तकते तकते रात मे तबदील हो जाये....

समाप्त ।

1 टिप्पणियाँ:

परमजीत बाली said...

शमा जी,आप की इस रचना को पढ़ कर एक माँ के भीतर छुपे दर्द का एहसास होता है। ्बहुत ही सहज शब्दों में अपने दर्द को ब्या किया है।आप ने जो कमैन्ट्स किया था और जो मुक्तक पसंद किया था शायद उस का कारण भी यही अकेलेपन का एहसास रहा होगा।आप के कमैन्ट् के लिए धन्यवाद।

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